इसलिए कांग्रेस के नेता पाकिस्तान मुर्दाबाद कहने को तैयार नहीं होते

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मनोज ज्वाला । Dec 27 2018 4:55PM

सी.एच. शीतलवाड के शब्दों में ''''किन्तु नंगी सच्चाई को यह कर छिपाना व्यर्थ है कि परिस्थितिजन्य मजबूरियों ने भारत का विभाजन स्वीकार करने के लिए कांग्रेस को विवश कर दिया तथा कांग्रेसियों को अपरिहार्य कारणों के समर्पण करना पड़ा था।

खबर है कि कांग्रेस के नेतागण ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ कहने को तैयार नहीं हैं। इस पक्ष में वे तरह-तरह के तर्क दे रहे हैं, किन्तु असली वजह नहीं बता रहे हैं। वे ऐसा कह ही नहीं सकते और नहीं कहने की असली वजह भी बता नहीं सकते हैं। क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण वास्तव में कांग्रेस की सियासत और उसकी सियासी जरूरत के इन्तजाम और सत्ता-लोलुपता का दुष्परिणाम है। पाकिस्तान का जन्म अंग्रेजों की सदैव हस्तक रही कांग्रेस की मुस्लिम-परस्त राजनीति और ब्रिटिश शासन की साम्राज्यवादी कूटनीति के संयोग से हुआ, यह एक ऐतिहासिक सत्य है। किन्तु कांग्रेस के मुस्लिम-तुष्टिकरणवादी खलिफात (खिलाफत) आन्दोलन तथा चुनाव-विषयक मुस्लिम-आरक्षण जैसे निहायत साम्प्रदायिक मामलों के कभी घोर विरोधी रहे और बाद में विभिन्न कांग्रेसी कारनामों से विवश व विक्षुब्ध हो कर विघटनकारी मुस्लिम लीग की वकालत करने वाले बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना ने सन १९४५ में ही ‘पाकिस्तान पृथक राज्य’ की मांग वापस ले ली थी; जबकि कांग्रेस उससे पहले ही उसकी रुप-रेखा तैयार कर उसे मद्रास विधान-सभा में स्वीकृत-पारित भी कर चुकी थी; यह भी एक तथ्य है, जो कम लोग ही जानते हैं, क्योंकि इसे जानने ही नहीं दिया गया है।

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मालूम हो कि ब्रिटिश शासन द्वारा सत्ता-हस्तान्तरण के बाबत सन् १९४५ में भेजी गई ‘कैबिनेट मिशन-योजना’ को स्वीकार कर मोहम्मद अली जिन्ना व लियाकत अली ने मुस्लिम लीग की बैठक में पाकिस्तान की मांग त्याग देने का प्रस्ताव पारित कर दिया था और सार्वजनिक रुप से यह घोषणा कर दी थी कि “लीग ने ‘कैबिनेट मिशन योजना’ स्वीकार कर के प्रस्तावित सम्प्रभुता-सम्पन्न पृथक राज्य- पाकिस्तान का बलिदान कर दिया है।'' किन्तु, ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि जिन्ना के नेतृत्व में लीगी नेतागण जब कैबिनेट मिशन प्रस्ताव स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग छोड़ दिए थे, तब नेहरु के नेतृत्व में कांग्रेस उसकी प्रतिक्रिया में आकर उस प्रस्ताव को अस्वीकृत करते हुए स्वयं आगे बढ़ कर लीग को पाकिस्तान दे देने की वकालत करने लगी थी। ‘पार्टिशन ऑफ इण्डिया–लिजेण्ड एण्ड रियलिटी’ नामक पुस्तक में इतिहासकार लेखक एच० एम० सिरचई ने लिखा हुआ है- ''यह बात प्रामाणिक रुप से स्पष्ट है कि वह कांग्रेस ही थी, जो देश-विभाजन चाहती थी, जबकि जिन्ना तो देश-विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने उसे द्वितीय वरीयता के रुप में स्वीकार किया।” महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने भी अपनी पुस्तक ‘ऐट लाइव्स’ में लिखा है- “पाकिस्तान जिन्ना का अपरिवर्तनीय लक्ष्य नहीं था और कांग्रेस यदि कैबिनेट मिशन योजना अपना लेती तो पाकिस्तान का न तो अस्तित्व कायम होता और न ही इसकी जरुरत पड़ती।”


