गुजरात में राहुल मंदिर मंदिर जा रहे, पर एक भी मस्जिद नहीं गये

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय कांग्रेस−समाजवादी पार्टी के एक संयुक्त पोस्टर जिसका स्लोगन था, 'यूपी को यह साथ पसंद है' ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं। इसमें राहुल−अखिलेश साथ−साथ नजर आ रहे थे तो जमीनी हकीकत भी यही थी। दोनों ने एक साथ कई जनसभाएं और रोड शो किये थे। बाप−चाचा की नाराजगी से डरे−सहमे सपा नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जब लगा कि वह अकेले मोदी से मुकाबला नहीं कर सकते हैं तो उन्होंने राहुल गांधी के साथ प्रचार तो किया सीटों के बंटवारे में भी वह कांग्रेस पर खूब मेहरबान रहे। सौ से अधिक सीटें सपा ने कांग्रेस के लिये छोड़ दी थीं। बात यहीं तक सीमित नहीं थी, राहुल−अखिलेश की जोड़ी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बाहरी बता कर बीजेपी को पटखनी देने के लिये खूब ताल−तिकड़म भिड़ाया। मीडिया ने भी इन कोशिशों को परवान चढ़ाने में एड़ी−चोटी का जोर लगाया। इसकी वजह भी थी।
असल में बिहार में 'बाहरी बनाम बिहारी की जंग में उस समय की लालू−नीतीश और राहुल की जोड़ी ने खूब चर्चा बटोरी थी। इसका फायदा भी इन नेताओं को मिला। 2014 के आम चुनाव के बाद लगातार विजय की ओर अग्रसर मोदी के लिये दिल्ली के बाद बिहार चुनाव में मिली करारी हार किसी बुरे सपने से कम नहीं रही थी और इसकी जड़ में कहीं न कहीं बाहरी और बिहारी वाला स्लोगन भी महत्वपूर्ण था, जिसे बिहारियों की अस्मिता से जोड़ दिया गया था, लेकिन यूपी के नतीजों ने राहुल−अखिलेश की बाजी को पूरी तरह से पलट के रख दिया। राहुल और अखिलेश ने मोदी के बाहरी होने का मुद्दा तो खूब उठाया, परंतु यह दोनों नेता यूपी की जनता को यह नहीं समझा सके कि वाराणसी से सांसद और देश का प्रधानमंत्री मोदी यूपी के लिये बाहरी कैसे हो सकता है। एक तरफ राहुल−अखिलेश मोदी को बाहरी साबित करने में नाकाम रहे तो दूसरी तरफ बीजेपी ने कांग्रेस−सपा के तुष्टिकरण के एजेंडे को भी पलने बढ़ने दिया। बल्कि इसके उलट बीजेपी ने अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया। बीजेपी पर हमेशा कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति का आरोप लगता रहता था, लेकिन 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने इस पर सफाई देने की बजाये हिन्दुत्व को अपना 'हथियार' बना लिया। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का शमशान और कब्रिस्तान वाला बयान लोग आज भी भूले नहीं हैं।
मोदी टीम के प्रखर हिन्दुत्व के सामने कांग्रेस, सपा और बसपा की न तो जातिवादी राजनीति चली, न ही यह दल मुस्लिम कार्ड खेल पाये। ऐसा नहीं है कि उक्त दलों ने प्रयास नहीं किया था, कोशिश तो की और अंत तक करते रहे, लेकिन मोदी के हिन्दुत्व के आगे सपा−कांग्रेस का यह गेम प्लान टिक नहीं पाया। हिन्दुत्व के नाम पर मोदी ने दलितों, अगड़ों−पिछड़ों सबको एक छतरी के नीचे खड़ा कर दिया। बसपा, कांग्रेस और सपा से मुस्लिम वोटरों को छोड़कर करीब−करीब सभी जातियों ने किनारा कर लिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि यूपी में बीजेपी को एतिहासिक जीत हासिल हुई और गैर बीजेपी दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा।
बात कांग्रेस की। मोदी हिन्दुत्व के सहारे आम चुनाव जीतने के बाद प्रदेश दर प्रदेश जीतते जा रहे थे तो कांग्रेस का भी मुस्लिम वोट बैंक की सियासत से मोह भंग होने लगा था। लगातार कई चुनावों में जब मुस्लिम तुष्टिकरण की 'राजनीतिक हंडिया' में कांग्रेस की यह सियासी खिचड़ी पक नहीं सकी तो कांग्रेस ने तुष्टिकरण की राजनीति से तौबा कर ली। इस बात का प्रमाण है गुजरात में राहुल गांधी का मंदिर−मंदिर जाना। वह मुस्लिमों के धर्म स्थलों की तरफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। 22 वर्षों के बाद पहली बार गुजरात में ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जिसमें कांग्रेस 2002 के गुजरात दंगों के बारे में कुछ भी नहीं बोल रही है। उसे 2002 में हुआ मुस्लिमों का नरसंहार याद नहीं आ रहा है। अब मोदी मौत के सौदागार भी नहीं लगते हैं। राहुल गांधी कोई ऐसा बयान नहीं दे रहे हैं जिससे उनके ऊपर मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करने का आरोप लग सके, जबकि इससे पूर्व वह पूरे देश में जहां भी जनसभा या मीटिंग करते थे, गौमांस खाने के आरोप में हुई अखलाक की हत्या, मुजफ्फरनगर के दंगे जैसी तमाम घटनाओं की चर्चा करना नहीं भूलते थे।
