कोको द्वीप समूह हो सकता भारत के लिए बड़ा खतरा, नेहरू की नासमझी क्यों बनी इस खतरे का कारण जानिए?

coco island
शुभम यादव । Aug 19 2020 6:57PM

साल 1947 में लॉर्ड माउण्टबेटन ने भारत से कोको द्वीप को अलग रखने की नीयत को अंजाम देते हुए कोको द्वीप के क्षेत्राधिकार की बात को नेहरू के पास ले जाकर स्वीकृत करा लिया जिसमें स्पष्ट रूप से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा यह साफ तौर पर कहा गया कि कोको द्वीप समूह को ब्रिटेन को दिया जायेगा।

भारत-चीन सीमा विवाद के बीच चीन नित नये विवादित आयाम गढ़ता आ रहा है, अपनी विस्तारवादी नीति के नक्शे कदम पर चीन हमेशा से अमल करता आ रहा है, ये जगजाहिर भी है। हाल ही में गलवान घाटी का चीनी और भारत की सेनाओं के बीच हुई मुठभेड़ भी चीन की विस्तारवादी नीति का ही परिणाम रही जहां दोनों देशों ने सैन्य बलों को नुकसान उठाना पड़ा।

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लेकिन एक ऐतिहासिक पहलू भारत का भी रहा है, जहां भारत की सीमाओं और महत्वपूर्ण क्षेत्रों को बरकरार न रख पाने में स्वयं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बड़ी भूल की थी। जिसका परिणाम समस्त भारतवासी आज भी भुगत रहे हैं, वहीं पड़ोसी देश चीन उसी हिस्से का बखूबी इस्तेमाल करते हुए भारत की सैन्य शक्ति का आंकलन करता है और निगरानी रखता है।

कोको द्वीप समूह का इतिहास 

छोटे-छोटे द्वीपों को मिलाकर बना एक द्वीप बंगाल की खाड़ी में स्थित है, जिसे कोको द्वीप के नाम से जाना जाता है। एशिया महाद्वीपों में सबसे महत्वपूर्ण द्वीपों की श्रेणी में गिना जाने वाला कोको द्वीप समूह कोलकाता से 1255 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में है, जो भारतीय हितों की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। लेकिन साल 1950 में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय क्षेत्राधिकारों को लेकर जो तटीय उदासीनता दिखाई और सुरक्षा के मद्देनजर भी कोको द्वीप समूह को महत्व न देते हुए जो फैसला किया वो चीन की विस्तारक नीति को खासा मजबूती देता है।

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दरअसल नेहरू ने कोको द्वीप समूह (बर्मा) म्यांमार को तोहफे में दे दिया, ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि नेहरू उस क्षेत्र को बंजर जमीन के सिवा कुछ भी नहीं मानते थे। परिणामस्वरूप म्यामांर से चीन ने इस कोको द्वीप को ले लिया और चीन की चाल सफल हो गई। 

चीन की चाल कोको द्वीप पर बढ़ती गतिविधियां

पिछले पांच दशकों से चीन की दिलचस्पी इस कोको द्वीप पर लगातार बढ़ती जा रही है, अंडमान व निकोबार द्वीप से उत्तर में मौजूद कोको द्वीप भारत की सुरक्षा और रणनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत मायने रखता है। 

भारतीय मिसाइलों के प्रक्षेपणों के प्रयासों पर चीन की गहरी निगाह हर समय रहती है जब भी हिंद महासागर या बंगाल की खाड़ी में भारत अपने किसी भी तरह की गतिविधियों को अंजाम देता है, इस पर चीन की नजर होती है। देखा जाये तो किसी भी राष्ट्र के लिये उसकी सुरक्षा गतिविधि में किसी दूसरे देश की तीखी नजर नुकसानदायक हो सकती है और प्रगतिशील राष्ट्र के लिए ये एक चिंता का विषय होना भी आवश्यक है।

ब्रिटिश साम्राज्य रखना चाहते थे भारत को द्वीपों से वंचित 

आजाद भारत को भी अपने नियंत्रण में बनाये रखने की सोच ब्रिटिश अधिकारियों में बनी रही जिसके कारण वो भारत को महत्वपूर्ण द्वीपों से वंचित रखने की चाल को अंजाम दे रहे थे। भारत की सामरिक प्रभुत्वता को क्षीण करने के उद्देश्य से ये चाल चली गयी कि हिंद महासागर और अंडमान निकोबार द्वीप पर नियंत्रण बना रहे वहीं बंटवारे के बाद पाकिस्तान की नजर भी लक्षद्वीप पर थी। 

इन योजनाओं को आखिरकार सरदार पटेल के प्रयासों ने मात दे दी। लक्षद्वीप पर कब्जे को लेकर पाकिस्तान उतावला हुआ जा रहा था लेकिन ब्रितानियों के साथ कड़ी बातचीत और अंग्रेजी शासन की चाल का भंडाफोड़ करते हुए सरदार पटेल ने इसे पाक के कब्जे से बचा लिया। सरदार ने भारतीय नौसेना को लक्षद्वीप में तैनात करने का फैसला सुनिश्चित किया।

