काश! नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद को गले नहीं लगाया होता
काश! सुशासन की राजनीति के अलम्बरदार नीतीश कुमार की सत्ता की भूख ने लालू प्रसाद यादव को गले न लगाया होता। न लालू प्रसाद यादव के दोनो बेटे सत्ता का स्वाद चख पाते और न ही उनकी राजनीतिक ताकत अक्ष्क्षुण हो पाती।
देश के संविधान निर्माताओं ने शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सरकार चलाने के लिये बहुमत की अनिवार्यता कालांतर में लोकतंत्र के लिये नासूर बन जायेगी। इसी अनिवार्यता के चलते केन्द्र से लेकर राज्यों में भ्रष्टाचार की नित नई-नई इबारतें लिखी जाने लगीं। जिन्हें सरकारें चलानी थीं और जिन्ह सरकारें चलवानी थीं, के परस्पर स्वार्थों ने भ्रष्टाचार की सभी सीमायें लांघ डालीं। नतीजतन शुचिता व समर्पण की राजनीति येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ सत्ता के दोहन का पर्याय बन गई। हद तो यह देखिए कि शनै:-शनै: यह संक्रामक रोग जिला पंचायतों, ग्राम पंचायतों, ग्राम सभाओं तक फैलता चला गया।
सत्ता से उपजी भ्रष्टाचार की गंगोत्री से कितने फट्टेबाज/फटेहाल देखते ही देखते अकूत धन दौलत के मालिक बन बैठे। आज देश में ऐसे लोगों की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि उसे लिख पाना भी आसान नहीं रह गया। आज जिस राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे पूरे परिवार पर सीबीआई का शिकंजा कस चुका है और जिस तरह ईडी की इनकी बेनामी सम्पत्तियों पर पैनी निगाहें लगी हुई हैं उनसे बच पाना शायद ही संभव हो। उनका पारिवारिक इतिहास क्या रहा है शायद ही किसी को बताने की जरूरत हो। करोड़ों के चारा घोटाले में गर्दन फंसने के बाद सत्ता की राजनीति से दूर रहने की बेबसी उनका बाल भी बांका भी नहीं कर पाई क्योंकि सत्ता की चाबी उनके हाथ से उनकी धर्मपत्नी के हाथ में आ गई।
काश! स्वच्छ व सुशासन की राजनीति के अलम्बरदार जदयू के नीतीश कुमार की सत्ता की भूख ने लालू प्रसाद यादव को गले न लगाया होता। न लालू प्रसाद यादव के दोनो बेटे सत्ता का स्वाद चख पाते और न ही उनकी राजनीतिक ताकत अक्ष्क्षुण हो पाती और न ही आज नीतीश कुमार पर भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोपों के छींटे पड़ते। कल क्या होगा यह तो कोई नहीं जानता पर जैसे आसार दिख रहे हैं लालू व नीतीश दोनों का भविष्य खतरे में है।
लोकतंत्र के लुटेरों ने देश की गाढ़ी कमाई को जिस बेरहमी से लूटा है उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। ऐसे ही लुटेरों की जमात ने ऐसा मजबूत संजाल बुना जिसे निर्वाचन आयोग न तोड़ सका। जिस न्याय पालिका से काफी उम्मीदें थीं मानो वे भी इनके सामने असहाय सिद्ध हुई। कई बार तमाम जांच एजेन्सियों के खुलकर दुरूपयोग के मामलों ने भ्रष्टाचारियों को उन पर उंगुली उठाने का सहज मौका दे दिया। गोलबंद भ्रष्टाचारियों की चीखने चिल्लाने से कई बार जनता इन्हें निर्दोष व पीड़ित मानकर सत्ता की बागडोर सौंपती रही है।
काश! अव्वल तो जनता ने भ्रष्ट नेताओं को गर्त में डुबोने का काम किया होता अन्यथा देश की न्यायपालिका ने इन्हें तय समय में दण्डित कर घर बैठने को मजबूर कर दिया होता। इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि जब भ्रष्ट नेताओं व भ्रष्ट नौकरशाहों की जुगलबंदी परवान चढ़ने लगी तो भ्रष्टाचार की सारी सीमायें भी टूट गईं। ऐसा भी नहीं है कि भ्रष्ट नेताओं को सजा नहीं मिली। ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट नौकरशाह जेल की सींखचों में कैद नहीं किये गये पर इनका अनुपात इतना कम रहा कि इनसे भ्रष्ट नेताओं व नौकरशाहों में सिहरन तक पैदा नहीं हुई।
नि:संदेह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खांटी ईमानदारी व उनकी सरकार की शुचिता से देश के आमजन को आस है कि अब जनता की गाढ़ी कमाई लूटने वालों का अंत होकर ही रहेगा। ऐसे में भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे नेताओं की जमात को सरकार पर प्रताड़ित करने व निपटने की चुनौती देने व अपने को ईमानदार बताने का स्वांग छोड़कर जांच का स्वागत व सामना करना चाहिये। और बेहतर होगा कि वे निर्दोष सिद्ध होने तक यदि किसी लाभ के पद पर हों तो उसे तत्काल त्याग देना चाहिये।
- शिव शरण त्रिपाठी
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