जबरन नहीं स्वतः निकले ''भारत माता की जय''

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में कहा था कि किसी को भारत माता की जय बोलने के लिए विवश नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि ऐसा माहौल तैयार किया जाना चाहिए, जिससे लोग खुद यह बोलें। हालाँकि, यह भी एक विडम्बना ही है कि इस पूरे मामले में हालिया विवाद मोहन भागवत के बयान के बाद ही शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने इस बात पर अफ़सोस जताया था कि 'आज की युवा पीढ़ी को भारत माता की जय बोलना भी सिखाना पड़ता है' हालाँकि, उनका बयान एक सामान्य बुजुर्ग जैसा ही था जो बच्चों को अच्छी आदतें सिखाना चाहता है, किन्तु उनके बयान के बाद बैटिंग करने वालों ने इस मुद्दे को गलत तरीके से तूल दिया और इस कदर तूल दिया कि खुद मोहन भागवत को ही इससे पीछे हटना पड़ा। आखिर कोई भी समझदार व्यक्ति देश को इन मुद्दों पर कैसे उलझा सकता है?
इस मुद्दे का हालिया प्रभाव श्रीनगर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) में नजर आया, जहाँ 31 मार्च से कश्मीरी और ग़ैरकश्मीरी छात्रों के बीच तनाव बना हुआ है। हालाँकि, इसके पीछे तमाम दूसरी वजहें एवं विघटनकारी शक्तियों का प्रकोप भी है, लेकिन सच तो यही है कि इस मुद्दे को लेकर राजनीति करने का 'गैप' छोड़ा गया है। व्यक्तिगत रूप से मुझे कतई नहीं लगता है कि 'भारत माता की जय' के मुद्दे को तूल देकर हम देशभक्तों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर सके हैं, बल्कि इसके विपरीत नरेंद्र मोदी के विकास के अजेंडे को कहीं बड़ा झटका ही लगा है। सहिष्णुता-असहिष्णुता के बाद इस मुद्दे को सर्वाधिक चर्चा मिली है और ये बहस जैसे ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है।
इसी कड़ी में, दारुल उलूम के मुफ़्तियों का फतवा सामने आया है जिसके मुताबिक ये कहा गया कि 'भारत माता की जय' बोलना इस्लाम के खिलाफ है, हालांकि दारुल उलूम से चले ऐसे फतवे पर इस्लामी दुनिया में ही सवाल खड़े होने लगे हैं। पहले भी जब असदुद्दीन ओवैसी ने बयान दिया था तब जावेद अख़्तर और कई दूसरे लोग उसके ख़िलाफ़ खड़े हो गए थे इस बार भी इस फतवे पर सवाल उठ रहे हैं। इस पूरे मुद्दे पर बीच की लाइन को गौर से देखना आवश्यक है। दारुल उलूम का कहना है कि ये नारा उनके लिए जायज़ नहीं है। हालांकि उनका साफ़ कहना है कि वो एक मज़बूत भारत और भारतीयता के हिमायती हैं लेकिन वो जिस तरह 'वंदे मातरम' नहीं बोल सकते उसी तरह 'भारत माता' की जय भी नहीं बोल सकते। इसके पीछे उन्होंने तमाम इस्लामी विद्वानों, मौलवियों के हवाले से तर्क भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है। दारुल उलूम का मानना है कि 'इंसान ही इंसान को जन्म दे सकता है, धरती मां कैसे हो सकती है?
