उन्नाव और कठुआ जैसी घटनाएं बार-बार राष्ट्रीय शर्म का कारण बनती हैं

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ललित गर्ग । Aug 3 2019 11:18AM

बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म के विरुद्ध अनेक सख्त कानून हैं, पर उनका पालन नहीं होता, इसलिए उन्नाव और कठुआ जैसी त्रासद घटनाएं बार-बार राष्ट्रीय शर्म का कारण बनती हैं, इन घटनाओं में कानून नहीं, बल्कि व्यवस्था विफल हुई है।

उन्नाव और कठुआ रेप मामलों में देशव्यापी राजनीतिक एवं जन-असंतोष को भांप कर सरकार ने 12 साल तक की बच्चियों से दुष्कर्म के दोषियों को फांसी की सजा के लिए अध्यादेश जारी कर दिया। प्रश्न है कि क्या मौत की सजा का प्रावधान करने मात्र से इन दुष्कर्मों एवं नारी अत्याचारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है ? कुछ महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट में पॉक्सो मामलों में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा था कि मौत की सजा से अपराधों का समाधान नहीं हो सकता है। कानूनों को कठोर करने का लाभ तभी है जब उन पर समय पर अमल किया जाए। अन्यथा कोरे कानून बनाने का क्या लाभ है ?

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देश में जितने वास्तविक बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म के मामले दर्ज नहीं होते, उससे अधिक फर्जी मामलें दर्ज हो रहे हैं और इन सख्त कानूनों की आड़ में लोग एक-दूसरे से बदला ले रहे हैं या अनुचित धन कमा रहे हैं और सामाजिक सोच को दूषित कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में दहेज उत्पीड़न तथा एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग से बेजा गिरफ्तारियों को रोकने के लिए अनेक दिशा-निर्देश जारी किये, जिन पर अब कानूनी विवाद है। बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म के विरुद्ध अनेक सख्त कानून हैं, पर उनका पालन नहीं होता, इसलिए उन्नाव और कठुआ जैसी त्रासद घटनाएं बार-बार राष्ट्रीय शर्म का कारण बनती हैं, इन घटनाओं में कानून नहीं, बल्कि व्यवस्था विफल हुई है।

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यह कटु सच्चाई है कि इंसाफ में देरी नाइंसाफी के बराबर है। बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों के मुकदमों में सुनवाई और फैसले में देरी से न केवल अपराध करने वालों के हौसले बुलन्द हो रहे हैं बल्कि इससे बच्चे की मनःस्थिति भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। बच्चों की सुरक्षा के लिए तमाम नियम कायदे बनाए गए हैं, विशेष पॉक्सो कानून है, जिसे हाल ही में और मजबूत किया गया है। इसके बावजूद आज भी बच्चे अगर खतरनाक हालत में असुरक्षित जीवन जी रहे हैं तो इसकी वजह समाज की संरचना, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को धुंधलाने की कुचेष्टाएं, कुंठित लोगों की आपराधिक मानसिकता, न्याय-प्रक्रिया की जटिलता और फैसलों में देरी है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने बच्चों के मुकदमों के इंसाफ की रफ्तार को तेज करने का निर्देश दिया है। हालांकि मुकदमों की सुनवाई और फैसलों में देरी की एक सबसे बड़ी वजह अदालतों में जजों की कमी और मुकदमों का अंबार होता है। इसीलिए मुकदमे सालों साल चलते रहते हैं और जटिल अपराधियों की प्रवृत्ति और उनके मनोबल पर कोई खास असर नहीं पड़ता है। बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध जटिल प्रकृति के होते हैं। ऐसे तथ्य अनेक बार सामने आ चुके हैं कि बच्चों के यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में आरोपी नजदीकी या परिचित ही होते हैं। जिनकी वजह से बच्चे वक्त पर किसी को भी अपने खिलाफ होने वाले अपराध के बारे में बता नहीं पाते हैं। बच्चों के सदमे में जाने और इस तरह के मामलों को बताने के लिए सहज तौर-तरीकों से अनजान रहने की वजह से भी काफी मुश्किल होती है।

