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एक और सर्जिकल स्ट्राइक के साथ ही समान नागरिक संहिता भी लागू करिये
- कमलेश पांडे
- फरवरी 19, 2019 16:04
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मुस्लिमों या अन्य धर्मावलम्बियों को जो अतिरिक्त सुविधाएं दिए जा रही हैं, उसका औचित्य क्या है ? और सिर्फ धर्म ही क्यों, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग आदि के नाम पर जो तरह तरह के वाद स्थापित किये जा चुके हैं या किये जा रहे हैं, वह क्या राष्ट्रीयता के लिहाज से उचित हैं ?
पत्रकारिता में आम धारणा है, 'जब तोप मुकाबिल हो तो एक अखबार निकालो।' आशय यह कि शब्दों-विचारों की मारक क्षमता कतिपय शस्त्रों से अधिक होती है। विशेष तौर से सर्वव्यापी भी। यही वजह है कि जब पाकिस्तान की नापाक हरकतों के खिलाफ एक और सर्जिकल स्ट्राइक की मांग बलवती है तो मेरे मन में यह खयाल आया कि जम्मू-कश्मीर के उरी आतंकी हमले के बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक का फलाफल क्या निकला। जाहिर है, अंतराल दर अंतराल के इंतजार के बाद पुलवामा आत्मघाती आतंकी हमला हो गया। सवाल है कि यह सिलसिला आखिर कब और कैसे थमेगा? क्योंकि अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेना से साफ कह दिया है कि इस घटना का बदला कब, कहां और कैसे लेना है, अपने पेशेवर रुख से वह खुद तय करे। प्रथमदृष्टया यह बहुत बड़ी बात है।
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लेकिन भारतीय शासन व्यवस्था की गतिविधियों को बड़े ही करीब से देखने के बाद मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि इस बार भी पाकिस्तान पर सर्जिकल हमला हो, ताकि उसे कड़ा सबक मिले। लेकिन, इसके साथ ही 'भारतीय संविधान' से जुड़े उन तमाम प्रावधानों पर भी बौद्धिक-नीतिगत सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए, जिससे ऐसे तत्वों को कानूनी खाद-पानी मिलती आई है। क्योंकि दुनियावी संविधान की 'वैचारिक खिचड़ी' समझे जाने वाले भारतीय संविधान के कुछेक प्रावधानों से भी ऐसे तत्वों का मनोबल बढ़ता है। साथ ही, देश में रणनीतिक विरोधाभास भी बढ़ता है।
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बानगी स्वरूप 'अल्पसंख्यक' शब्द की अवधारणा को ही ले लीजिए। यह कौन नहीं जानता कि साम्प्रदायिक विभाजन के परिणाम स्वरूप बने हिंदुओं के हिन्दुस्तान और मुस्लिमों के पाकिस्तान में कथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो अगर-मगर करने की कोशिश की गई है, वह समाजशास्त्र की मूल प्रकृति के विपरीत है। शायद यही वजह है कि भारत आज उसकी भारी कीमत चुकाने की दिशा की ओर अग्रसर है। कारण कि जिन वजहों से 1947 में पाकिस्तान अलग हुए था, आज वही वजहें फिर से मुंह बाए खड़ी हैं। स्वाभाविक है कि दोष परिस्थितियों का कम, उन नीति-नियंताओं का अधिक है जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय लोकप्रियता हासिल करने के लिए हिंदुओं के दूरगामी हित से एक नहीं, बल्कि कई नापाक समझौते किये, जिनका यहां उल्लेख करना मैं जरूरी नहीं समझता हूं, क्योंकि ये सभी बातें पब्लिक डोमेन मैं हैं।
