जजों के असहमति के फैसले सार्वजनिक हो सकते हैं तो चुनाव आयुक्तों के क्यों नहीं: येचुरी

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[email protected] । May 18 2019 6:21PM

हाल ही में लवासा ने चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों के निस्तारण संबंधी आयोग के फैसलों में चुनाव आयुक्तों की असहमति के फैसलों को शामिल नहीं करने के कारण खुद को आयोग की बैठकों से अलग कर लिया।

नयी दिल्ली। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने चुनाव आयुक्तों के असहमति के फैसलों को आयोग के फैसले में शामिल नहीं करने को जनतंत्र के लिये अनुचित बताते हुये कहा है कि अगर शीर्ष अदालत के फैसलों में असहमति के फैसले को शामिल किया जा सकता है तो चुनाव आयोग में ऐसा क्यों नहीं हो सकता है। येचुरी ने चुनाव आयुक्त अशोक लवासा द्वारा उठाये गये इस मुद्दे से उत्पन्न विवाद पर शनिवार को प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा, ‘‘चुनाव आयुक्तों की असहमति की आवाज को दबाया जाना देश के जनतंत्र के लिये उचित नहीं है। यह चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बड़ा सवाल उठाने वाली बात है।’’ 

उल्लेखनीय है कि हाल ही में लवासा ने चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों के निस्तारण संबंधी आयोग के फैसलों में चुनाव आयुक्तों की असहमति के फैसलों को शामिल नहीं करने के कारण खुद को आयोग की बैठकों से अलग कर लिया। लवासा, मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को पत्र लिखकर अपने इस रुख से अवगत करा चुके है। लेकिन अरोड़ा ने इस मामले में स्पष्टीकरण जारी कर इसे आयोग की पूर्व निर्धारित व्यवस्था बताया है।

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येचुरी ने आयोग की इस व्यवस्था को जनतंत्र के लिये नुकसानदायक बताते हुये इस पर सवाल खडे़ किये। उन्होंने कहा, ‘‘यह स्थिति देश की जनतांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं है। आयोग को इन समस्याओं को तत्काल दुरुस्त करने की जरूरत है।’’ उन्होंने दलील दी कि न्यायालयों में भी असहमति के स्वर पर अल्पमत और बहुमत के आधार पर फैसला किया जाता है, लेकिन असहमति का फैसला अल्पमत में होने पर भी उसे प्रकाशित किया जाता है। येचुरी ने कहा, ‘‘अगर न्यायाधीशों की असहमति की राय सार्वजनिक रूप से जनता के संज्ञान में आ सकती है तो चुनाव आयोग की असहमति के स्वर को क्यों दबाया जा रहा है। यह हमारी समझ से परे है।’’

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