भाजपा सांसदों की ''बगावत'' के असल मायने कुछ और ही हैं

The real meaning of the ''rebellion'' of BJP MPs is something else

उत्तर प्रदेश भाजपा के कतिपय सांसदों की अप्रत्याशित मुखरता चौंकाने वाली है। ये अपनी ही पार्टी के लिए समस्या पैदा करने वाले बयान दे रहे हैं। ऐसे सांसदों में अनेक समानताये हैं। इनमें से कोई भी चार वर्षों तक अपने सम्यक दायित्व निर्वाह के लिए चर्चित नहीं रहा है।

उत्तर प्रदेश भाजपा के कतिपय सांसदों की अप्रत्याशित मुखरता चौंकाने वाली है। ये अपनी ही पार्टी के लिए समस्या पैदा करने वाले बयान दे रहे हैं। ऐसे सांसदों में अनेक समानताये हैं। इनमें से कोई भी चार वर्षों तक अपने सम्यक दायित्व निर्वाह के लिए चर्चित नहीं रहा है। दूसरी समानता यह कि ये सब नरेंद्र मोदी के करिश्मे से लाभान्वित हो चुके हैं। जिसके चलते लोकसभा में पहुंचने का इनका अरमान पूरा हुआ था।  तीसरी समानता यह कि आम चुनाव से करीब एक वर्ष पहले इनका आत्मज्ञान उजागर होने लगा है। यह वह समय होता है जब प्रायः राजनीतिक पार्टियां आम चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन की प्रारंभिक प्रक्रिया शुरू कर देती है। जो पार्टी पुनः सत्ता के लिए मैदान में उतरती है, उसके लिए प्रत्याशी चयन ज्यादा कठिन होता है। सिटिंग प्रतिनिधियों के विषय में उनके क्षेत्र से अनेक जानकारियां मिलती हैं।

हाईकमान को उसका भी संज्ञान लेना होता है। लोकसभा में उनकी भागीदारी का रिकॉर्ड भी सामने रखना होता है। वहाँ प्रायः खामोशी से चार साल व्यतीत करने वाले ही अब ज्यादा मुखर हैं। इनकी अगली समानता यह है कि इनके क्षेत्र के लोग ही नाखुश बताए जा रहे हैं। ऐसे में कोई भी हाईकमान क्या विचार कर सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इन सांसदों की मुखरता के पीछे यह दर्द साफ झलक रहा है।  नहीं तो कौन विश्वास करेगा कि सांसद ज्योतिबाई फुले अब संविधान बचाएंगी। या कौन विश्वास करेगा कि कई दशक से आमजन के बीच रहने वाले योगी आदित्यनाथ ने एक दलित सांसद को डांट के भगा दिया होगा। वह तो जनसामान्य से भी स्नेह के साथ मिलते हैं। इनमें समाज के सभी वर्ग के लोग शामिल रहते हैं। एक अन्य सांसद को लग रहा है कि दो अप्रैल के हिंसक प्रदर्शन के लिए दलितों को गलत ढंग से गिरफ्तार किया जा रहा है।

    

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने तो अभी एक वर्ष पहले ही कार्यभार संभाला है। इसके पहले सपा सरकार के समय बसपा आरोप लगाती थी कि दलितों का उत्पीड़न किया जा रहा है। यह कार्य सपा के लोग कर रहे हैं, और सरकार उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही है। उस समय भी इन भाजपा सांसदों को प्रभावी ढंग से बोलते नहीं देखा गया। जाहिर है उनकी यह चेतना चुनाव की आहट के साथ जागी है।

    

