छोटे दलों को साधने में भाजपा की असफलता के चलते 1999 में गिरी थी वाजपेयी सरकार

Vajpayee
केंद्र में बनी भाजपा की पहली सरकार की कार्यप्रणाली और अन्नाद्रमुक की नेता जे जयललिता द्वारा वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद यह कैसे 13 दिनों में गिर गई थी,इसके बारे में पुस्तक में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई है।
नयी दिल्ली।  लोकसभा में 1999 में महज एक वोट से तत्कालीन वाजपेयी सरकार गिर जाने के बारे में एक नयी पुस्तक में दावा किया गया है कि भाजपा छोटी पार्टियों के साथ तालमेल बिठा पाने में नाकाम रही थी, जो इस घटनाक्रम के लिए मुख्य वजह थी। हालांकि भाजपा से हमदर्दी रखने वाले वाजपेयी सरकार गिरने के लिए तत्कालीन कांग्रेस सांसद गिरधर गमांग और नेशनल कांफ्रेंस के सैफुद्दीन सोज को मुख्य दोषी मानते हैं। ‘वाजपेयी: द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया’ शीर्षक से यह पुस्तक शक्ति सिन्हा ने लिखी है, जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कई वर्षों तक निजी सचिव रहे थे और उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में भी सेवा दी थी। केंद्र में बनी भाजपा की पहली सरकार की कार्यप्रणाली और अन्नाद्रमुक की नेता जे जयललिता द्वारा वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद यह कैसे 13 दिनों में गिर गई थी,इसके बारे में पुस्तक में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई है। 

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सिन्हा ने अपनी किताब में लिखा है कि वाजपेयी सरकार के पतन के लिए भले ही गमांग को दोषी ठहराया जाता है लेकिन कई ऐसे लोग थे जिन्होंने इसमें अपनी भूमिका निभाई थी। उन्होंने लिखा, ‘‘इसमें एक बड़ी भूमिका छोटे दलों को साधने में भाजपा की असफलता थी।’’ उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि अरूणाचल कांग्रेस के वांगचा राजकुमार ने लोकसभा में विश्वास मत से बहुत पहले ही वाजपेयी को आश्वासन दिया था कि उनकी क्षेत्रीय पार्टी में फूट के बावजूद सरकार को उनका समर्थन जारी रहेगा। उन्होंने पुस्तक में लिखा कि उस समय वाजपेयी सरकार को कोई खतरा नहीं था लेकिन दुर्भाग्य से जब विश्वासमत का समय आया तब किसी को राजकुमार से संपर्क साधना याद नहीं रहा। उन्होंने सरकार के खिलाफ मतदान किया। सिन्हा ने पुस्तक में कहा कि सोज से बेहतर तरीके से बातचीत की गई होती तो उसका सकारात्मक परिणाम आता। सोज उस वक्त नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य थे और उनकी पार्टी के दो सांसद थे। दूसरे उमर अब्दुल्ला थे। जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला जो उस वक्त नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया भी थे, ने अपने बेटे उमर अब्दुल्ला को आगे बढ़ाया और सोज को ‘‘बहुत तुच्छ तरीके से पार्टी में किनारे किया’’। पुस्तक के मुताबिक सोज ने आधिकारिक हज प्रतिनिधिमंडल के लिए कुछ नाम सुझाए थे लेकिन फारुक अब्दुल्ला ने उन नामों को हटा दिया था। 

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पुस्तक में आगे बताया गया कि जब छह दिसंबर 1998 को वाजपेयी ने श्रीनगर का दौरा किया तब उनकी मुलाकात स्थानीय सरकार के मंत्रियों से प्रस्तावित थी लेकिन थोड़ी देरी के कारण यह मुलाकात स्थगित हो गई थी। सिन्हा ने लिखा, ‘‘इसका खामियाजा वाजपेयी को भुगतना पड़ा। उमर अब्दुल्ला ने विश्वास मत के समर्थन में मतदान किया वहीं सोज ने उसके खिलाफ।’’ उन्होंने बताया कि पूर्व प्रधानमंत्री आई के गुजराल ने भी सरकार गिराने के लिए मतदान किया था। वह अकाली दल की सहायता के बगैर जनता दल के टिकट पर लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकते थे जबकि अकाली दल उस समय सरकार का हिस्सा था। सिन्हा ने पुस्तक में बताया कि जनता दल के नेता रामविलास पासवान उस वक्त नहीं चाहते थे कि उनकी पार्टी लालू यादव के साथ मतदान करे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने सरकार गिराने में भूमिका निभाई। लालू यादव की पार्टी उस समय बिहार में सत्ता में थी और जनता दल के नेता पासवान को मनाने में सफल रहें। हालांकि बाद में पासवान जनता दल से अलग हो गए और फिर भाजपा से हाथ मिलाकर वह केंद्र में मंत्री भी बनें।

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