हैदराबाद एनकाउंटर पर ताली पीटने वाले दरअसल न्यायिक व्यवस्था का मजाक उड़ा रहे हैं

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राकेश सैन । Dec 12 2019 4:02PM

हैदराबाद मुठभेड़ प्रकरण में केवल जनसाधारण ही नहीं बल्कि संसद में जनप्रतिनिधि भी ताली पीट रहे हैं तो हमारी व्यवस्था को आत्मविश्लेषण कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि वह अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन कर पा रही है या नहीं।

अशोक वाटिका में अचानक श्रीराम की मुद्रिका अपने सामने देख जैसी मनोस्थिति सीता की हुई लगभग वैसे ही हर्ष और विषाद के हालात हैदराबाद बलात्कार आरोपियों से हुई मुठभेड़ के बाद देश के बनते दिख रहे हैं। इस पर अधिकतर लोगों में प्रसन्नता है और कुछ में विषाद भी, दोनों के अपने-अपने तर्क और दलीलें हैं परन्तु घटना की गहराई में जाया जाए तो इसमें हमारी व्यवस्था की असफलता साफ तौर से देखी जा सकती है। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की जाँच के आदेश दे दिये हैं और माना जा रहा है कि छह माह के भीतर पुलिस मुठभेड़ से जुड़ा सारा सच सामने आ ही जायेगा।

कटघरे में वह तंत्र है जो महिलाओं को सुरक्षित वातावरण उपलब्ध नहीं करवा पा रहा और सवालों के घेरे में वह न्याय व्यवस्था भी है जो जिसके पास हर दीपावली पर आतिशबाजी हो या न हो जैसे मुद्दों को लेकर याचिकाएं सुनने का तो समय है परन्तु जनता से जुड़े मामले दशकों तक लटकाती है। पूरी तरह निरपराध तो वह समाज भी नहीं जो मुठभेड़ करने वालों पर तो पुष्पवर्षा कर रहा है परन्तु उसका एक वर्ग वेबसाइट पर इसी दुराचार काण्ड को लाइव देखने को लालायित है। सभ्य समाज में बलात्कारी तो घृणित व मृत्युदण्ड के अधिकारी हैं ही परन्तु राज्य प्रायोजित आतंकवाद को भी किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। केवल बलात्कार ही क्यों, हर तरह के अपराधी को कड़े से कड़ा दण्ड मिले परन्तु न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत, फैसला ऑन दा स्पॉट किसी मसाला मूवी का तो शीर्षक हो सकता है लेकिन बाबा साहिब भीमराव रामजी अम्बेडकर के संविधान में इसके लिए कहीं जगह नहीं हो सकती। हैदराबाद मुठभेड़ प्रकरण में केवल जनसाधारण ही नहीं बल्कि संसद में जनप्रतिनिधि भी ताली पीट रहे हैं तो हमारी व्यवस्था को आत्मविश्लेषण कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि वह अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन कर पा रही है या नहीं।

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हिन्दी फिल्म 'आखिरी रास्ता' में बूढ़े डेविड (अमिताभ बच्चन) द्वारा अपनी पत्नी के बलात्कारियों को सजा देते हुए देख लोग सीटियां बजाते हैं, परन्तु वास्तव में यह तालियां उस व्यवस्था के लिए गालियां होती हैं जो सरलमना डेविड को न्याय देने में नाकाम रही। वैसे यह आश्चर्यजनक है कि बिना जांच के कुछ कथित मानवाधिकारवादियों ने इस मुठभेड़ को फर्जी बता दिया और अपनी इसी धारणा को सही मान कर पुलिस पर सवाल उठा रहे हैं। लोग यह भी पूछने लगे हैं कि जहां-जहां दानव होते हैं उसी ही गांव में मानवाधिकारवादी क्यों मिलते हैं। बलात्कारियों की मौत पर रुदाली गाने वाले मानवाधिकारवादियों व उनके संगठनों के नाम उनमें शामिल क्यों न हुए जो कल तक बलात्कारियों पर सख्त कार्रवाई की मांग को लेकर संघर्षरत थे। पंजाब और कश्मीर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में हुई आतंकी घटनाओं व नक्सलियों के साथ मानवाधिकारवादी यूं जुड़े हैं जैसे जंगल में शेर के अंग-संग बिलाव अपना जीवन यापन करता है। येन केन प्रकारेण राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ये लोग देश की बदनामी करते रहे हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि इस घटना को लेकर भी हमारे मानवाधिकारवादी पहुंच जाएं लंदन या शिकागो अन्तर्राष्ट्रीय रुदन महोत्सवों में और देश की लानत मलानत में जुट जाएं।

