Kashmir में अलगाववाद को हवा देने वाला “उदारवादी” चेहरा था Abdul Gani Bhat

1987 के विधानसभा चुनाव के बाद जब एमयूएफ को सत्ता से दूर रखा गया और व्यापक गिरफ्तारियाँ हुईं, तभी से अलगाववाद को नई ऊर्जा मिली। भट भी जेल गए और इसके बाद उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति से किनारा कर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के मंच पर अपनी पहचान बनाई।
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के पूर्व अध्यक्ष और लंबे समय तक कश्मीर की अलगाववादी राजनीति का अहम हिस्सा रहे प्रो. अब्दुल गनी भट का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन के बाद उन्हें लेकर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं हैं। कहीं उन्हें "संयम की आवाज़" कहा गया तो कहीं "संवाद का समर्थक"। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि भले ही अब्दुल गनी भट हिंसा के रास्ते से दूरी बनाने वाले चेहरे के रूप में प्रस्तुत किए गए हों, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन की गहराई में झांकें तो साफ दिखता है कि उन्होंने कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा को हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1935 में जन्मे भट ने श्रीनगर के श्री प्रताप कॉलेज से फारसी में स्नातक और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से विधि की डिग्री हासिल की। वह लंबे समय तक प्रोफेसर और वकील रहे। 1986 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) के संस्थापक नेताओं में शामिल हुए। यह वही दौर था जब घाटी में चुनावी धांधली और जन असंतोष का माहौल अलगाववाद और आतंकवाद की ओर झुकाव का बीज बो रहा था।
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1987 के विधानसभा चुनाव के बाद जब एमयूएफ को सत्ता से दूर रखा गया और व्यापक गिरफ्तारियाँ हुईं, तभी से अलगाववाद को नई ऊर्जा मिली। भट भी जेल गए और इसके बाद उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति से किनारा कर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के मंच पर अपनी पहचान बनाई।
1990 के दशक में जब कश्मीर आतंकवाद से झुलस रहा था, उस दौर में हुर्रियत ने अलगाववादी एजेंडे को वैचारिक आधार देने का काम किया। भट, सैयद अली शाह गिलानी और अन्य नेताओं के साथ इस "संयुक्त मोर्चे" का हिस्सा बने, जिसने कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचाया।
भट को अक्सर हुर्रियत में "उदारवादी" या "संवाद समर्थक" नेता कहा गया। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकारों के साथ बातचीत में भागीदारी की। लेकिन यह भी सत्य है कि संवाद की वकालत करते हुए भी भट ने कभी भारत की संप्रभुता को स्पष्ट स्वीकार नहीं किया था। वह हथियार उठाने के विरोधी थे, परंतु अलगाववाद की विचारधारा के पैरोकार बने रहे।
यह भी तथ्य है कि केंद्र सरकार से बातचीत का समर्थन करने पर हुर्रियत में फूट पड़ गई थी और संगठन दो हिस्सों में बंट गया थी। इसका अर्थ यह था कि भले ही भट संवाद के पक्षधर थे, लेकिन उनका एजेंडा "भारत के भीतर कश्मीर का शांतिपूर्ण समाधान" नहीं बल्कि "अलगाववाद को वैधता दिलाना" था।
हम आपको बता दें कि भट ने लंबे समय तक बंद (हड़ताल) की राजनीति और हिंसा से असहमति जताई, लेकिन उन्होंने कभी भी भारत विरोधी एजेंडे को स्पष्ट रूप से खारिज नहीं किया। उनकी भूमिका ने अलगाववाद को "बौद्धिक" और "संयमित" चेहरा दिया, जिससे यह धारणा बनी कि हुर्रियत महज़ आतंकी संगठनों का मोर्चा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक विकल्प भी है। यही कारण है कि जब वह वाजपेयी और आडवाणी से मिले या मनमोहन सिंह से संवाद किया, तो पाकिस्तान समर्थक धारा को यह संदेश गया कि अलगाववाद की राजनीति का "अंतरराष्ट्रीय वैधकरण" संभव है। यह अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों और उनके समर्थकों के लिए प्रोत्साहन का कार्य बना।
दूसरी ओर, भट के निधन पर उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, मीरवाइज उमर फारूक और अन्य नेताओं ने उन्हें "संवाद का प्रतीक" और "संयम की आवाज़" बताया। लेकिन यह भी विडंबना है कि वही भट हुर्रियत के अंतिम अध्यक्ष बने जिनके नेतृत्व में संगठन विभाजित हुआ। उनकी विरासत आज भी विवादित है। सवाल यह है कि क्या वह वास्तव में समाधान खोजने वाले थे या अलगाववाद को वैचारिक चाशनी चढ़ाने वाले थे?
साथ ही अब्दुल गनी भट का जीवन कश्मीर की राजनीति की जटिलताओं को दर्शाता है। उन्होंने बंदूक और हिंसा से दूरी बनाई, लेकिन अलगाववाद की जड़ें मज़बूत करने में योगदान भी दिया। एक शिक्षक और विद्वान होने के नाते उनकी भाषा संयमित रही, मगर उनके विचारों ने कई पीढ़ियों को भारत विरोधी सोच की ओर धकेला। आज जब उनका निधन हो चुका है तो कश्मीर में उन्हें लेकर दो तरह की छवियाँ हैं— एक "संवादप्रिय विद्वान" की और दूसरी "अलगाववाद को हवा देने वाले नेता" की। इतिहास शायद उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करेगा जिसने हिंसा का समर्थन नहीं किया, लेकिन अलगाववाद की आग को ठंडा भी नहीं होने दिया।
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