सवाल है कि अल्पसंख्यक वर्ग के नाम पर भारत में मुस्लिमों या अन्य धर्मावलम्बियों को जो अतिरिक्त सुविधाएं दिए जा रही हैं, उसका औचित्य क्या है ? और सिर्फ धर्म ही क्यों, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग आदि के नाम पर जो तरह तरह के वाद स्थापित किये जा चुके हैं या किये जा रहे हैं, वह क्या राष्ट्रीयता के लिहाज से उचित हैं ? किसी भी लोकतंत्र में वोट बैंक के लिहाज से यदि नैसर्गिक व सार्वभौमिक मानवीय, सामाजिक और प्रशासनिक मूल्यों से छेड़छाड़ की जाएगी, तो नीतिगत विरोधाभास बढ़ेंगे ही। भारत इसी अव्यवहारिक अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। इसलिए सत्ताधारी वर्ग समान नागरिक संहिता का समर्थक होते हुए भी लाचार दिख रहा है। इसलिए खंडित-विखंडित लाभों पर फिर से विचार करने की जरूरत है, जो कि एक लंबे अरसे से महसूस की जा रही है।
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सबसे बड़ा नीतिगत सवाल यह है कि आखिर फिरंगियों की सोच पर उधार लिए हुए कतिपय कानूनों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किस नए भारत का निर्माण करेंगे, यह जानने का हक हिंदुस्तानियों को है। देश ही नहीं दुनिया को भी है, क्योंकि एनआरआई पूरे देश में फैले हुए हैं। फिर भी यदि हमारी संसद और सुप्रीम कोर्ट विगत 70 सालों में भी आस्तीन के सांपों की तरह काम करने वाले कानूनी शब्दों या प्रावधानों की पहचान नहीं कर पाई है तो यह उसका 'बौद्धिक दिवालियापन' है, जिससे राष्ट्रवाद, एकता और अखंडता की अवधारणा निरंतर खोखली होती जा रही है। इससे देश में विघटनकारी तत्वों को प्रश्रय मिल रहा है और शेष देशवासी अपने ही वीर जवानों की लाशें यत्र तत्र सर्वत्र गिनने को अभिशप्त हो चुके हैं।
क्या आपने कभी सोचा है कि फूट डालो और राज करो जैसी हिंसक नीति से जब अंग्रेजों की सत्ता चिरस्थाई नहीं हो पाई, तो 'काले अंग्रेजों' की कितनी होगी, समझना आसान है! और बिगड़ते हालात दिन ब दिन इस बात की चुगली भी कर रहे हैं। गुलामी की पीड़ा यदि भुला भी दी जाए तो आजादी के साथ ही विरासत में मिले हुए साम्प्रदायिक दंगों, फिर 1948 में महात्मा गांधी की हत्या, 1962 के चीनी आक्रमण, 1965 के भारत-पाक युद्ध से उपजी ताशकंद त्रासदी, 1971-72 का भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश का निर्माण, 1975 का राष्ट्रीय आपातकाल, 1980 के दशक का खालिस्तानी आतंकवाद और 1984 का इंदिरा हत्याकांड, एलटीटीई आतंकवाद और 1991 का राजीव हत्याकांड, कारगिल युद्ध 1999, मुम्बई आतंकी हमला 2008, उरी आतंकी अटैक 2016 और अब पुलवामा आतंकी आत्मघाती हमला 2018 से जो सिलसिलेवार सख्त संदेश मिले हैं, और वक्त-वेवक्त जो साम्प्रदायिक झड़पें होती रहती हैं, उसकी भयावह आंच यत्र-तत्र आम लोगों पर पड़ते-पड़ते अब हमारे वीर जवानों तक पहुंच चुकी है। जिसका मुंहतोड़ जवाब शस्त्रों से अधिक मारक प्रभाव रखने वाले शब्दों से देने की जरूरत है, अन्यथा मुकाबला मुश्किल है।
सवाल फिर वही कि जब आम आदमी और खास आदमी के वोट की कीमत समान है तो फिर अन्य कानूनी विसंगतियां और नीतिगत-रणनीतिक लापरवाहियां आखिर किसके हितवर्द्धन के लिए बनाये रखी गई हैं, यह जानने को देशवासी उत्सुक हैं। बेशक अल्पसंख्यकवाद के समतुल्य ही जातिवादी आरक्षण व्यवस्था की अवधारणा से भी देश खोखला होता जा रहा है। क्योंकि इसके आर्थिक स्वरूप का तो स्वागत किया जा सकता है जिससे वर्गवाद पनपेगा, लेकिन जातीय स्वरूप का कतई नहीं, क्योंकि इससे सामाजिक विखंडन पैदा होगा, हो भी रहा है। खास बात यह कि किसी भी तरह के आरक्षण पर पहला हक तो गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत के अमर शहीदों के परिजनों का होना चाहिए, लेकिन इस दिशा में कदम उठाने की बात शायद किसी ने भी नहीं सोची तो क्यों, समझना मुश्किल नहीं है?
