इसलिए कांग्रेस के चाणक्य को पटखनी देने पर आमादा है भाजपा

BJP wants to defeat Ahmed Patel
आशीष वशिष्ठ । Aug 8 2017 2:42PM

माना यही जा रहा है कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी को जिस तरह केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकारों ने लगातार निशाना बनाया (और पीड़ित अमित शाह भी कम नहीं रहे), उसी का हिसाब अहमद पटेल से चुकता किया जा रहा है।

राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद के घर व ठिकानों पर पड़े छापों ने सुर्खियां बटोरने के साथ देश का सियासी तापमान बढ़ाने का काम किया। छापों के बाद लालू प्रसाद ने गर्म पानी पी−पीकर सरकार को कोसा और मीडिया के सामने अपनी व परिवार की बेगुनाही की घिसी−पिटी पटकथा दोहराई। लालू और उनके परिवारजनों ने मोदी सरकार पर जांच एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल के आरोप लगाए। लालू प्रसाद यादव के बाद पिछले दिनों कर्नाटक के रईस मंत्री के फार्म हाउस पर छापों से एक बार फिर छापों की सियासत गरमाई हुई है। कांग्रेसी नेता के फार्म हाउस पर हुई छापेमारी की गूंज संसद में भी सुनाई दी। क्या असल में यह छापे सियासी हैं। क्या सरकार अपने विरोधियों का दबाने और कुचलने के लिए जांच एजेंसियों का दुरूपयोग कर रही है। क्या इन छापों का राज्यसभा के चुनाव से कोई संबंध है। क्या सरकार विरोधियों को मुंह बंद रखने का मैसेज देने की कोशिश कर रही है। सवाल कई सारे। सरकार और विपक्ष के अपने−अपने तर्क भी हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि छापे की राजनीति और जांच एजेंसियों का अपने हित में बेजा इस्तेमाल का पुराना और काला इतिहास है। पिछले दिनों कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डी. शिवकुमार के रिजॉर्ट पर मारा गया छापा वैसा ही माहौल बनाने की मंशा से प्रेरित नहीं है?

कर्नाटक के जिस धनाढ्य मंत्री के फार्म हाऊस पर गुजरात के कांग्रेसी विधायकों को ठहराया गया है उसके 39 ठिकानों पर पिछले दिनों आयकर छापों ने कर्नाटक से लेकर संसद तक को हिलाकर रख दिया। संसद में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया है कि यह छापेमारी शिवकुमार के दिल्ली आवास से बरामद पांच करोड़ रुपए की नकदी के सिलसिले में 35 अन्य ठिकानों पर की गयी आयकर छापेमारी का ही हिस्सा है। एक अन्य केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार ने भी कहा है कि आयकर विभाग अपना काम कर रहा है। इसके बावजूद इसे राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में ही देखा जा रहा है तो इसलिए कानून अपना काम कर रहा है या करेगा−जैसे राजनीतिक सत्ता के रस्मी जवाब अपनी विश्वसनीयता खुद उसके आचरण के चलते खो बैठे हैं।

कांग्रेस का ये आरोप सतही तौर पर पूरी तरह सही है कि केन्द्र सरकार ने उक्त मंत्री को डराने के लिये ये कदम उठाया। वहीं आयकर महकमे ने सफाई दी कि पूरी कार्रवाई सामान्य प्रक्रिया के तहत की गई जिसका फैसला पहले ही लिया जा चुका था। यही नहीं तो फार्म हाऊस में मौजूद कांग्रेस के विधायकों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कोई संपर्क भी नहीं किया गया। इस सबसे हटकर देखा जाए तो छापे में मंत्री जी के विभिन्न ठिकानों से 10 करोड़ रुपये नगद पाया जाना आयकर छापे को सार्थक सिद्ध करने हेतु पर्याप्त है। 

