Shaurya Path: Israel-Hamas, Iran, Russia-Ukraine War, South China Sea और Pak-Afghan से जुड़े मुद्दों पर Brigadier Tripathi से बातचीत

Brigadier DS Tripathi
Prabhasakshi

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि ईरान की शुरू से ही ख्वाहिश रही है कि वह इस्लामिक देशों का नेता बने। इसके लिए वह जब-तब प्रयास करता रहा कि वह परमाणु शक्ति संपन्न देश बने लेकिन इजराइल और अमेरिका ने कभी ऐसा होने नहीं दिया।

प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में इस सप्ताह इजराइल-हमास संघर्ष, इजराइल-हमास संघर्ष में ईरान की भूमिका, रूस-यूक्रेन युद्ध, दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती चुनौतियों की और पाकिस्तान की ओर से देश से बाहर निकाले जा रहे अफगानियों से जुड़े मुद्दों पर ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) के साथ बातचीत की गयी। पेश है विस्तृत साक्षात्कार- 

प्रश्न-1. इजराइल-हमास संघर्ष अब किस दिशा में जा रहा है?

उत्तर- यह संघर्ष अब लंबा खिंचता नजर आ रहा है। अमेरिका हालांकि युद्ध थामने के प्रयास करता दिख रहा है लेकिन इन प्रयासों में वह गंभीरता नजर नहीं आ रही है जोकि आनी चाहिए। उन्होंने कहा कि वर्तमान हालात को देखें तो जैसे इजराइल को अपनी रक्षा करने का अधिकार है वैसे ही फलस्तीन के लोगों को भी जीने का अधिकार है। लेकिन अगर निर्दोष इजराइलियों की हत्या की जाती रहेगी और निर्दोष फलस्तीनियों को मारा जाता रहेगा, तो कभी भी शांति स्थापित नहीं हो पायेगी। उन्होंने कहा कि संघर्षरत नागरिकों तक मानवीय सहायता, भोजन, पानी और दवा पहुंचाने के लिए तत्काल संघर्षविराम की आवश्यकता है। इसके बाद आगे एक अलग रास्ता तलाशने की जरूरत है। पश्चिम एशिया में संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान का प्रयास सबको मिलकर करना होगा तभी कुछ परिणाम मिलेंगे।

प्रश्न-2. इजराइल-हमास संघर्ष में ईरान क्यों बढ़-चढ़कर भूमिका निभा रहा है? उसके अपने क्या हित हैं?

उत्तर- ईरान और इजराइल आज एक दूसरे को देखना नहीं चाहते लेकिन 70 के दशक में ऐसे हालात नहीं थे। उन्होंने कहा कि ईरान के तत्कालीन शाह के शासन के दौरान इजराइल के साथ उनके बहुत अच्छे संबंध थे। उस समय ईरान भी पश्चिमी देशों की तरह सामाजिक रूप से पूरी तरह खुला और आजाद था लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद वहां जो शासन बदला उसने इस्लामिक कानूनों के हिसाब से अपने नागरिकों पर तमाम तरह की बंदिशें लगाईं और इसके बाद ईरान धीरे-धीरे पश्चिमी और यूरोपीय देशों से दूर होता चला गया।