बेशक, देश और समाज आज विपरीत परिस्थितियों से गुजर रहा है। सरकारी व्यवस्था का विकल्प बन रही निजीकरण व्यवस्था का यत्र-तत्र आर्थिक नंगा नाच सिर चढ़कर बोल रहा है जिससे राष्ट्रवादी भावना को वह मजबूती नहीं मिल पा रही है जिसकी अपेक्षा देशवासियों को है। या फिर जैसी चीनियों और पाकिस्तानियों में आमतौर पर देखी-पाई जा रही है।
सवाल फिर वही कि आखिर जिस निकृष्ट लोकतांत्रिक प्रवृति को प्रश्रय देकर यह देश खोखला होता जा रहा है, उसकी प्रासंगिकता और समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप उसमें आवश्यक बदलाव लाने के बारे में आखिर सोचेगा कौन ? क्योंकि अब यह महसूस किया जाने लगा है कि ऐसे अपेक्षित बदलाव लाने में हमारी संसद व विधानमंडल और क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय विफल या फिर असहाय प्रतीत हो रहे हैं, जो सार्वजनिक चिंता का विषय है। लिहाजा, समकालीन प्रबुद्ध वर्ग का यह नैतिक दायित्व है कि वह देश को एक नई और सर्वस्वीकार्य दिशा दिखाए, जिसकी अपेक्षा और जरूरत समकालीन वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समर्थ भारत के निर्माण के लिए सबसे ज्यादा है। खासकर एनजीओ की अवधारणा का सदुपयोग इस दिशा में किया जाए तो बेहतर रहेगा।
लेकिन इसके लिए सत्ता, शासन, न्यायिक, मीडिया और कारोबारी शीर्ष पर बैठे और उनसे जुड़े लोगों और विशेषकर छोटे-छोटे सामाजिक धड़ों के संगठित पहरेदारों को आम आदमी के दूरगामी और बुनियादी हितों के प्रति उदार होना होगा। क्योंकि पुरातन अथवा समकालीन दौर में बढ़ती भोग की प्रवृति और इसकी पूर्ति हेतु हर ओर मची मार-काट से इतर 'सनातन भारत' के सेवा और त्याग की उदात्त सोच को अपनाना होगा, अन्यथा स्थिति बहुत जटिल से जटिलतम बन चुकी है।
शायद अब खतरा इस बात का है कि आतंकवाद के रथ पर सवार इस्लामिक दुनिया जब हिंदुत्व के प्रतीक समझे जाने वाले भारत को निगलने को तत्पर प्रतीत हो रही हो और आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ रही हो, तब मुकाबले के सिवाय अन्य चारा भी बचा है क्या ? उधर, ईसाइयत व्यवस्था भी इस ताक में बैठी है कि दिन प्रतिदिन बेतुके धर्म-संघर्ष में उलझते जा रहे भारत को कैसे अपना सहज ग्रास बनाया जाए और फिर से उसे अपना आर्थिक गुलाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आड़ लेकर बनाया जाये, क्योंकि उसका आर्थिक हित इसी में सुरक्षित है।
सवाल है कि क्या आप इन बातों को सोच पा रहे हैं और इस देश के आम आदमी को समझा पा रहे हैं। यदि नहीं तो अब भी सोचिए, समझिए और अंदर से हिल चुके देश को एक नई मजबूती देने के लिए आगे आकर समर्थ नेतृत्व दीजिये। वैसा उदारमना नेतृत्व विकसित कीजिए जो दलित, पिछड़ी, अल्पसंख्यक, भाषाई, क्षेत्रीयता, लिंग भेद, साम्प्रदायिकता, जातीयता, परिवारवाद और सम्पर्कवाद जैसी संक्रामक वैचारिक बीमारियों और उससे उपजी निकृष्ट सोच से परे हो। जो समान मताधिकार की तरह समान नागरिक संहिता यानी कि अन्यान्य असमानताओं को दूर करने की पैरोकारी करता हो। जो भारत को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाली अटल-आडवाणी युगीन बीजेपी की अवधारणा-विचारधारा के विराट रूप का दर्शन जन-जन को आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से करवाने में समर्थ हो। अन्यथा देश का वैचारिक दलदल इस सद्भावी राष्ट्र को भी ले डूबेगा, पूर्णतया समाप्त कर देगा, जिससे पूरी मानवता संकट में पड़ जाएगी, आज नहीं तो निश्चय कल!
-कमलेश पांडे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और आलेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं।)
गाँव-गाँव में पार्टी की मजबूती के लिए भाजपा ने बनाया मेगा प्लान
- अजय कुमार
- जनवरी 18, 2021 13:44
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2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था।
भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 1980 में गठन के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी के आज तीन सौ से अधिक सांसद हैं। कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं, लेकिन बीजेपी आज भी सर्वमान्य पार्टी नहीं बन पाई है। दक्षिण के राज्यों में उसकी पकड़ नहीं के बराबर है। कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण के राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना में आज भी बीजेपी ज्यादातर मुकाबले में नजर नहीं आती है। इसी के चलते बीजेपी पर पूरे देश की बजाए उत्तर भारतीयों की पार्टी होने का ठप्पा चस्पा रहता है। उत्तर भारत में भी बीजेपी को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों की अलग-अलग धारणा है। कभी बीजेपी को बनिया (व्यापारियों) और ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता था, तो ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं थी जो बीजेपी को शहरी पार्टी बताया करते थे। इस अभिशाप को मिटाने के लिए बीजेपी को काफी पापड़ बेलने पड़े तो प्रभु राम ने उसका (बीजेपी) बेड़ा पार किया।
