Mohan Bhagwat से पूछा गया- Modi का उत्तराधिकारी कौन होगा? संघ प्रमुख ने हाथ के हाथ दे दिया जवाब

हम आपको बता दें कि मोहन भागवत का यह संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण जवाब इस दिशा में एक संकेत माना जा रहा है कि संघ, कम से कम सार्वजनिक रूप से उत्तराधिकार से जुड़े किसी भी विमर्श में खुद को शामिल करने के मूड में नहीं है।
चेन्नई में मंगलवार को आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के शताब्दी वर्ष समारोह के दौरान सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक ऐसा बयान दिया, जिसे भारतीय राजनीति विशेषकर भाजपा के भीतर चल रही संभावित उत्तराधिकार चर्चा के संदर्भ में बेहद अहम माना जा रहा है। हम आपको बता दें कि जब मोहन भागवत से पूछा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश की बागडोर किसके हाथों में जाएगी, तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस विषय पर निर्णय पूरी तरह से भारतीय जनता पार्टी और मोदी लेंगे।
हम आपको बता दें कि भागवत का यह संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण जवाब इस दिशा में एक संकेत माना जा रहा है कि संघ, कम से कम सार्वजनिक रूप से उत्तराधिकार से जुड़े किसी भी विमर्श में खुद को शामिल करने के मूड में नहीं है। हम आपको बता दें कि पिछले कुछ समय से राजनीतिक गलियारों में मोदी के बाद संभावित नेतृत्व को लेकर अनेक अटकलें थीं, लेकिन भागवत के इस बयान ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि इस विषय पर RSS की कोई भूमिका या दबाव नहीं होगा।
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हम आपको यह भी बता दें कि मोहन भागवत ने अपने संबोधन में सामाजिक एकता और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए जाति और भाषा पर आधारित विभाजनों को खत्म करना अनिवार्य है। मोहन भागवत ने कहा, “हमें RSS को 1,00,000 से अधिक स्थानों तक ले जाना है। हमें जाति और भाषाई विभाजन हटाकर एकता पर आधारित समाज बनाना होगा।”
उल्लेखनीय है कि RSS प्रमुख का यह बयान ऐसे समय आया है जब देशभर में संघ की गतिविधियों का विस्तार और उसकी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लक्ष्य को लेकर संगठन खासा सक्रिय है। शताब्दी वर्ष समारोह भी इसी व्यापक अभियान का हिस्सा हैं।
देखा जाये तो मोदी के उत्तराधिकारी के बारे में मोहन भागवत का बयान राजनीतिक रूप से संयमित और रणनीतिक है। एक ओर उन्होंने उत्तराधिकार के प्रश्न से खुद को दूर रखकर यह संदेश दिया है कि भाजपा नेतृत्व अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र है। दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक एकता और ‘विश्वगुरु’ की अवधारणा को केंद्र में रखकर संघ के दीर्घकालिक एजेंडे को मजबूती से पेश किया। हालांकि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि उत्तराधिकार बहस यहीं समाप्त हो गई। दरअसल, राजनीति में संकेत कई बार वास्तविकता से ज्यादा प्रभावशाली होते हैं और भागवत का यह बयान भी उसी श्रेणी में आता है। परंतु इतना निश्चित है कि संघ खुद को औपचारिक रूप से इस बहस से दूर दिखाकर भाजपा के भीतर किसी भी संभावित शक्ति संतुलन को खुला छोड़ देना चाहता है। बहरहाल, यह दूरी चाहे वास्तविक हो या रणनीतिक, आने वाले समय की भारतीय राजनीति को दिलचस्प बनाए रखने वाली है।
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