Birthday Special: भारत के फील्ड मार्शल सैम मैनकशॉ ने पाकिस्तान को चटाई थी धूल, 7 गोलियां खाकर मौत को दिया था चकमा

साल 1971 में पाकिस्तान को करारी हार का स्वाद चखाने का पूरा श्रेय भारत के फील्ड मार्शल सैम मैनकशॉ को जाता है। पाकिस्तान की यह हार एक ऐसा मुद्दा है, जिसका जिक्र होते ही पाकिस्तान के सीने पर सांप लोटने लगता है। भारतीय सेना के सर्वोच्च अधिकारी सैम मानेकशॉ का आज जन्मदिन है।
देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मैनकशॉ का आज ही के दिन यानि की 3 अप्रैल को जन्म हुआ था। वह भारतीय सेना के अध्यक्ष थे और उन्हीं के नेतृत्व में भारत ने साल 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय हासिल की थी। जिसके बाद विजय के परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ था। सैम मैनकशॉ अपने अदम्य साहस और युद्धकौशल के लिए मशहूर थे। भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्णिम दस्तखत सैम मैनकशॉ सबसे ज्यादा फेमस और कुशल सैनिक कमांडर थे। पद्म भूषण, पद्म विभूषण से सम्मानित सैम मैनकशॉ भारत के पहले 'फ़ील्ड मार्शल' थे। आइए जानते हैं उनके जन्मदिन के मौके पर उनकी जिंदगी से जुड़ी कुछ खास बातें...
जन्म और शिक्षा
अमृतसर में एक पारसी परिवार में 3 अप्रैल 1914 को सैम मैनकशॉ का जन्म हुआ था। सैम के जन्म के बाद उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया था। जिसके बाद सैम मैनकशॉ ने अपनी शुरूआती शिक्षा अमृतसर से की और बाद में उन्होंने नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में एडमिशन ले लिया। मैनकशॉ के पिता डॉक्टर थे और वह खुद भी डॉक्टर बनना चाहते थे। इसलिए मैनकशॉ डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे। लेकिन उनके पिता ने उन्हें इंग्लैंड भेजने से इंकार कर दिया। इसी कारण वह अपने पिता से नाराज हो गए। फिर मैनकशॉ ने विद्रोही तेवर अपनाते हुए आर्मी भर्ती की परीक्षा दी और वह सेना में शामिल हो गए।
इंडियन मिलिट्री का सफर
इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच के लिए चुने गए 40 छात्रों में मैनकशॉ का नाम भी शामिल था। इसके बाद वह कमीशन प्राप्त कर भारतीय सेना में शामिल हुए। साल 1969 में मैनकशॉ को सेनाध्यक्ष बनाया गया। साल 1971 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि भारत अप्रैल महीने में ही पूर्वी पाकिस्तान पर हमला कर दें। लेकिन उस दौरान मैनकशॉ ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था। उन्होंने पीएम इंदिरा गांधी को समझाया कि इस दौरान हमला करने से युद्ध हारने का खतरा बनेगा। इसके बाद उन्होंने पीएम से युद्ध की तैयारी का समय लिया और सेना को तैयार करना शुरू कर दिया।
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अंत में अप्रैल की जगह यह जंग दिसंबर में हुई और मैनकशॉ की सही सूझबूझ के कारण भारत ने विजय प्राप्त की। जंग खत्म होने के बाद मैनकशॉ ने पाकिस्तान के 90 हजार सैनिकों को बंदी बना लिया था। 15 जनवरी, 1973 में सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त हुए। साल 1973 में ही उन्हें फ़ील्ड मार्शल का सम्मान प्रदान किया गया। इसके साथ ही वह अपनी शरारतों और मजाक के लिए भी जाने जाते थे। भारत के वह एक ऐसे आर्मी चीफ थे, जो तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की बात को भी काटने से नहीं डरते थे। यहां तक की उन्होंने एक बार पीएम इंदिरा गांधी को स्वीटी तक कह दिया करते थे।
सेकेंड वर्ल्ड वॉर
17वीं इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम मैनकशॉ ने द्वितीय विश्वयुद्ध में पहली बार जंग का स्वाद चखा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश गुलाम था। इस दौरान भारतीय जवानों को भी अंग्रेजी सेना के लिए लड़ना पड़ता था। तब मैनकशॉ भी बर्मा में जापानी आर्मी के खिलाफ युद्ध के मैदान में थे। जापानियों से लोहा लेते हुए सेतांग नदी के तट पर सैम गम्भीर रुप से घायल हो गए थे। मैनकशॉ के शरीर में 7 गोलियां लगी थीं और उनके बचने की उम्मीद लगभग कम ही थी। बताया जाता है कि ऑपरेशन के दौरान जब एक सर्जन ने मैनकशॉ से पूछा 'What Happen to you', उस दौरान भी मैनकशॉ ने हंसते हुए जवाब दिया 'I was kicked by a bloody mule!'
मैनकशॉ की दिलेरी से प्रभावित होकर बर्मा मोर्चे के कमांडिंग ऑफिसर मेजर जनरल डी.टी. कॉवन ने अस्पताल के बिस्तर पर ही स्वयं का मिलिट्री क्रास उन्हें दे दिया था। कमांडिंग ऑफिसर मेजर जनरल डी.टी. ने कहा कि मरने के बाद पदक का कोई मूल्य नहीं होता है। लेकिन इस दौरान मैनकशॉ ने मौत को चकमा दे दिया और एक बार फिर वह जापानियों से दो-दो हाथ करने बर्मा के जंगलों में जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर पहुंच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद मैनकशॉ को स्टॉफ आफिसर बनाया गय़ा। फिर उन्हें इंडो-चायना जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए भेजा गया। वहां पर सैम ने करीब 10,000 युद्धबंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया।
वहीं देश के विभाजन के बाद 1947-48 में मैनकशॉ ने कश्मीर की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगातार सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए सैम मैनकशॉ को नागालैंड समस्या को सुलझाने और उनके कभी न भूल सकने वाले योगदान के लिए साल 1968 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। फ़ील्ड मार्शल सैम मैनकशॉ ने भारत के लिए कई अहम जंगों में निर्णायक भूमिका निभाई थी। जिसमें साल 1971 में मिली पाकिस्तान के खिलाफ जीत का सेहरा सैम मैनकशॉ के सिर ही बांधा जाता है।
सम्मान और पुरस्कार
साल 1968 में नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए सैम मैनेकशॉ को पद्म भूषण से नवाजा गया।
साल 1972 में देशप्रेम व देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
1 जनवरी 1973 को फ़ील्ड मार्शल के मानद पद से अलंकृत किया गया।
निधन
सैम मैनकशॉ को वृद्धावस्था में फेफड़े संबंधी बीमारी हो गई थी। जिसके कारण वह कोमा में चले गए थे। तमिलनाडु के वेलिंगटन में 94 साल की उम्र में सैन मानेकशॉ की सैन्य अस्पताल के आईसीयू में मौत हो गई। रक्षा मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान के मुताबिक सैम मैनकशॉ ने 27 जून 2008 को अंतिम सांस ली।
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