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अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली के पांच सौ वर्ष पुराने विवाद में ‘कूद’ कर बीजेपी ने ऐसा रामनामी चोला ओढ़ा कि वह बनिया-ब्राह्मण की जगह हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की लम्बरदार बन बैठी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी ने वर्षों से अलग-अलग अपनी ढपली बजाने वाले हिन्दुओं को भगवान राम के नाम पर एकजुट करके उसे बीजेपी का वोट बैंक भी बना दिया, लेकिन फिर भी बीजेपी के ऊपर शहरी पार्टी होने का ठप्पा तो लगा ही रहा। यह वह दौर था जब बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस सहित अन्य तमाम गैर-भाजपाई दल मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत में लगे हुए थे। वहीं हिन्दुओं के वोट बंटे रहें, इसके लिए साजिशन हिन्दुओं के बीच जातिवाद घोलकर उनके वोटों में बिखराव पैदा किया गया। यादवों के रहनुमा मुलायम बन गए और मायावती दलितों को साधने में सफल रहीं। हिन्दुओं के वोट बैंक में बिखराव के सहारे ही बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने वर्षों तक सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल की। बसपा सुप्रीम मायावती ने भी कई बार दलित-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाबी हासिल की। यह सब तब तक चलता रहा जब तक कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी युग का श्रीगणेश नहीं हुआ था।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था। इस ठप्पे को हटाने के लिए ही मोदी सरकार ने तमाम विकास योजनाओं का रूख गांव-देहात और अन्नदाताओं की तरफ मोड़ दिया। फसल बीमा योजना, कृषि में मशीनीकरण, जैविक खेती, सॉइल हेल्थ कार्ड और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ऐसी प्रमुख योजनाएं हैं जो केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं। किसानों से लगातार संवाद किया जा रहा है। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कई राहत पैकजों की भी घोषणा की गई। नया कृषि कानून भी इसका हिस्सा है जिसको लेकर आजकल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल रखा है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने नये कृषि कानून पर अंतरिम रोक लगा कर एक कमेटी भी गठित कर दी है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को लेकर कई कदम उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी केन्द्र सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए कई किसान योजनाएं लेकर आई है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में सिंचन क्षमता में वृद्धि तथा सिंचाई लागत में कमी लाकर कृषकों की आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। 50 लाख किसान ड्रिप स्प्रिंकलर सिंचाई योजना से लाभान्वित हुए। योजना में लघु एवं सीमांत कृषकों को 90 प्रतिशत एवं सामान्य कृषकों को 80 फीसदी का अनुदान मिला है। लघु, सीमांत, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषक समूह के लिए मिनी ग्रीन ट्यूबवेल योजना की भी शुरुआत की गई है। योजना के तहत नलकूप के सबमर्सिबल पम्प का संचालन सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जाएगा।
योगी सरकार खेतों की मुफ्त में जुताई और बुवाई का भी कार्यक्रम लेकर आई है। पहले चरण में ये योजना यूपी के लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर समेत 16 जिलों में लागू की गई। इसके तहत लघु और सीमांत किसानों को राहत देने के लिए योगी सरकार ने ट्रैक्टरों से मुफ्त में खेतों की जुताई और बुवाई कराने जैसी बड़ी सुविधा दी गई है। मुख्यमंत्री कृषक योजना के तहत 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। हाल ही में किसान सम्मान निधि योजना के तहत 2.13 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 28,443 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये गये। देश के किसानों के लिए यह सब योजनाएं केन्द्र की मोदी सरकार लाई है तो यूपी की योगी सरकार अपने प्रदेश के किसानों की माली हालत सुधारने में लगी है।