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ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि ईरान की शुरू से ही ख्वाहिश रही है कि वह इस्लामिक देशों का नेता बने। इसके लिए वह जब-तब प्रयास करता रहा कि वह परमाणु शक्ति संपन्न देश बने लेकिन इजराइल और अमेरिका ने कभी ऐसा होने नहीं दिया। कभी ईरान के परमाणु संयंत्रों को तबाह किया गया तो कभी ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या हो गयी। उन्होंने कहा कि ईरान इजराइल पर सीधे हमले से बचता है लेकिन वह खुले तौर पर उन संगठनों को ताकत देता है जो इजराइल से लड़ सकते हैं।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि तेहरान इसे एक बड़ी जीत मानता है कि हमास इजरायली खुफिया एजेंसी को धोखा देने और इतने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन को अंजाम देने में सक्षम था। ईरान हमास के प्रति अपने मजबूत समर्थन को नहीं छिपाता है और उसने इजराइल पर किये गये हमले की खुलकर प्रशंसा भी की है। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे इजराइली सेना गाजा में आगे बढ़ेगी, यह युद्ध उस बिंदु पर पहुँच सकता है जहां ईरान से समर्थन पाने वाले हिजबुल्लाह और इराक, लेबनान, यमन तथा अन्य जगहों पर तेहरान समर्थित अन्य मिलिशिया सीधे इस युद्ध में उतर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यदि इस तरह का घटनाक्रम बनता है तो इस लड़ाई में अमेरिका भी उतर सकता है। 