आर्थिक व सामरिक रूप से मजबूत भारत का निर्माण न होने देने की मंशा से इस तरह के षड़यंत्रकारी कदम ब्रिटिशों के द्वारा उठाये जा रहे थे। ब्रिटिश ये जानते थे कि सरदार पटेल के सामने उनकी कोई चाल सफल नहीं हो सकेगी। जिसका स्पष्ट उदाहरण भी लक्षद्वीप पर कब्जा देख लिया था। इसलिए ब्रिटिश, सरदार से अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर चर्चा नहीं करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने इस द्वीप को भी गवां दिया और उनकी ये चाल भी नाकामयाब रही।

अंततः दो द्वीपों के खो चुका ब्रिटिश साम्राज्य बचे हुए कोको द्वीप समूह को हथियाने की जुगत में लग चुका था। बंगाल की खाड़ी में ब्रिटिश शासन की मौजूदगी बरकरार रहे जिसके लिये प्रयास शुरू हुए मगर किसी भी कीमत पर कोको द्वीप को खोने का विचार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को नहीं था, जिसमें वो सफल भी हुए।

जब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की बड़ी भूल

साल 1947 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन ने स्वतंत्र भारत से कोको द्वीप को अलग रखने की नीयत को अंजाम देते हुए कोको द्वीप के क्षेत्राधिकार की बात को नेहरू के पास ले जाकर मुंहजबानी स्वीकृत करा लिया। जिसमें स्पष्ट रूप से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा यह साफ तौर पर कहा गया कि कोको द्वीप समूह को ब्रिटेन को पट्टा दिया जायेगा, जिससे ब्रिटेन के संचार उद्देश्यों की पूर्ति होगी। 

नेहरू का ये फैसला आगे चलकर एक ऐसा कलंक बनकर उभरा जो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री हमेशा के लिए अमिट हो गया। माउण्टबेटन इस बात को बखूबी जानता था कि नेहरू की रणनीतिक समझ भी कम है साथ ही अंग्रेजों के प्रति नरम रवैया भी ब्रिटिश शासन के काम आ सकता है, बखूबी वैसा ही हुआ जैसा लॉर्ड माउण्टबेटन और अंग्रेजी शासन ने सोचा था। 

म्यांमार (बर्मा) को मिला तोहफे में कोको द्वीप समूह

बाद में कोको द्वीप समूह को नेहरू ने साल 1950 में (बर्मा) म्यांमार को तोहफे में सौंप दिया और अब चीन कोको द्वीप से भारत की निगरानी करता है। दिन-ब-दिन चीन की गतिविधियों से भारत की सीमाई सुरक्षा को एक खतरा हमेशा बना रहता है। 

कोको द्वीप में निरंतर भूमि सुधार करते हुए हवाई पट्टी के 2000 मीटर से अधिक के विस्तार और नौसैनिक सेतुबंध का निर्माण राडार स्टेशनों के निर्माण ने भारत की चिंताओं को जोर दिया है। भारत की हर तटीय गतिविधि पर चीन निगरानी तो करता ही है साथ ही भारत के लिए हमेशा खतरा बना हुआ है जैसे कोको द्वीप पर दुश्मन देश के विमान उतर सकते हैं जो भारतीय हितों के हिसाब से कतई उचित नहीं है। चीनी राडार में भारत की सैन्य गतिविधियां लगातार रहती हैं। 

भारत की सीमा सुरक्षा के लिहाज से भारत के पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने इतनी बड़ी भूल की, जिसकी भरपाई करनी आज के आधुनिक जगत में एक बड़ी चुनौती है। सरदार पटेल की रणनीतियों और नेहरू की रणनीतियों में यही एक फर्क रहा जिसके मुताबिक आज की परिस्थितियां निर्मित हुई हैं। यदि सरदार के संज्ञान में कोको द्वीप समूह का प्रस्ताव ब्रिटिश शासन के द्वारा लाया जाता तो निश्चित ही आज म्यांमार की बजाय कोको द्वीप भारत का हिस्सा होता साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से इतना बड़ा खतरा भी नहीं होता।   

भारतीय रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार चीन ने पहले से ही भारत की घेराबंदी के नजरिये से कई बंदरगाहों को स्थापित कर लिया है, बंदरगाहों पर लगातार निवेश की प्रक्रिया से आर्थिक गलियारे में भारत को घेरने की मंशा रखता है। भारत सरकार को कोको द्वीप समूह के मद्देनजर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। जिससे चीनी चाल पर पानी फिर सके और भारत की सैन्य शक्ति मुखर रूप से सचेत व समृध्द रहे।

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