राष्ट्रपति शब्द ठीक नहीं, राष्ट्राध्यक्ष कहें राष्ट्र के प्रमुख को

भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं। जबकि, अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है, बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष''।
भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं। जबकि, अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है, बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष'। किन्तु ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात ‘प्रेसिडेण्ट आफ नेशन’ के लिए हिन्दी में इसे तभी से ‘राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा है, जबसे हमारा देश अंग्रेजों की बुद्धिबाजी से निर्मित संविधान के द्वारा शासित-संचालित हो रहा है। अंग्रेजी में लिखित हमारे देश के संविधान में राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘प्रेसिडेण्ट’ नामक पद का प्रावधान किया गया है, जिसे संविधान के प्रभावी होने के बाद से ही हिन्दी में ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता रहा है। गौरतलब है कि हिन्दी में ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘मालिक' , ‘स्वामी’ , ‘पभु’ , ‘ईश्वर’ अथवा ‘स्त्री का विवाहित पुरुष’ होता है; जो किसी राष्ट्र के लिए न उपयुक्त है, न अपेक्षित। क्योंकि, राष्ट्र कोई वस्तु नहीं है, कोई संपत्ति नहीं है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ‘राष्ट्र-प्रमुख’ भी कोई ‘तानाशाह’ प्रभु अथवा ईश्वर नहीं है। राष्ट्र स्त्री भी नहीं है, जिसका कोई पुरुष या पति हो।
चुनावी लोकतंत्र में तो कोई स्त्री भी राष्ट्रपति बन सकती है, बनती रही है। अपने देश में जब पहली बार एक स्त्री (प्रतिभा पाटिल) राष्ट्रपति निर्वाचित हुई, तब मैंने कुछ सज्जनों को कौतूहलवश यह चर्चा करते हुए पाया था कि एक स्त्री को भला राष्ट्रपति कैसे कहा जाएगा, जबकि ‘राष्ट्रपत्नी’ नाम का तो कोई पद ही नहीं है। और, स्त्री जब राष्ट्रपति होगी, तब हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार उस राष्ट्रपति को स्त्रीलिंग माना जाएगा या पुल्लिंग? और यह भी कि अपने देश में जब ‘राष्ट्रपति’ के साथ-साथ ‘राष्ट्रपिता’ भी हैं, तो ‘राष्ट्र-पत्नी' व ‘राष्ट्रमाता’ का भी एक-एक पद सृजित कर देना चाहिए ताकि अगर कोई स्त्री ‘प्रथम नागरिक’ निर्वाचित हो जाए अथवा महात्मा गांधी के समान हो जाए, तो उसके आसन को ले कर कोई असमंजस न हो; वह ‘राष्ट्रपत्नी’ अथवा ‘राष्ट्रमाता’ ही कहलाये। तब मुझे उन सज्जनों को समझाना पड़ा था कि देश का प्रथम नागरिक स्त्री या पुरुष कोई भी हो, उसे भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ही कहा जाएगा; जबकि हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुसार पुरुष भारत ‘का’ राष्ट्रपति कहलाएगा और स्त्री भारत ‘की’ राष्ट्रपति कहलायगी। अर्थात लोकतंत्र में स्त्री भी पुरुष का (की) पति बन सकती है, क्योंकि संस्कृत-हिन्दी का ‘राष्ट्र’ शब्द पुल्लिंग है।
यह हास्यास्पद घालमेल दरअसल ‘राष्ट्र’ की पश्चिमी अवधारणा के कारण हुई प्रतीत होती है। पश्चिम का राष्ट्र असल में राजनीतिक उद्यम का भौगोलिक साधन है और राजसत्ता उसका साध्य है। जबकि भारतीय दृष्टि का राष्ट्र तो राज्य की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भावात्मक विस्तार है। यहां राजसत्ता साधन है, राष्ट्र उसका साध्य; जिसका उद्देश्य है विश्व-कल्याण। यहां राष्ट्र कोई भौगोलिक सम्पदा नहीं है, जिसका कोई मालिक, स्वामी अथवा पति हो। यह ऐसा सीमित परिवार भी नहीं है, जिसका माता-पिता अथवा पति हो; बल्कि भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना में तो समस्त विश्व-वसुधा ही एक परिवार है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, जिसका कोई व्यक्ति विशेष माता-पिता हो ही नहीं सकता। यहां राष्ट्र तो विश्व-कल्याण का एक भाव है, ध्येय है, पथ और पाथेय है, जो भौगोलिक सीमाओं से परे है। भरात में सैंकड़ों राज्यों और राजाओं के होने के बावजूद, सदियों-सदियों से सबका राष्ट्र एक ही रहा है- ‘भारतवर्ष’ । क्योंकि, राज्यों और राजाओं की विभिन्नताओं के बावजूद ‘आसेतु-हिमाचल’ एक ही संस्कृति का व्याप होने के कारण यह समस्त भू-प्रदेश एक ही राष्ट्र रहा है। यहां इस राष्ट्र-भाव के जागरण-रक्षण-पोषण के लिए वेद-विदित ‘पुरोहित’ हुआ करते हैं- ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता’ । यहां राष्ट्र एक यज्ञ है और यज्ञ एक कल्याण्कारी आयोजन है, जिसे क्रियान्वित-सम्पादित करने-कराने वाले यजमान और पुरोहित कहलाते हैं। ऐसे में इस राष्ट्र के लिए किसी पिता, पति अथवा माता, भ्राता या मालिक, ईश्वर न अभीष्ट हो सकते हैं, न अपेक्षित। वर्तमान लोकतांतिक और सांगठनिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र-प्रमुख के लिए तो सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द उपयुक्त है और वह है- ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात राष्ट्र का अध्यक्ष।