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इतिहासकार सी.एच. शीतलवाड के शब्दों में ''किन्तु नंगी सच्चाई को यह कर छिपाना व्यर्थ है कि परिस्थितिजन्य मजबूरियों ने भारत का विभाजन स्वीकार करने के लिए कांग्रेस को विवश कर दिया तथा कांग्रेसियों को अपरिहार्य कारणों के समर्पण करना पड़ा था। सच तो यह है कि वे परिस्थितियां कांग्रेस द्वारा ही निर्मित की गई थीं। जिस मांग को एक बार वापस लिया जा चुका था, उसे कांग्रेस के कारनामों ने ही अपरिहार्य बना दिया था। हृदय में संजोया हुआ संयुक्त भारत ...अखण्ड भारत का वरदान कांग्रेस की गोद में आ पड़ा था, किन्तु कांग्रेसियों ने अपनी राजनीतिक स्वार्थपरता व बुद्धिहीनता के कारण उसे अपनी पहुंच से दूर फेंक दिया। लीग ने कैबिनेट मिशन योजना स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग का परित्याग कर दिया था, किन्तु कांग्रेस ने समस्या (पृथकतावाद) को हमेशा के लिए समाप्त करने का अवसर ही खो दिया।” उस कांग्रेस के नेता-नियन्ता उन दिनों जवाहर लाल नेहरु हुआ करते थे, जिनका परनाती वर्तमान कांग्रेस का अध्यक्ष है, जिसे चुनावी वैतरनी ‘पार’ कराने के लिए इसकी जनसभाओं में इन दिनों कांग्रेसियों द्वारा ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ का नारा लगाए जा रहे हैं और इस ‘पप्पू’ की पालकी ढोने वाला कोई भी कांग्रेसी सार्वजनिक तौर पर ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ कहने को तैयार नहीं हो रहा है।

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पाकिस्तान दरअसल उन दिनों की उस कांग्रेस के अधिपति जवाहरलाल की सियासी जरुरतों की प्राथमिकता में शामिल था, जिसके बाबत स्वयं नेहरु ने ही अपने अहमदनगर किला कारावास के दौरान (सन् १९४२-४५) अपनी डायरी में लिखा भी है कि “मैं सहज वृति से ऐसा सोचता हूं कि यदि हम चाहते हैं कि जिन्ना को भारतीय राजनीति से दूर रखना है तथा भारत की राजनीति में उसके हस्तक्षेप से बचना है तो हमें पाकिस्तान अथवा ऐसी किसी भी चीज को स्वीकार कर ही लेना बेहतर होगा।'' स्पष्ट है कि राजमोहन गांधी के शब्दों में जो प्रस्तावित पाकिस्तान जिन्ना के लिए द्वितीय वरीयता का विषय था, वह नेहरु के शब्दों में ही नेहरु के लिए उनकी प्राथमिक आवश्यकता में शामिल था। ऐसा इस कारण क्योंकि वे अपना राजनीतिक मार्ग निष्कण्टक बनाना चाहते थे, स्वयं प्रधानमंत्री बनने के निमित्त अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी-जिन्ना को पाकिस्तान दे कर सदा-सदा के लिए भारत की राजनीति से दूर कर देना चाहते थे। यह वही दौर था जब महात्मा गांधी यह कहा करते थे कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा और विभाजन टालने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो जिन्ना को प्रधान मंत्री बना दिया जाएगा। इसी कारण जिन्ना के हाथों मुर्दा हो चुकी पाकिस्तान की मांग को नेहरु ने जिन्दा किये रखा। अर्थात् जिन्ना द्वारा पृथक राज्य की मांग को दफना देने, या यों कहिए कि ‘पाकिस्तान- मुर्दाबाद' कर दिए जाने के बावजूद नेहरु विभाजन की मांग को दफन होने से रोकने और ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ करने के प्रति लीगियों से भी ज्यादा आग्रही बने रहे।

