दादा साहेब फाल्के पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार थे ‘मजरूह सुल्तानपुरी’

Majrooh Sultanpuri

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। उनका नाम ‘असरार उल हसन खान’ था, शायर, गीतकार के रूप में वे ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से जाने गए। मजरूह के पिता पुलिस उप-निरीक्षक थे।

अपनी कलम की स्याही से गीत, गज़ल और शेर-ओ-शायरी की दुनिया में राज करने वाले मजरूह सुल्तानपुरी के गीत आज भी फिज़ा में बिखरते हैं, गाए-गुनगुनाए जाते हैं। आजादी से दो साल पहले उन्होंने हिन्दी सिनेमा के लिए गीत लिखना शुरू किया था और यह सिलसिला ऐसा चला कि चार दशकों तक बिना रूके चलता रहा, चलता रहा। मजरूह सुल्तानपुरी ने हिंदी सिनेमा में अपने लंबे सफर के दौरान तीन सौ से ज्यादा फिल्मों के लिए चार हजार से ज्यादा गाने लिखे जो अपने आप में एक इतिहास है। उन्होंने नौशाद से लेकर जतिन-ललित के समय तक गीत लिखे। 

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। उनका नाम ‘असरार उल हसन खान’ था, शायर, गीतकार के रूप में वे ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से जाने गए। मजरूह के पिता पुलिस उप-निरीक्षक थे। बचपन में पढ़ाई के लिए उन्हें मदरसे भेजा गया जहां उन्होंने अरबी और फारसी सीखी इसी दौरान उन्हें फुटबॉल खेलने का शौक लग गया, मदरसे में फुटबॉल खेलने की वजह से उनके खिलाफ फतवा निकाल दिया गया। बाद में मजरूह के पिता ने उन्हें लखनऊ से हकीमी की तालीम दिलाई गई, मजरूह ने कुछ समय तो हकीम के रूप में काम किया किन्तु किसी वजह से उनका मन वहां भी नहीं लगा और वे शेरो-शायरी की ओर अग्रसर हो गए।

मजरूह की शेर-ओ-शायरी में वह जादू था कि मुशायरों में जब वो शेर सुनाते तो उन्हें सुनने वाला हर शख्स उनका दीवाना हो जाता था। मुशायरों के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई। मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी सुनकर जिगर मुरादाबादी भी उनके कायल हो गए। 1945 में मजरूह सुल्तानपुरी का एक मुशायरे में मुंबई जाना हुआ। इस मुशायरे में हिन्दी सिनेमा के मशहूर निर्माता अब्दुर राशिद कारदार भी आए हुए थे, जो उस समय ‘शाहजहां’ फिल्म बना रहे थे। मजरूह की शेरो-शायरी सुनकर अब्दुर राशिद कारदार भी काफी प्रभावित हुए। फिल्म शाहजहां के लिए कारदार जिगर मुरादाबादी से गीत लिखवाना चाहते थे किन्तु जिगर मुरादाबादी ने इसके लिए उन्हें मजरूह सुल्तानपुरी का नाम सजेस्ट किया। कारदार ने मजरूह सुल्तानपुरी को जब फिल्म के लिए गीत लिखने को कहा तो पहले तो वे तैयार नहीं हुए क्योंकि उनका मन तो शेरो-शायरी में ही डूबा हुआ था पर, जब उनके दोस्त उस्ताद जिगर मुरादाबादी ने उन्हें मनाया तो मजरूह सुल्तानपुरी मना नहीं कर पाए। 

कारदार मजरूह को मशहूर संगीतकार नौशाद के पास ले गए, नौशाद ने मजरूह को एक धुन सुनाई और कहा इसकी तर्ज पर कुछ लिखो। मजरूह ने लिखा-‘जब उसने गेसू बिखराए, बादल आए झूम के’। नौशाद को गीत के बोल इतने पसंद आए कि उन्होंने फिल्म ‘शाहजहा’ के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को गीतकार रख लिया गया। इस फिल्म में मजरूह के लिखे गीत ‘हम जी के क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया’ को प्रसिद्ध गायक-अभिनेता केएल सहगल ने गाया जो दशकों तक लोगों की जुबां से नहीं उतरा। कहा जाता है कि सहगल को भी यह गाना इतना पसंद आया कि उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि उनकी अंतिम यात्रा में यही गाना बजाया जाए और ऐसा हुआ भी। 