गुजरात में एक तरफ मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप से पीछा छुड़ाने के लिये कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी मंदिर−मंदिर जा रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मुस्लिम विरोधी दाग धो देने को उतावला है। इस बात का अहसास तब और पक्का हो गया जब पता चला कि संघ अपने एक कार्यक्रम में वहाब समाज के डॉक्टर मुन्नवर युसुफ को मुख्य अतिथि बना रही है। आजकल सॉफ्ट हिन्दुत्व के सहारे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपनी पार्टी को दादी इंदिरा गांधी के दौर में ले जाने को बेताब नजर आने लगे हैं। यानी अब राहुल को समझ में आ गया है कि जब उनकी दादी की सत्ता थी तब कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व अपना कर जनसंघ और संघ परिवार को कभी राजनीतिक तौर पर मजबूत होने नहीं दिया। हाल ही में जब राहुल गांधी द्वारका मंदिर पहुंचे तो पंडितों ने उन्हें उनकी दादी इंदिरा और पिता राजीव गांधी के साइन किये हुये उन पत्रों को दिखाया जब वह मंदिर में पहुंचे थे। इंदिरा गांधी 18 मई 1980 को द्वारका मंदिर पहुंची थीं तो राजीव गांधी 10 फरवरी 1990 तो द्वारका मंदिर पहुंचे थे। कह सकते हैं राहुल गांधी ने लंबा वक्त लगा दिया सॉफ्ट हिन्दुत्व के रास्ते पर चलने में। कहा यह भी जा सकता है कि समय सब कुछ सिखा देता है। 2004 में राजनीति में कदम रखने के बाद लगातार दस वर्षों तक कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने सिर्फ सत्ता सुख ही देखा था। विपक्ष की दुश्वारियां क्या होती हैं, यह उन्हें 2014 के बाद पता चला जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। विपक्ष में रहते हुये राहुल गांधी धर्म की सियासत को भी समझ रहे हैं।
राहुल गांधी अतीत की कांग्रेस को फिर से बनाने के लिये साफ्ट हिन्दुत्व की छूट चुकी लकीर को खींचने निकल पड़े हैं, लेकिन ताज्जुब तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो अपना अतीत मिटाकर पहली बार मुस्लिमों के प्रति साफ्ट रुख अपना रहा है। पहली बार संघ अगर अपने किसी कार्यक्रम में किसी मुस्लिम को मुख्य अतिथि बनाता है तो ये सवाल जायज है कि संघ अपने हिन्दू राष्ट्र में मुसलिमों को भी जगह देने का मन बना चुका है।
मुद्दे पर आकर राहुल−अखिलेश की दोस्ती की बात कि जाये तो यह बिल्कुल स्पष्ट लग रहा है कि 'यूपी को यह साथ पसंद है' के नारे के सहारे उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमाने में नाकाम रहे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने संभवतः साफ्ट हिन्दुत्व की राह पकड़ने के बाद ही अखिलेश से दूरी बना लेना उचित समझा होगा। राहुल गांधी ने अपने समाजवादी मित्र अखिलेश को गुजरात चुनाव प्रचार के लिये आमंत्रित तक नहीं किया। यह स्थिति तब थी, जबकि अखिलेश यादव गुजरात में कांग्रेस के पक्ष में प्रचार की पेशकश राहुल से कर चुके थे।
दरअसल, अखिलेश अभी तक अपनी मुस्लिम परस्त छवि को तोड़ नहीं पाये हैं। विधान सभा चुनाव में मिली करार हार के बार अखिलेश भले ही कोई ऐसा बयान नहीं देते हों जिससे लगे कि वह तुष्टिकरण की सियासत को बल दे रहे हैं, लेकिन वह अपनी पार्टी के आजम खान जैसे तमाम उन नेताओं का मुंह बंद कराने में भी कामयाब नहीं हो पाये हैं जो हिन्दुओं को गाली देने का कोई भी मौका छोड़ते नहीं हैं। इसकी वजह भी, समाजवादी पार्टी अगर चार बार सत्ता तक पहुंची है तो इसमें यादवों से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका मुसलमानों ने निभाई थी, जो आंख मूंद कर पहले मुलायम और अब अखिलेश के पीछे खड़े हुए थे। सपा की मजबूरी यह है कि वह मुस्लिमों के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती है। अगर मुस्लिम वोटर उसके पाले से छिटक गये तो सपा के पास कोई वोट बैंक बचेगा भी नहीं। सिर्फ यादवों के सहारे कोई भी सियासी लड़ाई नहीं जीती जा सकती है। सपा की इसी कमजोरी ने ही कांग्रेस को उससे दूर कर दिया है। लब्बोलुआब यह है कि भले ही आज की तारीख में अखिलेश−राहुल साथ−साथ नजर नहीं आ रहे हों, उनकी दोस्ती सियासी जंग में 'दफन' हो गई हो, लेकिन यह अस्थायी ही होगी। 2019 के आम चुनाव के समय दोनों फिर एक साथ दिखाई पड़ सकते हैं।
- संजय सक्सेना
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