गणतंत्रीय व्यवस्थाओं और संविधान की मूल भावनाओं से लोग परिचित ही नहीं हैं

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सवाल यह है भी है कि क्या वाकई हमारा संविधान हर आदमी के लिए समझने और पढ़ने को मिलना चाहिए ? क्या भारतीयों के लोकजीवन में राष्ट्रीय तत्वभावना का अभाव इसलिए भी है कि हमें अपने संविधान की बुनियादी तालीम से वंचित रखा गया है।

पिछले कई दिनों से देश भर में हम संविधान की किताब हाथ में लेकर लोगों को नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करते हुए देख रहे है। इस विरोध प्रदर्शन का बुनियादी पहलू यह बताया जा रहा है कि मौजूदा केंद्रीय सरकार भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाह रही है। सीएए इसी दिशा में उठाया गया कदम है। जबकि भारत का संविधान तो एक सेक्यूलर राष्ट्र बनाने की गारंटी देता है। हाथों में संविधान की किताब उठाये भीड़ और उसके नेतृत्वकर्ता असल में संविधान की विकृत चुनावी व्याख्या से उपजा एक संत्रास है। सवाल यह है कि क्या संविधान की पवित्रता की दुहाई देने वाले आंदोलनकारियों ने इसे पढ़ा है ? इसकी मूल भावनाओं को वे समझते हैं या सिर्फ उतना ही जानते हैं जितना नेताओं ने अपने चुनावी गणित के लिहाज से वोटरों में तब्दील हो चुके नागरिकों को बताया है। सच यह है कि आज भारत के लगभग 95 फीसदी लोग अपने संविधान की बुनियादी बातों से परिचित नहीं हैं। सिवाय इसके की कि हमें संविधान से ऐसे जन्मजात अधिकार मिले हैं जो घूमने, बोलने, खाने, इबादत करने, व्यापार करने, सरकार के विरुद्ध खड़े होने और सरकारी योजनाओं में हकदारी दावा करने की उन्मुक्तता देते हैं। इस एकपक्षीय धारणा ने भारत में एक आत्मकेंद्रित फ़ौज पीढ़ी दर पीढ़ी खड़ा करने का काम किया है।

सवाल यह है भी है कि क्या वाकई हमारा संविधान हर आदमी के लिए समझने और पढ़ने को मिलना चाहिए ? क्या भारतीयों के लोकजीवन में राष्ट्रीय तत्वभावना का अभाव इसलिए भी है कि हमें अपने संविधान की बुनियादी तालीम से वंचित रखा गया है। संविधान की किताब खरीदने के लिए हम जाते हैं तो दुकानदार यह पूछता है कि किस लेखक की ? डीडी बसु या जेएन पांडे ? या कोई और। असल में यही समस्या की जड़ है। क्या भारत के संविधान को इन्हीं लेखकों ने बनाया था ? भारत के लोग अगर संविधान की पुस्तक को खरीदना चाहते हैं तो उन्हें उस मूल पुस्तक का विकल्प क्यों उपलब्ध नहीं है, जो हमारे पूर्वजों ने लिखी है। तथ्य यह है कि उस मूल पुस्तक की सामान्य जन उपलब्धता हमारे महान सेनानियों की समझ, भविष्य दृष्टि और परिकल्पनाओं को पीढ़ीगत रूप से हस्तांतरित कर सकती है। लेकिन आज गणतंत्र के 70 साल गुजर जाने पर भी हम अपनी ही गणतंत्रीय व्यवस्थाओं, प्रावधान और मूल भावनाओं से परिचित तक नहीं है। जिन चुनावी नेताओं की खुद की समझ संदिग्ध है वे कैसे लाखों लोगों को संविधान की व्याख्या प्रस्तुत कर अक्सर सड़कों पर उतार देते हैं।

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आज ईमानदारी से हम एक मुफ्तखोर और गैर जवाबदेह समाज के निर्माण पर चल निकले हैं। जो अंततः भारत के महान संविधान की कतिपय विफलता की कहानी लिखेगा। संविधान सभा में खुद डॉ. बीआर अंबेडकर ने कहा था कि अगर संविधान विफल होता है तो यह आने वाली पीढ़ियों की नाकामी होगी। हम नागरिक प्रशासन, जिम्मेदार नागरिक समाज और समावेशी विकास के पैमानों पर विफल रहे हैं तो यह गणतंत्र के रूप में उस वचनबद्धता की असफलता भी है जिसे 26 जनवरी 1950 के दिन हमने आत्मसात किया था। सच्चाई आज बहुत चेताने वाली है भारत में एक बड़ा नागरिक वर्ग अपने ही संविधान के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है। उसकी समझ पर उठते सवाल असल में उस नीयत की तरफ भी इशारा करते हैं जो संगठित रूप से भारत के विरुद्ध भी है। इस समय नागरिकता संशोधन कानून पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। क्या यह कानून संविधान सम्मत नहीं है ? यदि नहीं है तो देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अभी तक स्थगित क्यों नहीं किया ? क्या संघीय व्यवस्था में राज्य सरकारों को केंद्रीय सूची के कानूनों पर निर्णय के अधिकार हैं ?