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि 1979 में अपनी स्थापना के बाद से इस्लामी गणतंत्र ईरान ने खुद को फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन के कट्टर सहयोगी के रूप में पेश किया है। शाह को उखाड़ फेंकने वाले कई इस्लामी और वामपंथी ईरानी क्रांतिकारियों ने फिलिस्तीनी लेखकों और सेनानियों से प्रेरणा ली। 1960 और 1970 के दशक के दौरान, इनमें से कुछ ईरानियों ने फ़िलिस्तीनी गुरिल्ला शिविरों में प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था। एक बार जब वह सब ईरान पर कब्ज़ा करने में सफल हो गए तो इन ईरानी क्रांतिकारियों ने एहसान का बदला चुकाना शुरू किया। उन्होंने इज़रायली दूतावास को फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन को सौंप दिया। क्रांतिकारियों के सत्ता संभालने के कुछ ही दिनों के भीतर फिलिस्तीनी समूह के नेता यासिर अराफ़ात का तेहरान में स्वागत किया गया। 1980 के दशक के दौरान, ईरान के नव स्थापित इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स ने लेबनान के इजरायली कब्जे से जूझ रहे लेबनानी शिया समूहों को प्रशिक्षण प्रदान किया। इसके अलावा, 1990 के दशक के मध्य में जब फिलिस्तीन मुक्ति संगठन हिंसा से दूर होकर कूटनीति के रास्ते पर चला गया तो ईरान ने इजरायल विरोधी इस्लामी सशस्त्र समूहों का एक नेटवर्क तैयार किया।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि लेबनानी और फ़िलिस्तीनी आतंकवादी ईरान की मदद से काफी सक्षम हो गये और उन्होंने बेहतर तरीके से इज़राइली रक्षा बलों का सामना किया। ईरान की मदद से लेबनान के हिज़बुल्लाह समूह ने खुद की ताकत बढ़ाई और आखिरकार साल 2000 में इज़राइल को दक्षिणी लेबनान से बाहर निकालने में सफलता हासिल की। हिजबुल्लाह के साथ अपनी सफलता के आधार पर 1990 के दशक की शुरुआत में, ईरान ने सशस्त्र फिलिस्तीनी संगठन हमास को समर्थन देना शुरू कर दिया, जिसका 2007 से गाजा पर नियंत्रण है। मुस्लिम ब्रदरहुड में निहित हमास की स्थापना 1987 में पहले फिलिस्तीनी इंतिफादा के बाद हुई थी और इसे न केवल शिया ईरान से बल्कि कतर जैसे सुन्नी देशों से भी समर्थन मिला है। उन्होंने कहा कि हमास वास्तव में एक सुन्नी संगठन है और इसने गाजा की छोटी शिया आबादी पर नकेल कसी है, शिया उपासकों पर अत्याचार किया है और शिया संगठनों को बंद कर दिया है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यह भी एक सत्य है कि ईरानी नेताओं ने अपने सहयोगियों का नेटवर्क बनाने में व्यावहारिकता दिखाई है। तेहरान ने हमास के साथ मतभेदों को लगातार नजरअंदाज किया है और इसका परिणाम भी मिला है। अपने लेबनानी समकक्ष की तरह, हमास समय के साथ ईरानी सहायता और इज़राइल के साथ बार-बार सैन्य टकराव के चलते पहले से अधिक सक्षम हो गया है। वित्तीय, सैन्य और राजनीतिक सहायता प्रदान करके ईरान ने हमास की क्षमताओं और उसके रॉकेटों के तेजी से बढ़ते शस्त्रागार को आगे बढ़ाने में योगदान दिया है। ये क्षमताएं और हथियार 7 अक्टूबर के हमले में एक साथ दिखे थे।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि गाजा में मौजूदा युद्ध से ईरान अपने कई लक्ष्य साधना चाहता है। ईरान विशेष रूप से चाहता है कि उसके साझेदार गाजा में इजरायल की जीत को रोकते हुए इजरायल को असहनीय नुकसान पहुंचाएं, जिससे इजरायली सेना को फिलिस्तीनियों पर फिर से बड़े पैमाने पर हमले करने से रोका जा सके। ईरान का यह भी मानना है कि इस तरह के परिणाम से वेस्ट बैंक में विजयी हमास या इसी तरह के आतंकवादी समूह को सत्ता में आने में मदद करके इजरायली निवासियों के खिलाफ फिलिस्तीनियों की रक्षा की जा सकती है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यदि संघर्ष बढ़ता है तो ईरान के परमाणु शक्ति बनने की दिशा में अंतिम कदम उठाने की संभावना बढ़ जाएगी। ईरान के पास पहले से ही कामचलाऊ हथियार बनाने की क्षमता है। अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार, ईरान के पास दो सप्ताह के भीतर परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त विखंडनीय सामग्री है। यदि इज़राइल या अमेरिका को लगता है कि तेहरान बम बनाने वाला है तो वे ईरान की परमाणु सुविधाओं पर हमला करके जवाब दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि ईरान की कई परमाणु सुविधाएं गहरे भूमिगत हैं और सबसे शक्तिशाली पारंपरिक हथियारों के साथ भी उन्हें नष्ट करना मुश्किल है। इसलिए ईरान के परमाणु कार्यक्रम को वास्तव में समाप्त करने के लिए, अमेरिका को पूर्ण पैमाने पर आक्रमण करना पड़ सकता है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि देखा जाये तो तेहरान के लिए, गाजा में इज़राइल का युद्ध एक उपयुक्त समय पर आया है। मुख्य रूप से सुन्नी अरब क्षेत्र में शिया फ़ारसी देश के रूप में अपने अलगाव की भरपाई के लिए ईरान लंबे समय से फ़िलिस्तीनी मुद्दे पर निर्भर रहा है। फिर भी जब फिलिस्तीनी अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में नहीं थे तो यह रणनीति कम प्रभावी थी। तेहरान का यह भी मानना है कि गाजा में युद्ध उसके आंतरिक दमन को छुपा सकता है। पिछले साल, बर्लिन, लंदन, वाशिंगटन और दुनिया भर के अन्य शहरों की सड़कें महिलाओं के खिलाफ इस्लामी गणराज्य की हिंसा का विरोध करने वाले लोगों से भरी हुई थीं। अब उन्हीं सड़कों पर गाजा पर इजराइल के हमलों का विरोध कर रहे लोगों का कब्जा है। उन्होंने कहा कि इसके अलावा ईरानी अधिकारी और सरकार समर्थक टिप्पणीकार, असंतोष को भुनाने की कोशिश में एक लेबनानी महिला गायक और एक अरब अमेरिकी महिला प्लेबॉय स्टार के वीडियो और कहानियां साझा कर रहे हैं, जिन्होंने सोशल मीडिया पर हिजबुल्लाह और हमास के लिए समर्थन दिखाया है। उन्होंने कहा कि ईरान के नेता अच्छी तरह से जानते हैं कि विस्तारित संघर्ष से उनके देश पर सीधा हमला हो सकता है, जिससे इस्लामिक गणराज्य के कमजोर होने या नष्ट होने का खतरा हो सकता है।

प्रश्न-3. रूस-यूक्रेन युद्ध की ताजा स्थिति क्या है?