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बात सरकार से अलग संगठन की कि जाए तो भारतीय जनता पार्टी इसमें भी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है। शहर के चौक-चौराहों से निकलकर बीजेपी गाँव-देहात में चौपालों तक दस्तक देने लगी है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी पंचायत चुनावों में भी ताल ठोंकने लगी है। कई राज्यों के पंचायत चुनाव में बीजेपी अपनी ताकत दिखा भी चुकी है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी ने गांव की सरकार के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। भाजपा पंचायत चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। अबकी बार बीजेपी अपने चुनाव चिन्ह कमल के निशान पर पंचायत चुनाव लड़ने जा रही है ताकि भविष्य में बीजेपी ताल ठोक कर कह सके कि उसकी पहुंच गाँव-गाँव तक है।
दरअसल, पार्टी अभी तक त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव (जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत और ग्राम पंचायत) में अपने उम्मीदवारों को सिर्फ समर्थन देती थी, सिंबल नहीं दिया जाता था। प्रत्याशी को बीजेपी समर्थित कहा जाता था, लेकिन मौजूदा बीजेपी नेतृत्व का मानना है कि हर राजनीतिक दल को खुद का कर्तव्य मानकर हर चुनाव में उम्मीदवार उतारने चाहिए क्योंकि चुनाव के दौरान सियासी दलों को अपनी नीतियां और योजनाओं को आमजन के सामने रखने का खास अवसर मिलता है। चुनाव सियासी दलों की परीक्षा समान हैं।
-अजय कुमार
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- प्रो. सुधांशु त्रिपाठी
- जनवरी 16, 2021 13:02
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वास्तव में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भारत शांतिपूर्ण तरीके से जिस तरह तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है उससे संपूर्ण विश्व अचंभित है परंतु देश के भीतर तथा विदेश में बैठे इन कट्टर राष्ट्रविरोधी ताकतों को अच्छा नहीं लग रहा है।
केंद्र सरकार तथा आंदोलनकारी किसान नेताओं के बीच कई दौर की वार्ता के बाद भी दोनों पक्षों को स्वीकार्य कोई हल अब तक निकल नहीं सका है। वस्तुतः संपूर्ण घटनाक्रम शाहीन बाग की याद दिला रहा है। जिस तरह से किसान आंदोलन के नाम पर चंद मुट्ठी भर अमीर से बेहद अमीर किसानों के नेतृत्व में पंजाब तथा हरियाणा के बहुसंख्य किसानों ने न केवल दिल्ली बल्कि आसपास के चतुर्दिक सामान्य जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। ये प्रदर्शनकारी या तथाकथित अन्नदाता किसान दिल्ली के समीप सिंघु बॉर्डर पर पिछले पचास दिनों से डेरा डाले बैठे हुए हैं जिससे सामान्य किसानों की रोजी-रोटी पर तो कुठाराघात हो ही रहा है, साथ ही दैनिक मजदूरों और अन्य दिहाड़ी कामगारों को भी अपने जीवकोपार्जन में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। वस्तुतः उनके इस अनवरत प्रदर्शन से दिल्ली तथा संबंधित सभी राज्यों की कानून व्यवस्था संभालने वाली पुलिस तथा प्रशासनिक मशीनरी को इन अन्नदाताओं के धरना स्थलों की सुरक्षा तथा दिल्ली के चारों ओर सभी राज्यों से यहाँ प्रतिदिन आकर काम करने वालों के लिये दैनिक आवागमन सुलभ बनाने तथा सामान्य कानून एवं व्यवस्था की स्थापना करने में भी एड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। इसमें न केवल देश के करदाताओं का अमूल्य धन नष्ट हो रहा है जिसका अन्यथा सामाजिक कल्याण एवं विकास के कार्यों में उपयोग किया जा सकता था बल्कि पूरे प्रशासनिक अमले का परिश्रम नष्ट हो रहा है जिससे निश्चय ही सामान्य जनजीवन की सुरक्षा बढ़ाई जा सकती थी तथा उनका राष्ट्रहित में उपयोग किया जा सकता था।
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यद्यपि ये अन्नदाता कृषि कानून को वापस लिये जाने पर अड़े हैं तथा इसके लिए केंद्र सरकार पर अनेकों प्रकार से दबाव बना रहे हैं जिसमें देश के कुछ प्रमुख तथाकथित बुद्धिजावियों के साथ लगभग सभी प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दल और चीन समर्थित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टियां तथा लंदन से खालिस्तान समर्थक उग्रवादी संगठन भी भरपूर समर्थन दे रहे हैं जो अखंड भारत के भीतर एक स्वतंत्र पंजाब/खालिस्तान देश का सपना संजोए बैठे हैं। निश्चय ही इन अन्नदाताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए संपूर्ण देश के बहुसंख्यक सामान्य किसानों को बुरी तरह से भ्रमित करके डरा दिया है क्योंकि इनके लिए राष्ट्रहित का कोई महत्व नहीं है, अन्यथा किसानों के आंदोलन में इन सभी विघटनकारी तत्वों का क्या काम है। यद्यपि कृषि कानून में उल्लिखित विभिन्न सकारात्मक प्रावधानों के महत्व को ये अन्नदाता मौन रूप से स्वीकार कर रहे हैं तथापि अपने संकीर्ण स्वार्थों की निर्बाध पूर्ति के लिए ये इन सभी महत्वपूर्ण किसान-हितकारी उपबंधों की उपेक्षा कर रहे हैं जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम0एस0पी0) की गारंटी के साथ ही किसानों को अपनी फसल को देश के किसी भी स्थान पर बेचे जाने की छूट दी गयी है तथा मंडियों में फैले भ्रष्टाचार से उन्हें बचाने का प्रयास भी किया गया है। संभवतः अपने इन तुच्छ स्वार्थों एवं संकीर्ण उद्देश्यों के चलते तथा इस आंदोलन के देश विरोधी और विघटनकारी-आतंकवादी तत्वों के हाथों में पड़ जाने के कारण इन आंदोलनकारी किसान नेताओं में उत्पन्न निराशा साफ दिखायी दे रही है।