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से लोकसभा सदस्य छोटेलाल का नाम चार वर्ष में पहली बार इतना चर्चित हुआ। होना भी था। उन्होंने सीधे मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया है। कहा कि वह एससी-एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज नहीं करा पा रहे हैं। मदद मांगने पर योगी आदित्यनाथ ने डांट कर भगा दिया। वस्तुतः यह केवल दबाव बनाने के लिए है। प्रधानमंत्री को पत्र लिखना भी इसी रणनीति का हिस्सा है। मुद्दा भी दिलचस्प है। इसमें आमजन की समस्या का कोई विषय नहीं है। ये संसाद अपने भाई की राजनीति के लिए परेशान हैं। चंदौली में नौगढ़ ब्लाक में उनके भाई ब्लाक प्रमुख थे। बाद में अविश्वास प्रस्ताव से उन्हें हटा दिया गया।   सांसद के अनुसार सुजीत कुमार ने उन पर रिवाल्वर तानी, जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल किया, जान से मारने की धमकी दी। जिले के अधिकारियों ने कार्यवाही नहीं की। मुख्यमंत्री ने डांट कर भगा दिया। यह ऐसा विषय नहीं था, जिस पर मुख्यमंत्री को कोई आपत्ति होती। यदि किसी के साथ अन्याय होता है, तो मुख्यमंत्री संबंधित अधिकारियों को कठोर सन्देश देते हैं।

यह भी प्रश्न है कि जब सांसद पर किसी ने कथित रूप में रिवाल्वर तानी तो उनका अंगरक्षक क्या कर रहा था। सांसद यदि किसी थाने के सामने धरने पर बैठ जाये तो, वह चर्चित खबर बन जाती है। ऐसे में लगता नहीं कि सांसद वाकई रिपोर्ट लिखवाना चाहते थे। जाहिर है कि उनकी कहानी में पेंच है। ऐसे ही कारण रहे होंगे, जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने प्रारंभिक जांच के बाद गिरफ्तारी की बात कही है। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने भी ऐसे सामान्य आरोपों पर तत्काल गिरफ्तारी को रोकने का शासनादेश जारी किया था। दो अप्रैल के हिंसक प्रदर्शन में कानून का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए।

जिस सांसद ने इसमें गलत ढंग से दलितों को फंसाने के आरोप लगाया है, उन्हें अपनी तहकीकात के विषय में बताना चाहिए। वह कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचे, यह बताना चाहिए। उपद्रव अनेक राज्यों में हुए थे।   क्या सभी राज्यों के रिकार्ड उनके पास हैं, क्या उनके पास ऐसी कोई मशीनरी है, इसका भी खुलासा होना चाहिए। लेकिन अपनी पार्टी की प्रदेश सरकार पर ऐसे आरोप लगा देना, राजनीति से प्रेरित ही दिखाई दे रहा है। ऐसे ही भगवाधारी महिला सांसद संविधान को लेकर एकदम परेशान हो गईं। ऐसा लगा कि वह रैली नहीं करेंगी, तो संविधान नहीं बचेगा। इनकी समस्या भी अलग है। बताया जा रहा है कि क्षेत्र में इनका चार वर्षों का रिपोर्ट कार्ड संतोषजनक नहीं है। असली समस्या यह है। इससे बचने के लिए संविधान जैसे भारी विषय को उठा दिया।

लेकिन आमजन को नादान नहीं समझना चाहिए। वह ऐसे नेताओं के चार वर्ष के क्रियाकलापों को भी जानता है और एकदम से आई जागरूकता का मतलब भी समझता है। वस्तुतः कर्तव्य पालन की विफलता इनकी चेतना को झकझोर रही है। उसी को दबाने और अगली पारी के अवसर बनाने के जतन चल रहे हैं। किसी को दलितों की चिंता एकदम से सताने लगी तो कोई अपने को दयनीय दशा में बताकर सहानुभूति हासिल करना चाहता है और कोई संविधान और आरक्षण पर खतरे का शोर मचा रहा है। लेकिन यह सब इनकी निजी असफलता को ही उजागर कर रहा है। सन्देश यह जा रहा है कि ये नेता बसेरा बदलने या पुनः टिकट के लिए दबाव बना रहे हैं। इनकी कवायद इस निजी मकसद से चल रही है।

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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