उत्तर- रूस ने जो हालिया बड़ा हमला किया है उससे यूक्रेन की कमर पूरी तरह टूट गयी है। अब तक यूक्रेन पश्चिमी और नाटो देशों से मिल रही मदद के बल पर रूस के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए था लेकिन इजराइल-हमास संघर्ष ने नाटो का विभाजन करा दिया और पश्चिमी देशों का पूरा ध्यान इजराइल की मदद पर है इसलिए यूक्रेन को अकेला पड़ा देश रूस कोई मौका नहीं चूक रहा है। रूस धड़ाधड़ हमले कर रहा है क्योंकि उसे दिख रहा है कि जब गाजा में लोगों की स्थिति सुधारने के लिए दुनिया कुछ नहीं कर पा रही है तो यूक्रेन में कोई क्या करेगा। उन्होंने कहा कि ले देकर अमेरिका बस रूस के खिलाफ प्रतिबंध बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस क्रम में उसने रूस तक आपूर्ति की पहुंच रोकने के लिए 130 विदेशी कंपनियों और लोगों पर प्रतिबंध लगाया है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि इस युद्ध को 618 दिन हो चुके हैं और यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि यह युद्ध और खिंचेगा। उन्होंने कहा कि कोई हार मानने को तैयार नहीं है और दोनों तरफ थकान भी देखने को मिल रही है। उन्होंने कहा कि हाल के दिनों में रूस ने एक ही दिन में 100 से अधिक बस्तियों पर बमबारी करके अपने हमले तेज कर दिए हैं, जो इस साल देखी गई आक्रामकता का उच्चतम स्तर है। उन्होंने कहा कि इसके अलावा, रूस ने यूक्रेन पर लगभग 20 मिसाइलें दागीं और कीव ने उनमें से 18 को सफलतापूर्वक रोक दिया जिससे लगता है कि संघर्ष थमने वाला नहीं है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यूक्रेन की सबसे महत्वपूर्ण चिंता यह है कि सर्दियां आने वाली हैं और जैसे-जैसे सर्दियाँ करीब आती हैं, उसमें मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा सर्दियों में हमलों से बाधित होने वाली विद्युत आपूर्ति और भी तगड़ी चुनौती पैदा करती है। यूक्रेन युद्ध में यह दूसरी सर्दियां होंगी जब लोग मुश्किलों का सामना करने को मजबूर होंगे। हालांकि यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदमीर जेलेंस्की हार नहीं मान रहे हैं और जोर दे रहे हैं कि इस युद्ध में यूक्रेन असाधारण उपलब्धियां हासिल करके रहेगा। उनका कहना है कि जब युद्ध शुरू हुआ था तब दुनिया में लोगों ने नहीं सोचा था कि यूक्रेन इतना संघर्ष कर पायेगा। जेलेंस्की का कहना है कि दुनिया अब हमारे सैनिकों की ताकत का लोहा मान रही है और एक दिन आयेगा जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को भी इस बात का अहसास होगा। उन्होंने कहा कि जेलेंस्की का यह भी मानना है कि काले सागर की लड़ाई में यूक्रेन की सफलता कुछ ऐसी है जो इतिहास की किताबों में दर्ज होगी।

प्रश्न-4. दक्षिण चीन सागर में चीन की चुनौतियों को देखते हुए हमारी क्या तैयारियां हैं? अब तो चीनी पोत श्रीलंका में आकर रिसर्च के नाम पर अपने छिपे एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं?

