मेरठ की हस्तिनापुर(सु०) सीट जो हर बार बदल देती है अपना विधायक और जीतने वाले की बनती है सूबे में सरकार
कुरुवंश की राजधानी और महाभारत काल का हस्तिनापुर आज भी द्रौपदी के शाप से मुक्त नहीं हो सका है। हस्तिनापुर विधानसभा किसी की नहीं हुई। हर बार इस विधानसभा ने अपना विधायक बदल दिया। कभी पार्टी बदली तो विधायक भी बदल गया।
यूपी विधानसभा के लिए चुनावी महासंग्राम का शंखनाद हो गया है। 10 फरवरी को मेरठ में पहले चरण का मतदान होगा। ऐसे में हर विधानसभा सीट पर चुनावी लड़ाई का दिलचस्प दौर भी शुरू हो गया है। कुरुवंश की राजधानी और महाभारत काल का हस्तिनापुर आज भी द्रौपदी के शाप से मुक्त नहीं हो सका है। हस्तिनापुर विधानसभा किसी की नहीं हुई। हर बार इस विधानसभा ने अपना विधायक बदल दिया। कभी पार्टी बदली तो विधायक भी बदल गया। यह भी माना जाता रहा है की आजादी के बाद से अब तक जितने भी चुनाव हुए उसमें प्रदेश में उसी दल की सरकार बनी जिसका प्रत्याशी हस्तिनापुर से जीता। जब हस्तिनापुर में निर्दल ने जीत हासिल की तो प्रदेश में बहुमत की सरकार नहीं बन सकी।
हस्तिनापुर विधानसभा सीट वर्ष 1957 से अस्तित्व में आई थी। तब से 1967 तक यहां कांग्रेस के विधायक चुने गए और प्रदेश में सरकार भी कांग्रेस की ही रही। 1967 के चुनाव में ही यह सीट सुरक्षित हो गई थी। वर्ष 1969 में परिवर्तन आया। भारतीय क्रांति दल के आशाराम हिंदू यहां से विधायक बने तो चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। वर्ष 1974 में फिर यह सीट कांग्रेस के रेवती शरण मौर्य ने जीती और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। अगला चुनाव रेवती रेवती शरण मौर्य ने 1977 में जनता पार्टी से जीती और प्रदेश में सरकार भी जनता पार्टी की ही बनी। वर्ष 1996 में इस सीट से अतुल कुमार खटीक निर्दल रूप से लड़े और चुनाव जीत गए। ऐसे में सूबे में सरकार भी किसी दल की नहीं बनी और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। हालांकि इसके बाद अपवाद यह रहा कि वर्ष 2002 में चुनाव हुए तो प्रभु दयाल बाल्मीकि सपा से चुनाव लड़े और जीत गए और सरकार बनी बसपा-भाजपा गठबंधन की बावजूद इसके यह गठबंधन 1 साल नहीं चला और फिर से सपा ने जोड़-तोड़ करते हुए सरकार बना ली। वर्ष 2007 में यह सीट बसपा के पास चलेगी या सरकार भी बसपा की बनी। 2012 में सपा ने यह सीट जीती और एक बार फिर प्रदेश में सपा की सरकार बनी। वर्ष 2017 में दिनेश खटीक जीते तो भाजपा में यूपी की सरकार बनी।
मान्यता है करीब 5 हजार साल पहले कौरव और पांडवों के बीच चौसर का खेल खेला गया। धर्मराज युधिष्ठर इस खेल में द्रौपदी को ही हार गए और कौरवों ने द्रौपदी को जीत लिया। इसके बाद भरी राजसभा में द्रौपदी को घसीटकर लाया गया और बाल खींचे गए। द्रौपदी ने श्राप दिया कि हस्तिनापुर कभी भी आबाद नहीं होगा। यही कारण बताया जाता है कि द्रौपदी के श्राप से हस्तिनापुर कभी मुक्त नहीं हुआ।
3 लाख 50 हजार वोटर वाली हस्तिनापुर विधानसभा में यह भी एक संयोग रहा है की जिस भी पार्टी का विधायक बनता है, प्रदेश में सरकार उसी की बनती है। और साथ ही हस्तिनापुर विधानसभा से कोई भी विधायक दूसरी बार अपनी विधायकी बचाने में कामयाब नहीं हो सका। हर बार यहां की जनता अपना विधायक बदल देती है।
हस्तिनापुर विधानसभा में 3 लाख 50 हजार वोटर हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में 3 लाख 36 हजार वोटर थे। इस सीट पर मुस्लिमों की संख्या सबसे ज्यादा है। एक लाख मुस्लिम वोटर हैं। दूसरे नंबर पर दलित (जाटव) हैं, जिनकी संख्या 63 हजार है। गुर्जर वोटर की संख्या 56 हजार है। जाट 26 हजार, सिख 13 हजार, यादव 10 हजार, वाल्मीकि 8 हजार वोटर हैं। ब्राह्मण 7 हजार हैं। अन्य वोटों में सैनी, कश्यप, धीमर, खटीक, प्रजापति, गिरी हैं। यह सीट भले ही एससी कोटे की हो, लेकिन यहां मुस्लिम वोटों की संख्या सबसे अधिक है।
हस्तिनापुर में कब कौन रहा विधायक
1957- विशंभर सिंह,कांग्रेस
1962- प्रीतम सिंह, कांग्रेस
1967- आरएल श्याक,कांग्रेस
1969 आशाराम इंदू ,भारतीय क्रांति दल 1974 रेवती शरण मौर्य ,कांग्रेस
1977 रेवती शरण मौर्य ,जनता पार्टी 1980 झगड सिंह ,कांग्रेस
1985 हरशरण सिंह ,कांग्रेस
1989 झगढ़ सिंह ,जनता दल
1996 अतुल कुमार ,निर्दलीय
2002 प्रभुदयाल वाल्मीकि ,सपा
2007 योगेश वर्मा ,बसपा
2012 प्रभु दयाल बाल्मीकि ,सपा
2017 दिनेश खटीक भाजपा
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