देश भर में कहीं भी पूछ लीजिये आपको विरले ही लोग मिलेंगे जो इनके विधिसम्मत जवाब दे पायें। इसका मतलब यह कि 1950 से आरम्भ गणतंत्रीय यात्रा 2020 तक भी अपने नागरिकों को गणतंत्रीय अक्षर ज्ञान नहीं दे पाई। संविधान की किताब हाथ में लेकर भारत की रेलगाड़ियों, बसों, इमारतों, सरकारी संपत्ति को भीड़ इसलिये आग लगा देती है क्योंकि संविधान ने उन्हें इसकी आजादी दी है। कोई चन्द्रशेखर रावण, ओवैसी, मायावती, कन्हैया कुमार, शहला रशीद, स्वरा भास्कर, दीपिका पादुकोण, शत्रुघ्न सिन्हा, रोमिला थापर, रामचन्द्र गुहा, जावेद अख्तर जैसे लोग उन्हें यही बताते हैं कि आंदोलन करना और आजादी मांगने का यही रास्ता संविधान सम्मत है।

अब सवाल यह है कि भारत में इस कथित संवैधानिक निरक्षरता से भविष्य की क्या तस्वीर खड़ी होने जा रही है ? क्या भारत सिर्फ चुनावी रास्तों से सत्ता हथियाने का एक टापू बन जाएगा ? क्योंकि लोग संविधान नहीं भारत के उन नेताओं के पीछे खड़े हैं जो सत्ता जाने या उसे हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर आमादा है। एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि जो सीएए में लिखा है उसे मत पढ़िए जो नहीं लिखा है आप उसे समझिये जो मैं समझा रहा हूं। लोग देश भर में इस तरह की दलीलों पर नेताओं के पीछे खड़े हो जाते हैं। एक झूठ को संविधान की किताब के जरिये भारत के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाता है। कितना अजीब है कि संविधान की किताब और बाबा साहब की तस्वीर को मूल संविधान की आत्मा के विरुद्ध इस हद तक उपयोग लाया जा रहा है कि एक तरह की वर्गीय चेतना भारत गणराज्य के विरुद्ध खड़ी हो जाए।

अब हम मूल बात पर लौटते हैं। क्या भारत के संविधान में वाकई हिन्दू मूल्यों और मानबिन्दुओं से इतनी प्रतिक्रियात्मक दूरी बनाई थी हमारे पूर्वजों ने ? मूल संविधान तो सेक्यूलर था ही नहीं। 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष और समाजवादी अवधारणाओं को जोड़ा। यानी आजादी के संघर्ष के साक्षी जिन पूर्वजों ने इसे बनाया उन्हें भारत में आज के प्रचलित सेक्यूलर प्रावधान की आवश्यकता महसूस ही नहीं हुई। असल में 1977 से भारत की स्वाभाविक शासक पार्टी से यह तमगा छिनने की राजनीतिक शुरुआत हुई और यही वह दौर था जहां से भारत के संसदीय लोकतंत्र ने सेक्यूलर राह पकड़ी। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की विभाजन रेखा ने नए मतदान व्यवहार को जन्म दिया। अब संविधान अपनी मौलिक जड़ों से दूर चुनाव तंत्र पर अवलंबित होता गया। हिन्दू मानबिन्दुओं की कीमत पर अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमान क़ौम की पहचान को इतनी ताकत से संपुष्टि दी गई कि सेक्यूलर शब्द मुस्लिम तुष्टीकरण के पर्यायवाची के रूप में स्थापित हो गया। हिन्दू राष्ट्र का खतरा दिखाने वालों को शायद पता नहीं है कि जिस किताब को लेकर वे सड़कों पर निकलते हैं उसकी मूल प्रति में नन्दलाल बोस की कूची से बने हनुमान, कृष्ण, शिवाजी, लक्ष्मीबाई भी हैं और रामलला भी। गुरु गोविंद सिंह भी हैं। अकबर की मौजूदगी इसलिये है क्योंकि उसने हिंदुओं को प्रताड़ित नहीं बल्कि सांस्कृतिक तौर पर प्रश्रय दिया। टीपू सुल्तान भी इसलिये है क्योंकि उसने भारत के सम्मान में गोरी हुकूमत से समझौता नहीं किया। अगर गौर से देखें तो हमारा पूरा संविधान हिन्दू मान्यताओं और इसकी बुनियाद पर खड़े भारतीयता के विचार पर निर्मित है क्योंकि भारतीयता और हिंदुत्व परस्पर अवलंबित धारणा है। मूल संविधान असल में इसी युग्म की अभिव्यक्ति था। इसलिये उस पुस्तक में जोड़े गए आदर्शों पर किसी को आपत्ति नहीं हुई। अटलजी की सरकार ने इस पुस्तक की करीब ढाई हजार प्रतियां बिक्री के लिये जारी की थीं। मोदी सरकार को भी चाहिए कि वह देश भर में हमारे मूल संविधान को सार्वजनिक बिक्री की व्यवस्था करे।

-डॉ. अजय खेमरिया

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