फिल्म शाहजहां के गीतों से मजरूह सुल्तानपुरी ने जो वाहवाही हासिल की उसके बाद तो फिल्मों के लिए अपने लिखे गीतों के जरिए वे लगातार ऊंचाइयां ही हासिल करते गए। उन्होंने ताउम्र एक से बढ़कर एक हिट गीत दिए। वे गाने लिखते रहे और उनकी फिल्में लगातार हिट होती रहीं। 1945 से शुरू हुआ मजरूह का यह फिल्मी सफर 2000 तक जारी रहा। 1947 में एस.फजील की फिल्म ‘मेहंदी’ के गीत हों,  1949 में एस. महबूब खान की फिल्म ‘अंदाज’ के गीत या 1950 में बनी शाहिद लतीफ की फिल्म ‘आरजू’ के गीत। सभी फिल्मों में मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों ने खूब वाहवाही बटोरी। फिल्म ‘आरजू’ के गीत ‘ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहां कोई न हो’, ‘जाना न दिल से दूर’, ‘आंखों से दूर जाकर’, ‘कहां तक हम उठाएं गम’ और ‘जाओ सिधारो हे राधे के श्याम’ उस समय हर किसी के होठों पर रहते थे।

मजरूह सुल्तानपुरी एक सीधे-सरल स्पष्ट इंसान थे, उनके मन में जो होता था बोल देते थे। मजरूह के साथ 1949 का एक वाकया भी जुड़ा है जब उन्हें अपनी लिखी नज्म के खिलाफ जेल की सजा भुगतनी पड़ी, उनके ऊपर सरकार विरोधी कविता लिखने का आरोप था। हालांकि मजरूह को कहा गया कि वे इसके लिए माफी मांग लें तो रिहा कर दिए जाएंगे, किन्तु उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया और जेल में रहना मंजूर किया जिसके लिए उन्हें दो साल की सजा हुई। जेल के इन दो सालों में मजरूह का परिवार आर्थिक तंगी गुजरने लगा था। तब उनकी मदद के लिए राजकपूर ने हाथ बढ़ाया किन्तु मजरूह मदद के लिए तैयार नहीं हुए तब राजकपूर ने जेल में रहते हुए ही उनसे अपनी आगामी फिल्म के लिए गीत लिखाया और पारिश्रमिक उनके परिवार वालों को पहुंचाया गया। 1950 में मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत ‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’ राज कपूर ने 1975 में अपनी फिल्म ‘धर्म- कर्म’ में इस्तेमाल किया था। 

1951-52 में मजरूह जेल से बाहर आए और फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। ‘शामे गम की कसम आज गमगीन हैं हम’, ‘रूप का तुम हो खजाना- तुम हो मेरी जाने-जाना- लेकिन पहले दे दो मेंरा पांच रूपैया बारह आना’ जैसे सुंदर गीतों के रचियता मजरूह सुल्तानपुरी ही थे। गुरुदत्त ने जब खुद का प्रोडक्शन प्रोडक्शन हाउस स्थापित किया तो मजरूह और ओ पी नैय्यर भी उनके साथ आ गए। 1954 में गुरुदत्त की फिल्म आर-पार एक बड़ी म्यूजिकल हिट फिल्म साबित हुई। मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा इस फिल्म का गाना ‘कभी आर कभी पर लागा तीरे नजर’ आज भी हिट है। इस फिल्म के गीत ‘सुन सुन जलिमा प्यार हमको तुमसे हो गया’ गाने को मजरूह ने पहले ‘प्यार मुझको तुझसे हो गया’ के रूप में लिखा लेकिन गुरुदत्त को ये पसंद नहीं आया। तब गुरुदत्त ने कहा था, मजरूह फिल्म देखने वाले गाने का मजा लेते हैं उनको ग्रामर से कुछ लेना देना नही। मजरूह ने गुरुदत्त की इस सलाह को गंभीरता से लिया और उनका शुक्रिया भी अदा किया।

मजरूह सुल्तानपुरी ने भारतीय सिनेमा में उस समय के लगभग सभी बड़े नामों महबूब खान, गुरुदत्त, बिमल रॉय, देव आनंद, विजय आनंद, मदन मोहन,एस डी बर्मन और रोशन के साथ काम किया। राहुल देव वर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी हिंदी सिनेमा की सबसे सफल जोड़ियों में से एक रही। मजरूह के अधिकतर गीत आरडी बर्मन की संगीत से सजे। आर डी बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी ने साथ मिलकर करीब 75 फिल्मों में काम किया। इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा को कितना प्यारा तेरा वादा, चढ़ती जवानी तेरी चाल मस्तानी, मोनिका ओ माई डार्लिंग, रात कली एक ख्वाब में आई और चुरा लिया है जैसे सदाबहार नगमे दिए। 

संगीतकार नौशाद और फिल्म निर्देशक नासिर हुसैन के साथ भी मजरूह की जोड़ी काफी हिट रही। नासिर हुसैन की फिल्मों ‘तुम सा नहीं देखा’, ‘अकेले हम अकेले तुम’, ‘जमाने को दिखाना है’, ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘जो जीता वही सिकंदर’ और ‘कयामत से कयामत तक’ के लिए उन्होंने गीत लिखे। 