वास्तव में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भारत शांतिपूर्ण तरीके से जिस तरह तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है उससे संपूर्ण विश्व अचंभित है परंतु देश के भीतर तथा विदेश में बैठे इन कट्टर राष्ट्रविरोधी ताकतों को अच्छा नहीं लग रहा है। विश्व के सभी प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष यथा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एवं फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन तथा आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन, इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू एवं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आदि सभी प्रमुख नेतागण प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली से अत्यंत प्रभावित हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी की विश्व में बढ़ती हुई लोकप्रियता की स्वीकारोक्ति ही है कि अनेक प्रमुख देश उन्हें अपने-अपने सर्वोच्च राजकीय सम्मान से सम्मानित कर चुके हैं।
वर्तमान कोरोना की विश्वव्यापी महामारी के दौर में देश के प्रधानमंत्री ने जिस सूझ-बूझ का परिचय देते हुए सभी देशवासियों की सुरक्षा एवं उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सारे व्यापक उपाय किए उसकी न केवल देश में बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी वैश्विक संस्था तथा विभिन्न देशों द्वारा कई प्रमुख मंचों पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। कोविड-19 के कठिन दौर में भी जब पड़ोसी देश चीन ने अत्यंत शर्मनाक विश्वासघात करते हुए भारत-चीन सीमा, (एल0ए0सी0) पर देश में अनेक स्थानों पर घुसपैठ करने की कोशिश की, उसका अत्यंत साहसपूर्वक ढंग से सामना करते हुए भारतीय सेना प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बीजिंग को जिस तरह से मुँहतोड़ जवाब दे रही है उससे चीन बेहद परेशान हो चुका है तथा उसके कारण चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को न केवल विश्व में बल्कि अपने देश में भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। समग्रतः विश्व में भारत की तेजी से उभरती सशक्त छवि देशविरोधी शक्तियों के लिए एक बहुत बड़ी परेशानी का कारण बन चुकी है। अतः ये सब, जिनमें देश के भीतर सक्रिय टुकडे-टुकड़े गैंग की प्रभावी भूमिका रहती है, केवल मौके की तलाश में रहते हैं कि कैसे भारत को एक बार पुनः अस्थिर तथा विखंडित किया जाए। किसानों के इस आंदोलन ने इन्हें पुनः एक मौका दे दिया है।
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ऐसे चिंताजनक परिदृश्य में यद्यपि देश की सर्वोच्च अदालत ने इस कानून पर रोक लगा कर केंद्र सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच चले आ रहे लंबे टकराव पर विराम लगाने का प्रयास तो किया है और समाधान निकालने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है परंतु एक सदस्य द्वारा समिति में शामिल न होने के फैसले से आगे की कार्यवाही प्रभावित हो सकती है और विलंब हो सकता है। इसी असमंजस के बीच इन आंदोलनकारी किसानों द्वारा देश के आगामी गणतंत्र दिवस 26 जनवरी पर विशाल ट्रैक्टर जुलूस निकालने की चेतावनी दोनों पक्षों के बीच तनाव को बढ़ाने का काम करेगी। अंततोगत्वा सरकार तथा आंदोलनकारी किसानों को ही इस समस्या का हल खोजना होगा जो दोनों के बीच बातचीत से ही निकल सकता है। लेकिन इसके लिए इन किसान आंदोलनकारियों को अपने बीच से स्वार्थी किस्म के छद्म नेताओं तथा विघटनकारी तत्वों को हटाना होगा क्योंकि तभी दोनों के बीच सार्थक वार्तालाप हो सकेगा और दोनों पक्षों को स्वीकार्य हल निकल सकेगा, जो अब तक की कई दौर की वार्ता के सम्पन्न होने पर भी नहीं निकल सका। साथ ही देश के संपूर्ण जनता-जर्नादन अर्थात् हम भारत के लोग को भी जाति, धर्म, भाषा, समुदाय, क्षेत्र आदि जैसे संकीर्ण विचारों से ऊपर उठना चाहिए तथा किसान आंदोलन के नाम पर अपने तुच्छ हितों की रक्षा करने वाले इन स्वार्थी और देश विरोधी किसान नेताओं एवं असामाजिक तत्वों तथा कट्टर राष्ट्रविरोधी-विघटनकारी एवं खालिस्तान समर्थक उग्रवादी संगठनों को अलग-थलग कर देना चाहिए जिससे देश की अखंडता तथा राष्ट्रहित और मानव संस्कृति की रक्षा हो सके तथा समाज में शांति एवं सुरक्षा की स्थापना के साथ ही सामाजिक समरसता भी कायम की जा सके। ऐसा हो सकता है क्योंकि मानव उद्यम से परे कुछ नहीं होता है।
