राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर कांग्रेस ने एक बड़े मौके को गंवा दिया

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संतोष पाठक । Jan 12 2024 1:11PM

अब यह कहा जाने लगा है कि राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर कांग्रेस ने एक बड़े मौके को गंवा दिया है। देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी के दौर की शुरुआत होने के बाद से ही लगातार अल्पसंख्यकवाद और तुष्टिकरण की राजनीति पीछे होती जा रही है।

देश के पूर्व प्रधानमंत्री और जीवन भर कांग्रेस में रहने वाले पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था कि, "हम बीजेपी से लड़ सकते हैं लेकिन भगवान राम से कैसे लड़ सकते हैं?" लेकिन ऐसा लगता है कि श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के आमंत्रण को ठुकरा कर कांग्रेस ने कुछ ऐसी ही गलती कर दी है। कांग्रेस ने राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में नहीं जाने के अपने फैसले को सही ठहराने के लिए चाहे जो भी तर्क दिए हों या आने वाले दिनों में पार्टी के नेता चाहे जो भी तर्क दें, एक बात तो शीशे की तरह साफ है कि देश का बहुसंख्यक हिंदू जनमानस उसे स्वीकार नहीं करेगा। 

दरअसल, आजादी के पहले से ही कांग्रेस बहुसंख्यक समाज यानी हिंदुओं के हितों को लेकर थोड़ी कंफ्यूज रही है। देश के विभाजन और भारत की आजादी के बाद भी कांग्रेस के अंदर यह कंफ्यूजन बरकरार रहा। उस जमाने में भी कांग्रेस के ज्यादातर नेता हिंदुओं के हितैषी थे और धर्म के आधार पर हुए देश के विभाजन के बाद मुस्लिमों को किसी भी सूरत में रियायत देने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु होने के बाद कांग्रेस में ऐसी सोच रखने वाले नेता किनारे होते चले गए और कांग्रेस धीरे-धीरे मुस्लिमों के पक्ष में पूरी तरह से झुकती चली गई।

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कांग्रेस की छवि देश में किस हद तक मुस्लिम परस्त पार्टी की बन गई, इसका अंदाजा कांग्रेस के अपने वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री एके एंटनी की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी से बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्षा सोनिया गांधी ने हार के कारणों का विश्लेषण करने के लिए एके एंटनी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने यह माना था कि देश के अधिकांश हिंदुओं ने कांग्रेस को मुस्लिमों की पार्टी मान कर वोट नहीं किया।

हालांकि इसके बाद कांग्रेस ने फिर से सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ लौटने का प्रयास भी किया। गुजरात में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ लौटकर भाजपा को जबरदस्त टक्कर दी और उस चुनाव में भाजपा बहुत ही मुश्किल से अपनी सरकार बचा पाई थी लेकिन इसके बाद कांग्रेस फिर से अपने उसी पुराने ढर्रे पर लौट गई।

कांग्रेस की दुविधा लगातार बढ़ती जा रही है। जिस कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और कमलनाथ अपने-अपने राज्य में भगवान राम को सर-माथे लगाकर भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति को काटने का प्रयास करते रहे हैं और कमलनाथ तो आज भी अपने प्रयास में जुटे हुए है उसी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने के निमंत्रण को ठुकरा दिया है। 

अब यह कहा जाने लगा है कि राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर कांग्रेस ने एक बड़े मौके को गंवा दिया है। देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी के दौर की शुरुआत होने के बाद से ही लगातार अल्पसंख्यकवाद और तुष्टिकरण की राजनीति पीछे होती जा रही है और कांग्रेस भी इसी बखूबी समझ रही है। कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं को इस बात का अहसास है कि अब देश के बहुसंख्यक समाज हिंदुओं को साथ लिए बिना सिर्फ अल्पसंख्यकों की राजनीति करके भाजपा को हराना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुकिन भी है। वास्तव में राम मंदिर का यह कार्यक्रम कांग्रेस के लिए एक बड़ा मौका था जब वह एक नई राजनीति की शुरुआत करते हुए देश के बहुसंख्यक समाज को यह भरोसा दिला सकती थी कि कांग्रेस अब बिना किसी भेदभाव के सबको साथ लेकर आगे चलने को तैयार है लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस ने इस बड़े मौके को गंवा दिया है और अब अपने राजनीतिक स्टाइल के मुताबिक भाजपा आक्रामक प्रचार अभियान के जरिए कांग्रेस को हर स्तर पर घेरने और बेनकाब करने की कोशिश करेगी जिसका सामना कर पाना या जवाब दे पाना कांग्रेस नेताओं के लिए आसान नहीं होगा। देश के राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों को साधने का प्रयास कर रही कांग्रेस की हालत अंत में 'न माया मिली न राम वाली' हो सकती है।

-संतोष पाठक

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।

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