ऐसे में सीधा और गंभीर सवाल यह है कि क्या आयकर छापा और राज्यसभा चुनाव का कोई सीधा संबंध है। ऐसे छापों से चुनाव जीते या हारे नहीं जा सकते। आयकर, सीबीआई और ईडी सरीखी सरकारी एजेंसियों के अपने विशेषाधिकार हैं, लेकिन अब वे मोदी सरकार में सरकारी तोता नहीं रही हैं, ऐसा भी माना नहीं जा सकता। अपने वर्चस्व के दौर में कांग्रेस ने इन एजेंसियों का खूब इस्तेमाल किया था। अब वही काम भाजपा कर रही है। ज्यादा−कम, प्रत्यक्ष−परोक्ष का अंतर हो सकता है। यह संयोग भी हो सकता है कि कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डीके शिव कुमार के ठिकानों और प्रतिष्ठानों पर आयकर विभाग की छापामारी की गई। छापे केंद्रीय सुरक्षा सीआरपीएफ की मौजूदगी में मारे गए। लेकिन राजनीतिक संयोग यह है कि गुजरात के 44 कांग्रेस विधायकों को मंत्री जी के रिजॉर्ट 'ईगलटन गोल्फ' में ही रखा गया है। 

कांग्रेस ने गुजरात के विधायकों को खरीद−फरोख्त से बचाने के लिए इस रिजॉर्ट में लगभग बंधक बनाकर रखा था। बहरहाल छापे में मंत्री के घर से 9.5 करोड़ रुपए और दिल्ली आवास से पांच करोड़ रुपए नकदी बरामद हुए। वैसे डीके शिवकुमार की गिनती देश के सबसे अमीर मंत्रियों में होती है। एडीआर की रपट के मुताबिक उनकी घोषित संपत्ति 251 करोड़ रुपए की है। लिहाजा उनके घरों से चंद करोड़ रुपए की नकद बरामदगी कोई हैरानी पैदा नहीं करती, लेकिन यह आयकर का संवैधानिक जनादेश है कि वह जांच करे कि यह नकदी बेहिसाबी, कालाधन है या कुछ और। सरकार ने नोटबंदी के दौरान काला धन वालों की सूचियां तैयार की थीं, उनमें मंत्री शिव कुमार का भी नाम बताया जाता है कि उन्होंने जवाहरात और जमीनें खरीदीं। बहरहाल कांग्रेस कुछ भी कहे, लेकिन इन छापों में भी सियासत निहित है। विधायकों को बंधक बनाने और छापों की राजनीति पुरानी है। जिस प्रकार की जानकारी मिली है उसके अनुसार कर्नाटक सरकार के ऊर्जा मंत्री डीके शिव कुमार का कारोबार काफी लंबा चौड़ा है जिसके तार सिंगापुर सहित अन्य देशों से भी जुड़े हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इतने व्यापक पैमाने पर किसी बड़े व्यक्ति पर आयकर छापा दो−चार दिन की तैयारी पर नहीं मारा जा सकता। हो सकता है विभाग मंत्री जी को घेरने की बाट जोह रहा हो और इसी दौरान वे भाजपा के लिये बड़े खलनायक बन गए। इन छापों के पीछे राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह इंकार तो नहीं किया जा सकता लेकिन यदि शिव कुमार के यहां मिली 10 करोड़ नगदी का वे हिसाब नहीं दे सके तो उनके अन्य निवेशों की तो छोड़ दें, यह मोटी रकम ही उनके गले में फंदा डालने के लिये पर्याप्त है क्योंकि आमतौर पर इतनी राशि किसी भी कारोबारी व्यक्ति या प्रतिष्ठान में नगद नहीं रखी जाती। 

जिन 44 विधायकों को सेंधमारी से बचाये रखने के लिए कांग्रेस ने अपने शासन वाले कर्नाटक भेजा है, उनमें से भी कब कितनों का हृदय परिवर्तन हो जाये, कहा नहीं जा सकता। क्या निश्चय ही सत्ता के दुरुपयोग और राजनीतिक प्रतिशोध के लिए सिर्फ भाजपा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सबसे ज्यादा समय तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस ही राजनीति और शासन व्यवस्था की इन बुराइयों की जनक भी है और पोषक भी। कांग्रेस की उन कारगुजारियों पर कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। तब शायद कांग्रेस को अभिमान हो गया था कि वह तो बनी ही देश पर शासन करने के लिए है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का काला अध्याय माने जाने वाले आपातकाल के दौरान तो इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा का नारा भी दे ही दिया गया था, लेकिन सवाल गलतियों को सुधारने और उनसे जरूरी सबक सीखने का है। क्या कांग्रेस द्वारा सत्ता अहमन्यता में की गयी गलतियों से उसके विरोधियों ने कोई सबक सीखा है? पूर्ववर्तियों द्वारा अतीत में की गयी गलतियों के उदाहरण देकर वर्तमान की गलतियों को जायज तो नहीं ठहराया जा सकता।

