दिल्ली चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन रहा खराब तो नीतीश के पास बिहार के लिए नया फॉर्मला है तैयार

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अभिनय आकाश । Jan 15 2020 12:23PM

बीजेपी की अंदरूनी रणनीति के अनुसार वो इस बार जदयू को महागठबंधन बनाने का पर्याप्त वक्त नहीं देने की तैयारी में है और चुनाव के एक-दो महीने पहले अगर सीटों पर बात नहीं बनती है तो अकेले ही मैदान में उतर सकती है।

बिहार में विधानसभा चुनाव इस साल के आखिरी में होने हैं। अक्टूबर-नवंबर के बीच बिहार की 243 सीटों को लेकर होने वाले विधानसभा चुनाव में वैसे तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कहती नजर आती है। लेकिन बीजेपी से ही कई बार सीएम पद को लेकर दावे भी किए जाते रहे हैं। वैसे तो एनआरसी और सीएए को लेकर विरोध और समर्थन का दौर जारी है। लेकिन बात अगर बिहार की करें तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधानसभा में कहा था कि यहां पर कोई एनआरसी लागू नहीं होगी। इसके साथ ही उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून पर भी चर्चा करने की बात कही थी। हालांकि, नीतीश कुमार की पार्टी ने संसद में नागरिकता संशोधन बिल का समर्थन किया था। जिसके बाद नीतीश सरकार पर हमेशा हमलावर रहने वाले बीजेपी नेता संजय पासवान का बयान आया कि अगर जदयू के साथ हमारा गठबंधन नहीं चलता है तो हम नया गठबंधन बनाने में नहीं हिचकिचाएंगे।

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वहीं जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर भी एनआरसी और सीएए के विरोध में काफी मुखर नजर आ रहे हैं। इन सब के बीच राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अंदर सब-कुछ सामान्य नहीं चल रहा। बीते दिनों राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के पार्टी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि बहुत जल्द सीट बंटवारे के समय भी सबकी राहें अलग-अलग होंगी। केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष यादव को एक पत्र लिखकर पार्टी की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए थे। सिंह ने पत्र में लिखा कि बिहार में विधानसभा का चुनाव होने में अब 300 दिन का समय बचा है, लेकिन पार्टी की बूथ स्तरीय, पंचायत, प्रखंड, जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय कार्यसमिति का भी गठन नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि संगठन के बिना संघर्ष और संघर्ष के बिना संगठन मजबूत नहीं हुआ करता है। गौरतलब है कि तेजस्वी के पार्टी की कमान संभालने के बाद रघुवंश प्रसाद सिंह, शिवानंद तिवारी और अब्दुल बारी जैसे नेता खुद को सहज नहीं पा रहे हैं। यह सब अभी तक इस उम्मीद में थे कि उन लोगों के लालू राज वाले दिन लौट आएंगे, क्योंकि एक वक्त यह ‘तिकड़ी’ लालू प्रसाद यादव की सबसे भरोसेमंद हुआ करती थी। अब यह ‘तिकड़ी’ किसी निर्णायक रास्ते की तरफ बढ़ती दिख रही है।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि तेजस्वी यादव से पार्टी पर जितनी मजबूत पकड़ की उम्मीद की जा रही थी, वह दिख नहीं पाई। इसी वजह से पार्टी के अंदर बिखराव की स्थिति पैदा हुई है। इन सबके मद्देनजर राज्य में नए सियासी समीकरण बनने की भी संभावना जताई जा रही है। राजनीतिक जानकारों की माने तो दिल्ली चुनाव में अगर बीजेपी का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा तो बिहार में कुछ ‘नया’ देखने को मिल सकता है। जानकारी के अनुसार राजद में तेजस्वी से असंतुष्ट धड़ा एकजुट होकर अपने को ‘असली राजद’ करार दे सकते हैं। जिसके बाद आने वाले वक्त में नीतीश कुमार बीजेपी को किनारे कर उनकी जगह नए राजद से गठबंधन कर सकते हैं। सीएए और एआरसी के बढ़ते विरोध और सरकार के बैकफुट पर आने के बाद अब बिहार के सियासी गलियारों में ये कयास लगाया जा रहा है कि अगर दिल्ली में बीजेपी ने खराब प्रदर्शन किया तो फिर बिहार में नीतीश कुमार कोई नया खेल कर सकते हैं।

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वैसे भी ये खबर तेज थी कि सीटों को लेकर बीजेपी और जदयू में खींचतान हो सकती है और प्रशांत किशोर द्वारा एनआरसी और सीएए के विरोध को राजनीतिक पंडित उसी नजर से देख रहे थे। उधर बीजेपी की अंदरूनी रणनीति के अनुसार वो इस बार जदयू को महागठबंधन बनाने का पर्याप्त वक्त नहीं देने की तैयारी में है और चुनाव के एक-दो महीने पहले अगर सीटों पर बात नहीं बनती है तो अकेले ही मैदान में उतर सकती है। ये तो सौ फीसदी सच है कि बीजेपी के पास बिहार में नीतीश कुमार के कद का वैसे ही कोई नेता नहीं है जैसे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को सीधे सीधे टक्कर देने वाला। ये बीजेपी की मजबूरी हो सकती है, लेकिन नीतीश कुमार की भी अपनी मजबूरी है। दिल्ली में शीला दीक्षित, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सभी के सत्ता से हाथ धो बैठने की कहानी मिलती जुलती ही है। नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री के तौर पर 15 साल पूरा होने जा रहा है। ऐसे में एंटी इनकमबेंसी भी बड़ा फैक्टर है जैसा कि पंजाब विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के साथ 2017 में बीजेपी मिल कर ही विधानसभा चुनाव लड़े, लेकिन ऐसा लगा जैसे बीजेपी नेतृत्व महज रस्म अदायगी कर रहा हो। परिणाम का उसे भी ज्ञात था। सबसे बड़ा सच तो ये है कि सम्मान भी रिश्तों की मिठास या मजबूरी का ही मोहताज होता है। लेकिन उससे भी बड़ा शाश्वत स्तय ये है कि कोई भी चुनावी या सत्ताधारी गठबंधन एक ही बात पर टिका होता है- दोनों ही पक्षों का एक-दूसरे से कितना स्वार्थ है?

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