आंख बंद करके नियमों को लागू न करें, संघर्षों का भी मानवीय चेहरा होता है : सीजेआई

Chief Justice of India
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प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘इस प्रणाली में हर किसी की आवाज होती है, और वे इसका एक बड़ा हिस्सा बनते हैं।वास्तव में, हम एक ऐसे दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जहांकिसीव्यक्ति का लिंग, झुकाव, जन्मयापहचान न्याय पाने में बाधा नहीं पहुंचाएगी। माज के हाशिये के वर्गों का एक न्यायाधीश हाशिये केलोगों के मुद्दों को बेहतर ढंग से समझताहै।’’

चेन्नई| उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण ने शनिवार को यहां कहा कि न्यायाधीश आंख बंद करके नियमों को लागू नहीं कर सकते, क्योंकि संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है और कोई भी निर्णय देने से पहले, उनके सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर अपने फैसले के प्रभाव को तौलना होगा।

न्यायमूर्ति रमण ने मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘इन्सटैंट नूडल्स’ के इस दौर में लोगों को तुरंत इंसाफ की उम्मीद होती है, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि अगरहम तत्काल न्याय का प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय कोनुकसान होगा।’’

संकट के समय लोगों ने न्यायपालिका की ओर देखा और उनका दृढ़ विश्वास है कि उनके अधिकारों की रक्षा अदालतें करेंगी। उन्होंने कहा, ‘‘यह विचार करना जरूरी है कि न्यायपालिका के कामकाज में सुधार कैसे हो, आम आदमी तक कैसे पहुंचा जाए और कैसे उनकी न्याय की जरूरतें पूरी की जाएं।’’

अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली के मसले पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि एक आम नागरिक अदालतों की प्रथाओं, प्रक्रियाओं और सेजुड़ नहीं पाता है।

इसलिए, आम जनता को न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा बनाने के प्रयास होने चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘पक्षकारों को अपने मामले की प्रक्रिया और घटनाक्रमों को समझना चाहिए। यह एक शादी में मंत्रों का जाप करने जैसा नहीं होना चाहिए, जिसे हममें से ज्यादातर लोग नहीं समझते हैं।’’ उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने पिछले एक साल के कार्यकाल के दौरान वह देश की कानूनी व्यवस्था को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों को उजागर करते रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘‘आजकल न्यायपालिका सहित सभी संस्थानों को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा मुद्दा जनता की आंखों में निरंतर विश्वास सुनिश्चित करना है। न्यायपालिका को कानून का शासन बनाए रखने और कार्यपालिका और विधायी ज्यादतियों की जांच करने की अत्यधिक संवैधानिक जिम्मेदारी सौंपी गई है।’’

न्यायमूर्ति रमण ने कहा, ‘‘न्याय देना न केवल एक संवैधानिक, बल्कि सामाजिक कर्तव्य भी है। संघर्ष किसी भी समाज के लिए अपरिहार्य है, लेकिन संघर्ष का रचनात्मक समाधान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘रचनात्मक संघर्ष समाधान केवल एक तकनीकी कार्य नहीं है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में, न्यायाधीश नियमों, प्रक्रियाओं और विधियों को आँख बंद करके लागू नहीं कर सकते हैं। आखिरकार, संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है। हम न्याय प्रदान करने के अपने कर्तव्य के बारे में लगातार जागरूक हैं।’’ प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘कोई भी निर्णय देने से पहले, न्यायाधीशों को कई सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर उनके निर्णय के प्रभाव को तौलना होता है।’’ न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि उनका दृढ़ विश्वास है कि न्यायपालिका को कभी भी केवल कानून लागू करने वाले के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह सामाजिक एकीकरण का एक इंजन है।

न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि न्याय करना कोई आसान काम नहीं है और न्यायाधीशों को सामाजिक वास्तविकताओं से अवगत होना चाहिए। उन्होंने पांच दिवसीय टेस्ट मैचों के क्रिकेट के ट्वेंटी-20 तक पहुंचने का हवाला देते हुए कहा, ‘‘हमें बदलती सामाजिक जरूरतों और अपेक्षाओं को ध्यान से देखना होगा। दुनिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। हम जीवन के हर क्षेत्र में इस बदलाव को देख रहे हैं।’’

उन्होंने अन्य पहलुओं का भी उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘फिल्टर कॉफी से, हम ‘इंस्टेंट कॉफी’ की ओर बढ़ गए हैं। ‘इंस्टेंट नूडल्स’ के इस युग में, लोग तत्काल न्याय की उम्मीद करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि अगर हम तत्काल न्याय के लिए प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय को नुकसान होगा।’’ उन्होंने कहा कि राष्ट्र की सामाजिक और भौगोलिक विविधता को न्यायपालिका के सभी स्तरों पर प्रतिबिंबित करना चाहिए, क्योंकि व्यापक संभावित प्रतिनिधित्व के साथ, लोगों को लगता है कि यह उनकी अपनी न्यायपालिका है।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘इस प्रणाली में हर किसी की आवाज होती है, और वे इसका एक बड़ा हिस्सा बनते हैं। वास्तव में, हम एक ऐसे दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जहां किसी व्यक्ति का लिंग, झुकाव, जन्म या पहचान न्याय पाने में बाधा नहीं पहुंचाएगी। समाज के हाशिये के वर्गों का एक न्यायाधीश हाशिये के लोगों के मुद्दों को बेहतर ढंग से समझता है।’’

न्यायिक रिक्तियों को भरने और न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या बढ़ाने से संबंधित मुद्दे का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि प्रति न्यायाधीश मुकदमे का भार कम करना और जनसंख्या अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या में सुधार करना आवश्यक है।

न्यायमूर्ति रमण ने कहा, ‘‘आज तक, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के 1104 स्वीकृत पदों में से 388 रिक्तियां हैं। पहले दिन से, न्यायिक रिक्तियों को भरने का मेरा प्रयास रहा है।’’ उन्होंने कहा कि उनके पदभार ग्रहण करने के बाद, उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के लिए अब तक 180 सिफारिशें की गई हैं। इनमें से 126 नियुक्तियां की गईं और 54 प्रस्तावों को सरकार की मंजूरी का इंतजार है। सीजेआई के अनुसार, सरकार को विभिन्न उच्च न्यायालयों से लगभग 100 प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं, जिन्हें अभी उच्चतम न्यायालय को भेजा किया जाना है।

उन्होंने कहा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि उच्च न्यायालय शेष 212 रिक्तियों को भरने के लिए प्रस्ताव भेजने की प्रक्रिया में तेजी लाएंगे।’’ संविधान के अनुच्छेद 348 के तहत उच्च न्यायालयों में स्थानीय के इस्तेमाल की अनुमति देने की विभिन्न क्षेत्रों की मांगों पर उन्होंने कहा कि इस विषय पर बहुत बहस हुई है।

उन्होंने आगे कहा, ‘‘कुछ बाधाएं हैं जिनके कारण उच्च न्यायालयों के समक्ष कार्यवाही में स्थानीय भाषाएं नहीं अपनाई जा रही हैं। मुझे यकीन है, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नवाचार के साथ, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में विकास के साथ, स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल से जुड़े कुछ मुद्दे उच्च न्यायालयों में निकट भविष्य में हल हो सकते हैं।

डिस्क्लेमर: प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।


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