आखिर, देशभक्ति जबरदस्ती की चीज़ क्यों बनाई जा रही है? अगर देशभक्ति दिखानी है तो जुबान से नहीं अपने कर्म से दिखाओ। भारत माता का बार-बार नाम लेकर हम न भारत माता का सम्मान बढ़ाते हैं न भारत की शक्ति। फिर खोखली नारेबाजी से क्या फायदा? देश की जनता बखूबी देख रही है कि पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान के आईएसआई अफसरों को कैसे देश में घुसाकर भारतीय प्रतिष्ठान को नीचा दिखाया गया। वह तो शुक्र है कि इस देश में विपक्ष के भीतर दम नहीं है, अन्यथा वह पठानकोट और पाकिस्तानी जेआईटी के मामले पर केंद्र और भाजपा की नाक में नकेल कस देते। किन्तु, भारत माता की जय बोलने का दिखावा करने वालों को यह नहीं समझना चाहिए कि देश की जनता को 'पठानकोट जैसे मामलों' की खबर या समझ ही नहीं है।
जहाँ तक प्रश्न है भारत माता का तो हमें जरूरत है इस विषय में गहराई से सोचने और समझने की। आखिर, भारत माता एक आदर्श भारत की कल्पना ही तो है, एक ऐसे सुन्दर देश की, जिसमें कोई दुःख-तकलीफ, झगड़े-विवाद न हों, सबके पास रोजगार हो, कोई भोजन और जल के अभाव में न मरे। साफ़ है कि जब सामाजिक गैर बराबरी दूर होगी तो ऐसी 'माता तुल्य धरती' के लिए हर किसी के मुंह से जय निकलेगी, किसी से जबरन निकलवाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आज देश के 30 प्रतिशत भूभाग पर नक्सलवाद फ़ैल चुका है, क्या उसके बारे में हम चिंतित हैं? कारण चाहे जो भी हो, किन्तु तथ्य यही है कि हमें सामाजिक, राजनीतिक रूप से अभी काफी लम्बा सफर तय करना है और इसके बगैर सिर्फ मुंह से 'भारत माता की जय' कहलवाने का कोई अर्थ भी है या नहीं, यह स्वयं ही विचार करने योग्य प्रश्न है।
कभी कभी ऐसा लगता है कि समाज के बहुत बड़े तबके को "भारत माता की जय" नामक शस्त्र के सहारे उकसाया जा रहा है, जिसके पीछे तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ है। इसी पूरे वाकये को लेकर एक चुने हुए जनप्रतिनिधि को एक राज्य की विधानसभा से सिर्फ इसलिए निलंबित कर दिया गया कि वह शख्स भारत माता की जय नहीं बोलना चाहता लेकिन वह 'जय हिन्द' बोल रहा है, लेकिन जय हिन्द से काम कहाँ चलने वाला, आपको तो "भारत माता की जय" ही बोलना पड़ेगा, क्योंकि हम ऐसा चाहते हैं। ये कैसी देशभक्ति है, ऐसी खतरनाक देशभक्ति से समाज का क्या हाल होगा, यह विचारणीय प्रश्न हैं। एक तरफ असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग मुसलमानों को भड़काते हैं तो दूसरी ओर बाबा रामदेव और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री कहते हैं कि भारत माता की जय नहीं बोलने वालों का गला काट देंगे या उसे इस देश में रहने नहीं देंगे। आखिर, इस तरह की चर्चा से हम क्या हासिल कर पा रहे हैं, सिवाय देश को पीछे धकेलने के, यह बात हर एक को समझनी चाहिए।
अभी हमारे प्रधानमंत्री ने सऊदी अरब जैसे कट्टर मुस्लिम राष्ट्र की यात्रा की और वहां उनकी मौजूदगी में मुस्लिम महिलाओं एवं पुरुषों ने "भारत माता की जय" के नारे लगाए, इसके लिए उन्हें बाध्य नहीं किया गया, बल्कि यह राष्ट्रगौरव स्वतः ही उनके भीतर उत्पन्न हुआ। भारत के भी आधे से अधिक मुसलमान यह मानने लगे हैं कि वह विश्व के अन्य मुसलमानों से सुखी और आज़ाद हैं, जो विश्व के अन्य मुसलमानों को नसीब नहीं है। साफ़ है कि इस तरह के विवादों से न प्रत्यक्ष रूप में कोई फायदा है और न ही विचारधारा के स्तर पर ही कोई बड़ा बदलाव किया जा सकता है, क्योंकि देश का बहुसंख्यक हिन्दू अपेक्षाकृत इस तरह के मुद्दों को नापसंद ही करता है।
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