फिर जिन्ना की विवशता व नेहरु की आवश्यकता एवं माउण्ट बैटन की कुटिलता के त्रिकोणीय तिकड़म से अन्ततः पाकिस्तान जब अस्तित्व में आ गया, तब उस हेतु जिस मुस्लिम आबादी का इस्तेमाल किया गया उसे पाकिस्तान जाने-भेजने से रोकते हुए नेहरु ने ही उसे भारत में बनाए रखा। मालूम हो कि मुस्लिम लीग ने विभाजन के साथ ही जनसंख्या की अदला-बदली का प्रस्ताव भी ब्रिटिश वायसराय माउण्टबैटन के समक्ष रखा था और कांग्रेस के मौलाना आजाद ने भी कहा था कि कांग्रेस को जनसंख्या की अदला-बदली का प्रस्ताव मान लेना चाहिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश व बिहार के अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान के सबसे बडे समर्थक रहे हैं। किन्तु कांग्रेस में वह नेहरु ही थे, जिन्होंने आबादी की अदला-बदली के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया और पाकिस्तान-समर्थक उस आबादी को कांग्रेस के स्थायी वोटबैंक में तब्दील कर देने की अपनी गुप्त राजनीतिक मंशा के तहत उसके तुष्टिकरण की योजना को सरकारी नीति का एक अंग बना दिया।

यहां इतिहासकार-लेखक शिवा राव की पुस्तक ‘इण्डियाज फ्रीडम मूवमेण्ट’ का यह अंश गौरतलब है कि ''उन इलाकों को भारत से अलग कर पाकिस्तान को आकार प्रदान किया गया, जहां की मुस्लिम आबादी ने विभाजन के प्रस्ताव का लगातार विरोध किया था और विरोध की वह भावना जिन्ना द्वारा ही विकसित की गई थी, जो अपने जीवन के अंतिम दशक को छोड़ कर अपने समय के किसी भी कांग्रेसी की अपेक्षा अधिक राष्ट्रवादी था।” जाहिर है, पाकिस्तान-समर्थक आबादी को नेहरु-कांग्रेस ने अपनी भावी आवश्यकता के हिसाब से भारत में ही रोके रखा और बाद में उसे अपने वोट-बैंक में तब्दील कर दिया। ऐसे में अपने पाक-प्रेम के इस नापाक मर्म से ग्रसित कांग्रेस के नेता-नियन्ता-नेहरु से ले कर उनकी बेटी इन्दिरा व नाती राजीव तक किसी ने भी पाकिस्तान-मुर्दाबाद कभी नहीं कहा, तब यह परनाती और इसकी पालकी ढोने वाली कांग्रेसी मण्डली का कोई भी ढोलची-तबलची ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा कैसे लगा सकता है ?

दरअसल, पाकिस्तान की वकालत से ही सन् १९४७ में नेहरु-कांग्रेस को सत्ता हासिल हो सकी थी और पाकिस्तान-समर्थक आबादी सदैव इसका वोट-बैंक बनी रही, इस कारण पाकिस्तान से कांग्रेस का प्रेम स्वाभाविक है, जो विभिन्न मौकों पर विविध रुपों में परिलक्षित भी होता रहा है। भारत पर चार-चार बार सैन्य आक्रमण कर चुके होने तथा आतंकी घुसपैठ के जरिये हमारे विरुद्ध लगातार छद्म-युद्ध जारी रखने के बावजूद उसे आज तक ‘शत्रु-देश’ घोषित नहीं किये जाने और प्रायः हर युद्ध में भारतीय सेना के पराक्रम से फतह की गई उसकी भूमि कांग्रेसी सरकार द्वारा उसे लौटा दिए जाते रहने की बेतुकी भारतीय विदेश-नीति का कारण भी यही है।

-मनोज ज्वाला

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