-प्रो. सुधांशु त्रिपाठी
आचार्य
उप्र राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।
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- प्रहलाद सबनानी
- जनवरी 15, 2021 12:32
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भारत में सनातन धर्म का गौरवशाली इतिहास पूरे विश्व में सबसे पुराना माना जाता है। कहते हैं कि लगभग 14,000 विक्रम सम्वत् पूर्व भगवान नील वराह ने अवतार लिया था। नील वराह काल के बाद आदि वराह काल और फिर श्वेत वराह काल हुए।
पूज्य भगवान श्रीराम हमें सदैव ही मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में दिखाई देते रहे हैं। पूरे विश्व में भारतीय नागरिकों को प्रभु श्रीराम के वंशज के रूप में जानने के कारण, आज दुनियाभर में हर भारतीय की यही पहचान भी बन गयी है। लगभग हर भारतीय न केवल “वसुधैव कुटुंबकम”, अर्थात् इस धरा पर निवास करने वाला हर प्राणी हमारा परिवार है, के सिद्धांत में विश्वास करता है बल्कि आज लगभग हर भारतीय बहुत बड़ी हद तक अपने धर्म सम्बंधी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी दिखाई दे रहा है। भारत में भगवान श्रीराम धर्म एवं मर्यादाओं के पालन करने के मामले में मूर्तिमंत स्वरूप माने जाते हैं। इस प्रकार वे भारत की आत्मा हैं।
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विशेष रूप से आज जब पूरे विश्व में आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है एवं जब विकसित देशों में भौतिकवादी विकास सम्बंधी मॉडल के दुष्परिणाम, लगातार बढ़ रही मानसिक बीमारियों के रूप में दिखाई देने लगे हैं, ऐसे में पूरा विश्व ही आज भारत की तरफ़ आशा भरी नज़रों से देख रहा है कि ऐसे माहौल में केवल भारतीय संस्कृति ही विश्व को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने में सहायक होगी एवं भारतीय आध्यात्मवाद के सहारे मानसिक बीमारियों से मुक्ति भी सम्भव हो सकेगी। इसी कारण से आज विशेष रूप से विकसित देशों यथा, जापान, रूस, अमेरिका, दक्षिणी कोरीया, फ़्रान्स, जर्मनी, इंग्लैंड, कनाडा, इंडोनेशिया आदि अन्य देशों की ऐसी कई महान हस्तियां हैं जो भारतीय सनातन धर्म की ओर रुचि लेकर, इसे अपनाने की ओर लगातार आगे बढ़ रही हैं।
भारत में सनातन धर्म का गौरवशाली इतिहास पूरे विश्व में सबसे पुराना माना जाता है। कहते हैं कि लगभग 14,000 विक्रम सम्वत् पूर्व भगवान नील वराह ने अवतार लिया था। नील वराह काल के बाद आदि वराह काल और फिर श्वेत वराह काल हुए। इस काल में भगवान वराह ने धरती पर से जल को हटाया और उसे इंसानों के रहने लायक़ बनाया था। उसके बाद ब्रह्मा ने इंसानों की जाति का विस्तार किया और शिव ने सम्पूर्ण धरती पर धर्म और न्याय का राज्य क़ायम किया। सभ्यता की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। सनातन धर्म की यह कहानी वराह कल्प से ही शुरू होती है। जबकि इससे पहले का इतिहास भी भारतीय पुराणों में दर्ज है जिसे मुख्य 5 कल्पों के माध्यम से बताया गया है। यदि भारत के इतने प्राचीन एवं महान सनातन धर्म के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो पता चलता है कि हिन्दू संस्कृति एवं सनातन वैदिक ज्ञान वैश्विक आधुनिक विज्ञान का आधार रहा है। इसे कई उदाहरणों के माध्यम से, हिन्दू मान्यताओं एवं धार्मिक ग्रंथों का हवाला देते हुए, समय-समय पर सिद्ध किया जा चुका है। सनातन वैदिक ज्ञान इतना विकसित था, जिसके मूल का उपयोग कर आज के आधुनिक विज्ञान के नाम पर पश्चिमी देशों द्वारा वैश्विक स्तर पर फैलाया गया है। दरअसल, सैंकड़ों सालों के आक्रमणों और ग़ुलामी ने हमें सिर्फ़ राजनीतिक रूप से ही ग़ुलाम नहीं बनाया बल्कि मानसिक रूप से भी हम ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े गए। अंग्रेज़ों के शासन ने हमें हमारी ही संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर दिया। जबकि हमारे ही ज्ञान का प्रयोग कर वे संसार भर में विजयी होते रहे और नाम कमाते रहे। अब ज़रूरत है कि हम अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को जानें और इस पर गर्व करना भी सीखें।