उत्तर- चीन की "आक्रामकता का स्तर" चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि व्यापारिक संबंध समृद्धि के लिए जारी रहें, लेकिन दूसरे देशों की संप्रभुता का ख्याल रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि चीन की हर चाल पर भारत की नजर बराबर बनी हुई है और चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हमारी रक्षा-सुरक्षा एजेंसियां हर हालात पर नजर बनाये हुए हैं।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि जहां तक चीनी पोतों के श्रीलंका में मौजूद होने की बात है तो उस पर भारत और अमेरिका ने चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि बताया जा रहा है कि चीन और श्रीलंका के वैज्ञानिक एक चीनी अनुसंधान पोत पर समुद्र विज्ञान संबंधी शोध कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि चीनी पोत ‘शी यान 6’ पिछले हफ्ते कोलंबो बंदरगाह पहुंचा था। भारत द्वारा आपत्तियां जताये जाने के चलते पोत के आगमन के लिए अनुमति देने में देर हुई। उन्होंने बताया कि कोलंबो में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बयान जारी करके कहा है कि 30 और 31 अक्टूबर को समुद्र विज्ञान संबंधी अनुसंधान करने के लिए अनुमति दी गई। राष्ट्रीय जलीय अनुसंधान एजेंसी (एनएआरए) के वैज्ञानिक, नौसेना कर्मी और रूहाना विश्वविद्यालय के विद्वानों को पोत पर जाने की अनुमति दी गई है। उन्होंने कहा कि एजेंसी के महानिदेशक डॉ. कमल तेनाकून ने बताया है कि पोत के जरिये कोलंबो में बेनतारा के पास अनुसंधान कार्य किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि चीनी अनुसंधान पोत ने श्रीलंका के समुद्र में अनुसंधान किया। इसे भूभौतिकीय अनुसंधान के लिए चीन का पहला वैज्ञानिक अनुसंधान पोत बताया जा रहा है। उन्होंने कहा कि पिछले महीने, चीनी अनुसंधान पोत की यात्रा को लेकर अमेरिका ने भी श्रीलंका के समक्ष चिंता जताई थी। उन्होंने कहा कि भारत, चीनी पोत की श्रीलंका यात्रा को लेकर चिंता जताता रहा है। चीनी उपग्रह निगरानी पोत की 2022 की शुरुआत में भी इसी तरह की यात्रा को लेकर भारत ने कड़ा विरोध दर्ज कराया था।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन इस महीने के आखिर में सैन फ्रांसिस्को में ‘एपीईसी लीडरशिप’ शिखर सम्मेलन से इतर चीन के अपने समकक्ष शी चिनफिंग से मुलाकात करेंगे। उन्होंने बताया कि एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग या ‘एपीईसी’ एशिया-प्रशांत में कारोबार एवं निवेश, आर्थिक विकास एवं क्षेत्रीय सहयोग से संबंधित शीर्ष मंच है। राष्ट्रपति बाइडन ने ‘एपीईसी लीडरशिप’ शिखर सम्मेलन के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी आमंत्रित किया है। मगर भारत का प्रतिनिधित्व कैबिनेट स्तर के मंत्री द्वारा किए जाने की संभावना अधिक है। उन्होंने कहा कि चीन के साथ किस तरह से आगे बढ़ना है, इस बारे में बाइडन प्रशासन की नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और भारत भी अपने रुख पर अडिग है।

प्रश्न-5. पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान लौटने को मजबूर हो रहे हैं जिसे एक और मानवीय संकट के रूप में देखा जा रहा है। इसे कैसे देखते हैं आप?