मशहूर संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की पहली फिल्म ‘दोस्ती’ के सुपर हिट गीतों के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ही थे, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी को हिट करने में उनका काफी हाथ रहा। इसके अलावा राजेश रोशन की फिल्म कुवारा बाप से लेकर आनंद मिलिंद की कयामत से कयामत फिल्मों के गीत भी मजरूह सुल्तानपुरी की कलम से ही निकले। 

मजरूह सुल्तानपुरी के मशहूर गीतों की लिस्ट बहुत लंबी है। हिन्दी सिनेमा के लगभग सभी प्रसिद्ध संगीतकार और गायकों के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने गीत लिखे। मजरूह सुल्तानपुरी ने हर रंग के गीत लिखे फिर चाहे वो गमगीन हों या तड़क भड़क वाले, उन्होंने ‘इना, मीना, डीका’ और ‘मोनिका ओ माई डार्लिंग’ जैसे जॉली गीत लिखे तो ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाजार की तरह’और ‘रूठ के हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम, ये न सोचा था जैसे गमगीन गीतों की भी रचना की। उनके लिखे गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं। ‘छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा’, ‘छलकाए जाम आइए आपकी आंखो के नाम होठों के नाम’, ‘चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है- ये मुलाकात बड़ी देर के बाद आई है’, ‘लेके पहला-पहला प्यार भरके आंखों में खुमार’, ‘पहले सौ बार इधर और उधर देखा है’, ‘ऐसे न मुझे तुम देखो,सीने से लगा लूंगा’, ‘चलो सजना जहां तक घटा चले’, ‘दिल का भंवर करे पुकार’, ‘होठों पे ऐसी बात में दबा के चली आई’, तेरे मेरे मिलन की ये रैना, हमें तुमसे प्यार कितना, गुम है किसी के प्यार में, एक लड़की भीगी भागी सी, ओ मेरे दिल के चैन, चुरा लिया है तुमने जो दिल कोश्, इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा, बाहों में चले आओ-हमसे सनम क्या पर्दा इत्यादि गीत उनके सदाबहार नगमों में शामिल हैं। 

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‘मजरूह सुल्तानपुरी’ पहले ऐसे गीतकार थे, जिन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से नवाजा गया, यह अवार्ड उन्हें वर्ष 1993 में दिया गया। फिल्म ‘दोस्ती’ के लिए उनके लिखे गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे’ के लिए 1965 में उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला वहीं उनकी मशहूर शेर-ओ-शायरी के लिए उन्हें 1980 में गालिब और इकबाल जैसे बड़े सम्मानों से सम्मानित किया गया। 

हिंदी सिनेमा में लगभग चार दशकों तक अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज करने वाले मजरूह सुल्तानपुरी लंबे समय तक फेफड़ों की बीमारी से परेशान रहे और 24 मई 2000 को 80 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। मजरूह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु अपने बेहतरीन गीतों और शेर-ओ-शायरियों के जरिए वे सदा हमारे बीच मौजूद रहेंगे। 

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मजरूह सुल्तानपुरी के लिए मशहूर शायर राहत इंदौरी ने कहा था कि एक समय ऐसा था जब शायरी दरबारों और कोठों की तंग गलियों में सिमटी हुई थी, मजरूह सुल्तानपुरी ने शायरी को न केवल आजाद किया बल्कि उसे एक नया आयाम भी दिया।

गीतकार जगन्नाथ आज़ाद के शब्दों में मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी विचारों और भावनाओं का सामंजस्य है जिसमें जिन्दगी के कई रंग झलकते हैं। 

मजरूह सुल्तानपुरी ने सिनेमा के लिए भले ही हजारों गीत लिखे किन्तु उनका मन तो अन्त तक शेर-ओ-शायरी में ही बसता था। 24 मई मजरूह सुल्तानपुरी की पुण्यतिथि पर आइए नजर डालते हैं उनके लिखे कुछ चुनिंदा शेरों पर- 

मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर

लोग आते गए और कारवां बनता गया।

रोक सकता हमें जिंदान-ए-बला क्या ‘मजरूह’ 

हम तो आवाज हैं दीवारों से छन जाते हैं।

 

देख जिन्दां’ के परे जोशे जुनूं, जोशे बहार

रक्स’ करना है तो फिर पांव की जंजीर ना देख।

 

मंजिल मिल ही जायेगी एक दिन,

भटकते-भटकते ही सही।

गुमराह तो वो है,

जो घर से निकले ही नहीं।

 

यूं तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फा होते हैं 

मिलने वाले कहीं उल्फत में जुदा होते हैं।

 

श्मजरूहश् काफिले की मिरे दास्ताँ ये है 

रहबर ने मिल के लूट लिया राहजन के साथ।

 

मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है 

मजहब तो बस मजहब-ए-दिल है बाकी सब गुमराही है।

- अमृता गोस्वामी

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