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क्या कारण है कि निर्भया कांड के बाद बाल-दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाए जाने के वांछित नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं। इन कारणों की तह तक जाने का काम खुद सुप्रीम कोर्ट को भी करना होगा, क्योंकि निर्भया कांड के दोषियों को सुनाई गई सजा पर अब तक अमल नहीं हो सका है। विडंबना यह है हमारे समाज से लेकर समूचा तंत्र इस मसले पर साहसपूर्ण तरीके से सोचने की कोशिश नहीं करता है। कानून के साथ-साथ समाजशस्त्रियों, धर्मगुरुओं को सामाजिक जन-जागृति का माहौल बनाना होगा, सरकार को भी नयी सोच के साथ आगे आना होगा। अगर इस तरह के अन्याय को बढ़ावा नहीं मिले और उसका प्रतिकार होता रहे तो निश्चित ही एक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी। लेकिन इसके लिये प्रयास करने होंगे। व्यवस्था को सुदृढ़ करने की बजाय कोरे सख्त कानून बनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा, बल्कि इससे भ्रष्टाचार और मुकदमेबाजी के मामले बढ़ेंगे।

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छोटी बालिकाओं एवं महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी अबोध बालिकाएं एवं महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। सख्त कानूनों के बावजूद, देश में हर 15 मिनट पर एक बच्चा यौन अपराध का शिकार होता है। निर्भया मामले में जनांदोलन के बाद सरकार बदलने के बावजूद दिल्ली में बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म मामलों में भारी बढ़ोतरी हुई है। सुझाव दिए गए हैं कि स्कूली पाठयक्रमों में यौन शिक्षा को शामिल किया जाए। लेकिन संस्कृति और परंपरा आदि का हवाला देकर इस तरह के विचारों को दरकिनार किया जाता रहा है। जबकि संवेदनशील तरीके से की गई यौन शिक्षा की व्यवस्था बच्चों को अपने शरीर और उसके साथ होने वाली हरकत को समझने और समय पर उससे बचने या विरोध करने में मददगार साबित हो सकती है।

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दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर बाल-दुष्कर्म एवं यौन-शोषण की लगती इस कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, अबोध बाल मन एवं नारी को अपमानित करते हैं। कानूनी मोर्चे पर भी बच्चों के कोमल मन मस्तिष्क का खयाल रखते हुए उनके सहयोग की व्यवस्था करने की जरूरत है। बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से निपटने के मुद्दे पर टालमटोल का ही नतीजा है कि देश भर में इस साल जनवरी से जून के बीच बच्चियों से बलात्कार के करीब ढाई हजार मामले दर्ज हुए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की रफ्तार को नहीं रोका गया तो उसका असर समूचे समाज के भविष्य पर पड़ेगा। सच्चाई तो यही भी है कि दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाने से कोई लाभ नहीं हुआ है। क्योंकि यह पत्तों को सींचने जैसा है, जब तक जड़ों को नहीं सींचा जायेगा, प्रयास निरर्थक है।

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भारत में मौत की सजा के सख्त प्रावधान के बावजूद उन अपराधों में कमी न होना विचारणीय है। पिछले कई सालों में सिर्फ सात लोगों को फांसी हुई है, तो फिर फांसी की सजा के प्रावधान से बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म के बढ़ते मामलों पर कैसे लगाम लगेगी ? राजधानी दिल्ली बलात्कार की राजधानी बनती जा रही है, बलात्कार, छेड़खानी और भ्रूण हत्या, दहेज की धधकती आग में भस्म होती नारी के साथ-साथ अबोध एवं मासूम बालिकाएं भी इन क्रूर एवं अमानवीय घटनाओं की शिकार हो रही हैं। बीते कुछ सालों में विभिन्न राज्यों ने भी बच्चियों से दुष्कर्म के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान बनाया है और कुछ मामलों में दोषियों को फांसी की सजा सुनाई भी गई है, लेकिन उस पर अमल के नाम पर सन्नाटा ही पसरा है। आखिर ऐसे कानून किस काम के जिन पर अमल ही न हो ?

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देश में जितने अधिक एवं कठोर कानून बनते हैं, उतना ही उनका मखौल बनता है। आज यह कहना कठिन है कि दुष्कर्मी तत्वों के मन में कठोर सजा का कहीं कोई डर है। शायद इसी कारण दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। यह सही है कि इस बात को देखा जाना चाहिए कि कठोर कानूनों का दुरुपयोग न होने पाए, लेकिन इसका भी कोई मतलब नहीं कि उन पर अमल ही न हो। निःसंदेह इस पर भी ध्यान देना होगा कि कठोर कानून एक सीमा तक ही प्रभावी सिद्ध होते हैं। दुष्कर्म और खास कर बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म के बढ़ते मामले स्वस्थ समाज की निशानी नहीं। ऐसे मामले यही बताते हैं कि विकृति बढ़ती चली जा रही है। इस विकृति को कठोर कानूनों के जरिये भी रोकने की जरूरत है लेकिन इससे ज्यादा जरूरी है कि समाज में ऐसी जागृति लाई जाये कि लोगों का मन बदले।

-ललित गर्ग

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