उत्तर- अफगानिस्तान से हाल के दिनों में बढ़ी दुश्मनी के चलते पाकिस्तान जो कार्रवाई कर रहा है वह गलत है क्योंकि इससे एक बड़ा मानवीय संकट खड़ा हो गया है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान सरकार को तत्काल यह कार्रवाई रोकनी चाहिए अन्यथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को पाकिस्तान को दी जाने वाली वित्तीय सहायता रोक देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान जो कर रहा है वह अवैध कार्रवाई है और अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन भी है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि तालिबान के बर्बर शासन से डरकर पलायन करने वाले अफगान शरणार्थियों को सुनियोजित तरीके से जबरन निकालने की पाकिस्तान की योजना न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक अवैध है, बल्कि इससे भीषण मानवीय संकट खड़ा हो गया है। उन्होंने कहा कि ओसामा बिन लादेन के समय से ही यह ज्ञात था कि पाकिस्तान तालिबान के साथ मिलकर काम करता है क्योंकि यह अफगानिस्तान पर पकड़ बनाने का उसका छद्म तरीका रहा है। अब पाकिस्तान हताश प्रतीत होता है क्योंकि तालिबान पर उसकी पकड़ ढीली पड़ गई है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान अफगान शरणार्थियों के साथ वही करने की कोशिश कर रहा है जो इससे पहले वह अपने हिंदू एवं सिख अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ कर चुका है।

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि पाकिस्तान के इस कदम पर तालिबान ने जिस तरह नाराजगी जताई है उससे संकेत मिल रहा है कि आने वाले दिनों में पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी भिड़ सकते हैं। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के तालिबान शासकों ने बिना दस्तावेज वाले प्रवासियों को बाहर निकालने पर पाकिस्तान को फटकार लगाई है। तालिबान शासन के रक्षा मंत्री मुल्ला मुहम्मद याकूब ने पश्तो में एक कहावत के साथ पाकिस्तान को फटकार लगाई- "जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।" उन्होंने बताया कि बीबीसी पश्तो रेडियो से बात करते हुए याक़ूब ने कहा, "हम पाकिस्तानी सरकार से अफ़गानों के खिलाफ क्रूरता के कृत्यों को करने और उनकी संपत्ति और संपत्तियों को जब्त करने से परहेज करने का आग्रह करते हैं, क्योंकि ये कार्रवाई किसी भी कानूनी ढांचे के अनुरूप नहीं है।" तालिबान मंत्री ने जोर देकर कहा, "हम हर कीमत पर ऐसी कार्रवाइयों को रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं और किसी को भी अफगान शरणार्थियों की संपत्ति जब्त करने की अनुमति नहीं देंगे।" उन्होंने कहा कि इसी के साथ ही तालिबान के प्रधान मंत्री मुल्ला हसन अखुंद ने भी एक वीडियो बयान जारी किया, जिसमें कहा गया, "पाकिस्तानी शासकों, वर्तमान अंतरिम सरकार और सैन्य जनरलों को इस्लामी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और भविष्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और अफगान शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार करने और उनकी संपत्तियों को जब्त करने से बचना चाहिए।" 

ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि लगभग चार दशकों से लाखों अफ़गानों ने युद्ध और अभाव से पीड़ित होकर पाकिस्तान में शरण ली है। अनुमान है कि उनकी संख्या लगभग 4 मिलियन है जिसमें से उचित दस्तावेज़ों के बिना लगभग 1.7 मिलियन लोग पाकिस्तान में रह रहे हैं। इनमें से कई लोगों ने व्यवसाय स्थापित कर लिया है। उन्होंने कहा कि सीमाओं की स्थिति अलग-थलग पड़े अफगानिस्तान और संकटग्रस्त तथा नकदी संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के बीच पहले से ही तनावपूर्ण संबंधों को और तनावपूर्ण बना रही है। उन्होंने कहा कि अगर यह तनाव ज्यादा बढ़ा तो पाकिस्तान में फरवरी में होने वाले चुनावों में इसका सीधा असर देखने को मिल सकता है। उन्होंने कहा कि सरसरी तौर पर देखें तो पाकिस्तान ने यह कदम इसलिए उठाया है क्योंकि वह अफगान क्षेत्र से सक्रिय आतंकवादियों पर अंकुश नहीं लगाने के लिए तालिबान को दोषी ठहराता है। पाकिस्तान का दावा है कि उसकी सीमाओं के अंदर अफगान आतंकवाद में वृद्धि में योगदान दे रहे हैं।

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