छापे मारी को लेकर आज कांग्रेस जो छाती पीट रही है, असल में इसी कांग्रेस ने अपने राजनीतिक विरोधियों को कुचलने के लिये अनैतिक आचरण को बरसों बरस पाला−पोसा है। 80 के दशक में कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार और 90 के दशक में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रच कर जो संवैधानिक और लोकतांत्रिक अपराध किया था, क्या वही भाजपा ने अरुणाचल और उत्तराखंड में नहीं किया? हरियाणा में भजन लाल ने सरकार समेत पाला बदल कर जनता पार्टी के बजाय कांग्रेस का साईनबोर्ड लगा लिया था तो अब बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदल को कैसे अलग ठहराया जा सकता है? दरअसल दलबदल और पाला बदल की इस राजनीति से उठा एक बेहद स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित है कि राजनीति का आधार दल और व्यक्ति विशेष है या फिर विचारधारा? चुनावी हवा का रुख भांप कर दलबदल की प्रवृत्ति लगातार मजबूत हो रही है। विधायक−सांसद ही नहीं, मुख्यमंत्री तक रह चुके राजनेता इतनी सहजता से दल बदल लेते हैं।

जहां तक सवाल गुजरात में राज्यसभा चुनाव का है। वहां बीजेपी अहमद पटेल को एक नेता के तौर पर हराना नहीं चाहती, बल्कि वह इस बार कांग्रेस के चाणक्य को पटखनी देने पर आमादा है। दरअसल अहमद पटेल महज राज्यसभा सदस्य या उम्मीदवार नहीं हैं, दशकों से वह कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव के रूप में पार्टी आलाकमान के मुख्य प्रबंधक−रणनीतिकार भी बने हुए हैं। राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू हुआ अहमद पटेल का दबदबा सोनिया गांधी के कार्यकाल में भी बरकरार है। सप्रमाण तो ऐसे दावे नहीं किये जा सकते, लेकिन माना यही जा रहा है कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी को जिस तरह केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकारों ने लगातार निशाना बनाया (और पीड़ित अमित शाह भी कम नहीं रहे), उसी का हिसाब अहमद पटेल से चुकता किया जा रहा है।

इन छापों को लेकर कांग्रेस ने आक्रामक रूख अपनाया है। कांग्रेस का आरोप है कि उसके विधायकों को डरा−धमका कर तोड़ने की कोशिश की जा रही है। इस संदर्भ में संसद या चुनाव आयोग क्या कर सकते हैं? लिहाजा राज्यसभा का यह चुनाव उपराष्ट्रपति के चुनाव से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है। राज्यसभा चुनाव में नोटा की व्यवस्था से भी कांग्रेस भयभीत है। लिहाजा उसने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी कि राज्यसभा चुनाव में नोटा की व्यवस्था लागू न की जाए, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट से भी झटका लगा है। अब राज्यसभा चुनाव के लिए वोटिंग नोटा के विकल्प के साथ ही होगी। ऐसे में कांग्रेस और अहमद पटेल का दबाव में होना स्वाभाविक है। बिहार में तेजस्वी यादव सहित लालू के अन्य परिजनों पर आयकर विभाग की घेराबंदी के बाद लगातार ये दूसरा प्रकरण है जिसमें आयकर विभाग के राजनीतिक उपयोग का आरोप लग रहा है। सच्चाई का खुलासा होने में तो समय लगेगा परन्तु कुछ हद तक दोनों ही पक्ष अपनी−अपनी जगह सही लगते हैं। अगर सरकार राजनीति और किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर सुनियोजित तरीके से अपने विरोधियों का मुंह बंद कराने, धमकाने और डराने में लगी है तो इस प्रवृत्ति पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। 

- आशीष वशिष्ठ

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