इसी क्रम में पूरे विश्व में निवास कर रहे हिन्दू सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जिनके नाम से आज विश्व में भारत की पहचान होती है, का एक भव्य मंदिर भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में बनाया जाना शाश्वत प्रेरणा के साथ-साथ एक आवश्यकता भी माना जाना चाहिए। चूंकि बाबर एवं मीर बाक़ी नामक आक्रांताओं ने भगवान श्रीराम के मंदिर का विध्वंस कर उस स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण कर लिया था अतः पुनः इस स्थान को मुक्त कराने हेतु प्रभु श्रीराम के भक्तों को 492 वर्षों तक लम्बा संघर्ष करना पड़ा है। अतीत के 76 संघर्षों में 4 लाख से अधिक रामभक्तों ने बलिदान दिया है एवं लगभग 36 वर्षों के सुसूत्र श्रृंखलाबद्ध अभियानों के फलस्वरूप सम्पूर्ण समाज ने लिंग, जाति, वर्ग, भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र आदि भेदों से ऊपर उठकर एकात्मभाव से श्रीराम मंदिर के लिए अप्रतिम त्याग और बलिदान किया है। अंततः उक्त बलिदानों के परिणामस्वरूप 9 नवम्बर 1989 को श्रीराम जन्मभूमि पर अनुसूचित समाज के बन्धु श्री कामेश्वर चौपाल ने पूज्य संतों की उपस्थिति में शिलान्यास सम्पन्न किया था। परंतु, प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर निर्माण करने हेतु ज़मीन के स्वामित्व सम्बंधी क़ानूनी लड़ाई अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी। इस प्रकार आस्था का यह विषय न्यायालयों की लम्बी प्रक्रिया (सत्र न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक) में भी फंस गया था। अंत में, पौराणिक-साक्ष्यों, पुरातात्विक-उत्खनन, राडार तरंगों की फ़ोटो प्रणाली तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय पीठ ने 9 नवम्बर 2019 को सर्व सम्मति से एकमत होकर निर्णय देते हुए कहा “यह 14000 वर्गफीट भूमि श्रीराम लला की है।” इस प्रकार सत्य की प्रतिष्ठा हुई, तथ्यों और प्रमाणों के साथ श्रद्धा, आस्था और विश्वास की विजय हुई। तत्पश्चात, भारत सरकार ने 5 फ़रवरी 2020 को “श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र” नाम से न्यास का गठन कर अधिग्रहीत 70 एकड़ भूमि श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र को सौंप दी। तदुपरांत 25 मार्च, 2020 को श्री राम लला तिरपाल के मन्दिर से अपने अस्थायी नवीन काष्ठ मंदिर में विराजमान हुए।
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अंततः 5 अगस्त 2020 को सदियों के स्वप्न-संकल्प सिद्धि का वह अलौकिक मुहूर्त उपस्थित हुआ। जब पूज्य महंत नृत्य गोपाल दास जी सहित देश भर की विभिन्न आध्यात्मिक धाराओं के प्रतिनिधि पूज्य आचार्यों, संतों, एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के पावन सानिध्य में भारत के जनप्रिय एवं यशस्वी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भूमि पूजन कर मंदिर निर्माण का सूत्रपात किया। इस शुभ मुहूर्त में देश के 3000 से भी अधिक पवित्र नदियों एवं तीर्थों का जल, विभिन्न जाति, जन जाति, श्रद्धा केंद्रों तथा बलिदानी कार सेवकों के घर से लायी गई रज (मिट्टी) ने सम्पूर्ण भारत वर्ष को आध्यात्मिक रूप से “भूमि पूजन” में उपस्थित कर दिया था।
भारत में पूज्य संतों ने यह भी आह्वान किया है कि श्रीराम जन्म भूमि में भव्य मंदिर बनने के साथ-साथ जन-जन के हृदय मंदिर में श्रीराम एवं उनके नीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा हो। श्रीराम 14 वर्षों तक नंगे पैर वन वन घूमे, समाज के हर वर्ग तक पहुंचे। उन्होंने वंचित, उपेक्षित समझे जाने वाले लोगों को आत्मीयता से गले लगाया, अपनत्व की अनुभूति कराई, सभी से मित्रता की। जटायु को भी पिता का सम्मान दिया। नारी की उच्च गरिमा को पुनर्स्थापित किया। असुरों का विनाश कर आतंकवाद का समूल नाश किया। राम राज्य में परस्पर प्रेम, सद्भाव, मैत्री, करुणा, दया, ममता, समता, बंधुत्व, आरोग्य, त्रिविधताप विहीन, सर्वसमृद्धि पूर्ण जीवन सर्वत्र था। अतः हम सभी भारतीयों को मिलकर पुनः अपने दृढ़ संकल्प एवं सामूहिक पुरुषार्थ से पुनः एक बार ऐसा ही भारत बनाना है।
इस प्रकार प्रभु श्रीराम की जन्म स्थली अयोध्या में केवल एक भव्य मंदिर बनाने की परिकल्पना नहीं की गई है। भव्य मंदिर के साथ-साथ विशाल पुस्तकालय, संग्रहालय, अनुसंधान केंद्र, वेदपाठशाला, यज्ञशाला, सत्संग भवन, धर्मशाला, प्रदर्शनी, आदि को भी विकसित किया जा रहा है, ताकि आज की युवा पीढ़ी को प्रभु श्रीराम के काल पर अनुसंधान करने में आसानी हो। इसे राष्ट्र मंदिर इसलिए भी कहा जा रहा है क्योंकि यहां आने वाले हर व्यक्ति को यह मंदिर भारतीय सनातन संस्कृति की पहचान कराएगा। पूरे विश्व में यह मंदिर हिन्दू सनातन धर्म में आस्था रखने वाले लोगों के लिए आस्था का केंद्र बनने जा रहा है अतः यहां पूरे विश्व से सैलानियों का लगातार आना बना रहेगा। यह मंदिर पूरे विश्व में हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए एक महत्वपूर्ण आस्था का केंद्र बनने के साथ-साथ पर्यटन के एक विशेष केंद्र के रूप में भी विकसित होने जा रहा है, इसलिए प्रभु श्रीराम की कृपा से करोड़ों व्यक्तियों की मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ लाखों लोगों को रोज़गार के अवसर भी प्रदत्त होंगे।
-प्रहलाद सबनानी
सेवानिवृत उप-महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
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