बाबा साहिब अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर हुए इस संविधान विमुख कार्य पर जनता खुशी मनाती है तो इसमें दोष उत्सव मनाने वालों का नहीं बल्कि उस नाकारा प्रणाली का है जिसने देशवासियों का विश्वास कानून व्यवस्था से उठाने में पूरा जोर लगा दिया। दिल्ली में निर्भया और हैदराबाद दुराचार काण्ड पर शोर मचने पर सरकार जागी परन्तु क्या साधारण केसों में इतनी ही सक्रियता दिखाई देती है ? निर्भया काण्ड के बाद कानूनी सख्ती के बावजूद हजारों बलात्कार के केस हुए परन्तु बहुत कम सुनने में आया कि किसी बलात्कारी को निश्चित समय पर दण्ड दिया गया हो। यहां तक कि खुद निर्भया काण्ड के आरोपी अभी तक अपनी सांसों से दुनिया की हवा को प्रदूषित कर रहे हैं। दुराचार के मामले में किसी को सजा हो भी जाए तो उसके बाद न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि कोई भी प्रशिक्षित वकील अपने मुवक्किल को इतना अभयदान दिलवा सकता है कि वह आसानी से वर्षों तक सजा से बच सके। जिला सत्र न्यायालय किसी को मृत्यु दण्ड देता है तो उसको उच्च न्यायालय की स्वीकृति के लिए 60 दिन, उच्च न्यायालय में अपील के लिए 90 दिन, सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए 90 दिन का समय लगता है। उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई की समयावधि निश्चित नहीं है केस को कितना भी लम्बा खींचा जा सकता है। अगर यहां से सजा मिल जाए तो अपराधी पुनर्विचार याचिका दायर कर सकता है और उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया की मांग कर सकता है। इन प्रक्रियाओं के लिए भी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं।

अपराधियों को इतना लम्बा जीवन उन केसों में मिलता है जिसमें किसी को सजा हुई है, अधिकतर केस तो इस स्तर पर जा ही नहीं पाते। पीड़ित पहले ही थक हार कर परिस्थितियों से समझौता कर चुका होता है। राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द ने यह कह कर न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने का प्रयास किया कि दुराचारियों को दया याचिका का अधिकार नहीं होना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि सरकार राष्ट्रपति के इस सुझाव को तुरन्त अमली जामा पहनाएगी। तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी देश की पुलिस बलात्कार जैसे घृणित अपराधों को पूरी गम्भीरता से नहीं लेती और पीडि़त व उसके परिवार को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। रही बात न्यायालय की तो उसे भी निरपराध नहीं कहा जा सकता। उसकी भूमिका कौरव सभा में विराजमान मिट्टी के धर्मज्ञों व धुरन्धरों जैसी है जो शस्त्र व शास्त्र में तो पारंगत थे परन्तु एक निर्बला के चीरहरण पर जड़ हो गए।

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एक तरफ तो कहा जाता है कि न्यायालय के पास लम्बित चार करोड़ केस बलात्कार जैसे अपराधों के आरोपियों को बचाते हैं तो दूसरी ओर वही अदालतें हर साल दीपावली पर आतिशबाजी जैसे सामाजिक व कम महत्त्व के मुद्दों पर मत्थापचाई करती हैं। मुठभेड़ जैसे असंवैधानिक कामों पर जनता की खुशी एक तरह से पुलिस, न्यायालय सहित पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पर तमाचा है, जनता कसूरवार नहीं। देश कभी इसका समर्थक नहीं रहा कि विधि व धर्म विमुख कोई काम हो क्योंकि यहां तो निहत्थे शत्रु पर वार करना भी अपराध माना जाता रहा है। जनता इसलिए बसन्त मना रही है क्योंकि हमारी व्यवस्था ने ठीक तरह से काम नहीं किया और इसीलिए पुलिस का गलत काम भी उसे इन्साफ लग रहा है। वास्तव में यह स्थिति हर्ष और विषाद के साथ चिंता की भी है।

-राकेश सैन

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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