हाथरस के बहाने कांग्रेस की सियासी जमीन तलाशने की कोशिश में प्रियंका और राहुल
हाथरस मामले में राहुल और प्रियंका की सक्रियता लोगों को भी राजनीति का एक हिस्सा लग रहा है। लेकिन सियासी जानकार इस बात को लेकर संशय में है कि कांग्रेस को शायद ही हाथरस को मुद्दा बनाने के बाद चुनाव में फायदा मिलेगा।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश के महासचिव प्रियंका गांधी हाथरस की घटना पर अत्यधिक चिंतित दिख रहे हैं। 2 दिन की तमाम उठापटक के बाद आखिरकार दोनों भाई-बहन को पीड़ित परिवार से मिलने दिया गया। लेकिन लोग इसे कांग्रेस की सियासी चाल समझ रहे है। कांग्रेस हाथरस के बहाने ही उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत करने की कोशिश में है। दरअसल, इस बात को बल इसलिए भी मिल रहा है क्योंकि हाथरस की जमीन 26 सालों से कांग्रेस के लिए बंजर है। हाथरस में अभी भी भाजपा का ही कब्जा है।
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हाथरस मामले में राहुल और प्रियंका की सक्रियता लोगों को भी राजनीति का एक हिस्सा लग रहा है। लेकिन सियासी जानकार इस बात को लेकर संशय में है कि कांग्रेस को शायद ही हाथरस को मुद्दा बनाने के बाद चुनाव में फायदा मिलेगा। 1974 के बाद से हाथरस में कांग्रेस का कोई भी विधायक नहीं जीत सका है। हाथरस मामले को लेकर शुरुआत से ही जमीन पर लड़ाई लड़ने वाले कांग्रेस नेता श्योराज जीवन हमेशा ही इलाके में सक्रिय रहे हैं लेकिन इसका फायदा उन्हें कभी नहीं मिला। वह कभी भी चुनाव नहीं जीत सके हैं। 1980 में हाथरस से जनता पार्टी के उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी जबकि 1985 में वहां से जनता दल सेकुलर का उम्मीदवार जीता था।
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1989 में भी यह सीट जनता दल के ही खाते में गई और वहां से उनका उम्मीदवार जीता भी जबकि भाजपा का कमल 1993 में पहली बार हाथरस में खिला। भाजपा के उम्मीदवार राजवीर सिंह पहलवान ने शानदार जीत दर्ज की थी। 1996 में बसपा उम्मीदवार रामवीर उपाध्याय ने यह सीट भाजपा से छीन ली। 2012 में भी इस सीट पर बसपा ने ही जीत दर्ज की थी। फिलहाल 2017 में इस सीट पर भाजपा के हरिशंकर माहौर ने जीत दर्ज की थी। भले ही कांग्रेस प्रदेश में यह माहौल बनाने की कोशिश कर रही हो कि वह हाथरस की बिटिया को इंसाफ दिलाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसके पीछे का मकसद सियासी जमीन तलाशना है। 26 साल के बंजर जमीन पर एक बार फिर हाथ को जिंदा करना फिलहाल प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के लिए बड़ी चुनौती है। इसके अलावा हाथरस घटना के बाद से मुस्लिम-दलित वोटों को लामबंद करने की भी कोशिश लगातार जारी है।
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