हालांकि पश्चिम में भी राष्ट्र-प्रमुख को ‘आनर’ (मालिक-पति-स्वामी) नहीं कहा जाता है, बल्कि ‘प्रेसिडेण्ट’ कहा जाता है तो शायद इसी कारण। मालूम हो कि अध्यक्ष को ही अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट कहते हैं। भारत के राष्ट्रपति को भी अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहते हैं। दुनिया के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष अंग्रेजी में प्रेसिडेण्ट ही कहे जाते हैं। इतना ही नहीं, तमाम संगठनों के प्रमुख भी अंग्रेजी में ‘प्रेसिडेण्ट’ और हिन्दी में ‘अध्यक्ष’ ही कहे जाते हैं। न कांग्रेस के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘कांग्रेस-पति’ कहलाते हैं, न भाजपा के प्रमुख अथवा प्रेसिडेण्ट ‘भाजपा-पति’ ; तो फिर राष्ट्र का प्रेसिडेण्ट ही ‘राष्ट्रपति’ क्यों कहलाए, यह समझ से परे है। संगठनों के परिप्रेक्ष्य में हालांकि उनके प्रमुख कर्यकारी के लिए कहीं-कहीं ‘सभापति’ शब्द का प्रचलन है, किन्तु इस तर्ज पर भी राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘राष्ट्रपति’ शब्द समुचित व सुसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ‘सभा’ तो स्त्रिलिंग शब्द है, जबकि ‘राष्ट्र’ पुल्लिंग है। इसी तरह से कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, आदि तमाम राजनीतिक दल, जिनके नाम के आगे ‘पार्टी’ शब्द लगा है, सो सब स्त्रीलिंग हैं; जबकि वे सभी राजनीतिक पार्टियां जिनके नाम के आगे ‘दल’ शब्द लगा है, सो सब पुल्लिंग हैं। बावजूद इसके, इनमें से किसी भी पार्टी अथवा दल का प्रमुख अपने देश में ‘पति’ नहीं कहलाता है; तो ऐसे में इन तमाम राजनीतिक संगठनों के लोगों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाना चाहिए, राष्ट्रपति कहना कहीं से भी उचित नहीं है।
यह भी गौरतलब है कि ‘पति’ शब्द से जैसा कि इसका ऊपर वर्णित अर्थ है तानाशाही और निरंकुशता का बोध होता है, जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। क्योंकि ‘पति’ नाम की संस्था अथवा सत्ता न तो चुनाव की परिणित है और न ही पसंद की अभिव्यक्ति। आम तौर पर यह परिवर्तनीय तो कतई नहीं है। किसी सम्पत्ति का ‘पति’ अथवा किसी स्त्री का ही ‘पति’ सामान्य स्थिति में पांच साल या छह साल पर न तो बदला जाता है, न ही पुनर्चयनित होता है। आम तौर पर सम्पत्तियों का पति वंशानुगत होता है, तो किसी स्त्री का पति उसका जीवन-साथी होता है। परन्तु राष्ट्र का ‘पति’ ? यह तो व्यापक निर्वाचन-प्रक्रिया के तहत चुना जाता है और एक निश्चित अवधि के अन्तराल पर बदला जाता है अथवा पुनर्चयनित होता है।
ऐसे में यह जरूरी है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के राष्ट्र-प्रमुख को ‘राष्ट्रपति’ के बजाय ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहा जाए। एक राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में ‘अध्यक्ष’ शब्द ‘पति’ की तुलना में ज्यादा गम्भीर, ज्यादा अर्थपूर्ण, ज्यादा व्यापक और ज्यादा ही उपयुक्त है। क्योंकि ‘अध्यक्ष’ शब्द में ‘व्यापक जनमत की अभिव्यक्ति’ का अनुगूंज और सार्वजनिक उद्देश्यों-हितों के व्यापक संरक्षक-संवर्द्धक का प्रतिविम्ब समाहित है। जबकि ‘पति’ शब्द में संकीर्णतापूर्ण अधिकारिता मात्र है। अध्यक्ष शब्द कर्तव्य-परायण है, किन्तु ‘पति’ शब्द अधिकार-परायण है। ‘अध्यक्ष’ शब्द प्रतिनिधित्व व नेतृत्वकारी है, जबकि ‘पति’ शब्द स्वत्व व स्वामीत्वकारी है। ऐसे में हमारे देश के नीति-नियन्ताओं को मेरे इस विनम्र सुझाव पर विचार करना चाहिए और यह बदलाव अगर सम्भव हो, तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बाद ही से निर्वाचित प्रथम नागरिक को संवैधानिक व आधिकारिक रूप से ‘राष्ट्राध्यक्ष’ कहे जाने का शुभारम्भ कर दें।
संसद-भवन को मंदिर मान उसके द्वार पर दण्ड्वत करने तथा ऐसी ही कई उत्कृष्ट परम्पराओं की शुरुआत करने वाले और अपने ‘मन की बात’ खुल कर कहने व ‘अपने मन’ की ही करने वाले देश के अभूतपूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस नई परम्परा की नींव डाल सकते हैं, यह ‘मेरे मन की’ आशा है। मैं समझता हूं कि इस बदलाव में संवैधानिक प्रावधान कहीं से भी बाधक नहीं हो सकते, क्योंकि ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द का उपयुक्त हिन्दी अनुवाद भाषा-शास्त्र का विषय है, संविधान का नहीं। बावजूद इसके, इस संवैधानिक शब्द के हिन्दी रूपान्तरण को वैधानिक मान्यता देना-दिलाना तो देश के प्रधानमंत्री का ही काम है।
- मनोज ज्वाला
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