शंख, त्रिशूल, मंत्र, गणेश फिर भी नहीं मिला जनादेश, 2007 में सरकार बनाया, 2022 में हाथी 1 कदम से आगे नहीं बढ़ पाया

mayawati
अभिनय आकाश । Mar 11 2022 12:05PM

उत्तर प्रदेश के बदलते हालात के बावजूद मायावती इस बार अपनी पुरानी परंपरागत राजनीति की बदौलत इस बार भी मैदान में थी। 2012, 2014, 2017 के बाद 2022 विधानसभा चुनाव में मिली अब तक की सबसे बड़ी हार के बाद अब मायावती के लिए यहां से अपनी पार्टी को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा के नतीजे आ गए और बीजेपी को मिली प्रचंड जीत के साथ ही प्रमुख विपक्षी दल के रूप में सपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। लेकिन इस चुनाव ने एक राष्ट्रीय पार्टी बसपा के अस्तित्व पर सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं। कभी 1997 में सूबे में सरकार बनाने वाली बसपा आज महज 1 सीट पर सिमट गई है। जिसके बाद चर्चा होने लगी है कि क्या मायावती का मैजिक अब फीका पड़ गया है और पार्टी अपना जनाधार खो चुकी है। जबकि इस बार मायावती ने अपने पुराने ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के सहारे सत्ता पाने की भी कोशिश की थी। जिसके लिए उन्होंने मंत्र जाप से लेकर त्रिशूल, प्रबुद्ध सम्मेलन जैसे तिकड़मों का भी सहारा लिया।

2007 के फॉर्मूले को दोहराने का दांव पड़ा फीका

हिन्दुत्व की एक राजनीति उत्तर प्रदेश ने कल्याण-मुलायम के दौर में अयोध्या मंदिर संघर्ष के दौर में देखी थी। अब उत्तर प्रदेश मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद वाली हिदुत्व की नई राजनीति से भी रूबरू हुई। बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा की अगुआई प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन (ब्राह्मण सम्मेलन) शुरू किया। मंत्रोचारण के साथ ही मायावती 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार आज बसपा सुप्रीमो मायावती किसी सार्वजनिक मंच पर भी नजर आईं। लेकिन उनका ये दांव भी इस बार काम नहीं कर सका। सत्ता में वापसी के लिए बसपा सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने के लिए  सूबे के 74 जिलों में प्रबुद्ध सम्मेलन (ब्राह्मण सम्मेलन) किया सपा प्रमुख मायावती ने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा की अगुआई में प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन (ब्राह्मण सम्मेलन) का आगाज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की नगरी अयोध्या से हुआ। घंटों और मजीरों की ध्वनि के बीच वेदमंत्रों के उच्चारण से शुरू हुए बहुजन समाज पार्टी के 'प्रबुद्ध वर्ग विचार संगोष्ठी' का समापन 'जय भीम-जय भारत' के अलावा 'जयश्रीराम' और 'जय परशुराम' के उद्घोष के साथ हुआ। दरअसल, मायावती 2007 के प्रयोग को दोहराना चाहती थीं। तब उन्होंने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का प्रयोग किया था और उसके कारण ही वे सत्ता पाने में कामयाब हुई थीं। हालांकि तब मायावती ने "जूते मारने" वाले अपने पहले स्लोगन की गलती को सुधारते हुए अपनी पार्टी के चुनाव-चिन्ह को लेकर नया नारा दिया था--'हाथी नहीं गणेश है,ब्रह्मा- विष्णु-महेश है, पंडित शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा जैसे नारे खासे लोकप्रिय हुए थे। लेकिन पहले तो 2014 के लोकसभा चुनाव फिर 2017 के चुनाव ने उत्तर प्रदेश में जाति कि राजनीति की मौत की मुनादी कर दी। सवर्ण जातियों+गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित का समीकरण बना कर बीजेपी ने चुनाव दर चुनाव यूपी के क्षत्रपों के वोट बैंक को उनके जाति विशेष तक ही सीमित कर दिया।  

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लगातार घटता वोट प्रतिशत 

बसपा का अस्तित्व उसके वोट बैंक दलितों से ही रहा है। माना जाता है कि प्रदेश में कुल 22 फीसदी वोटों में से एक बड़ा हिस्सा उसके खाते में ही जाता है। कांशीराम ने दलितों के साथ अति पिछड़ा वर्ग को जोड़ा तो उसके बाद वो सत्ता तक पहुंची। 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ बसपा सत्ता में आई। लेकिन जैसी ही स्वर्ण अळग हुए 2012 में विदाई हो गई। अस बार के चुनाव में बसपा को कुल 13 फीसदी वोट मिले हैं। ये प्रतिशत 1993 के बाद सबसे कम हैं। वहीं एक सीट के साथ ही बसपा अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गई है। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी बचा पाना अब उसके लिए मुमकिन नहीं है। संसद तक में प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा हो गया है। 

दलित नेतृत्व का खाली होता स्पेस

उत्तर प्रदेश के बदलते हालात के बावजूद मायावती इस बार अपनी पुरानी परंपरागत राजनीति की बदौलत इस बार भी मैदान में थी। 2012, 2014, 2017 के बाद 2022 विधानसभा चुनाव में मिली अब तक की सबसे बड़ी हार के  बाद अब मायावती के लिए यहां से अपनी पार्टी को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। एक समय मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही नहीं बल्कि पूरे देश में दलित नेतृत्व का सबसे मजबूत चेहरा थीं। लेकिन अब दलति नेतृत्व की एक ऐसी जगह खाली हो रही है जिसे भरने की कवायद होगी। 

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