भाजपा और पीडीपी का गठबंधन आज नहीं तो कल टूटना ही था

why BJP broke alliance with pdp

भाजपा को यहां सरकार बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी। अब तक उसने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुरूप ही कार्य किया। भाजपा कोटे के मंत्रियों ने अलग ध्वज के प्रयोग को नहीं माना। राष्ट्रीय ध्वज को ही अपनाया।

कभी कभी खंडित जनादेश ध्रुव विरोधियों को भी साथ आने पर विवश कर देते हैं। जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबन्धन ऐसा ही था। दोनों ने विधानसभा चुनाव एक दूसरे के खिलाफ लड़ा था। लेकिन खंडित जनादेश में इनके गठबन्धन से सरकार बनाने का एक मात्र विकल्प यही बचा था। इसे अपरिहार्य गठबन्धन कहा जा सकता था। इसके लिए भाजपा को आलोचना भी सहनी पड़ी। लेकिन यह समझना होगा कि यह ऐसा गठबन्धन नहीं था जैसा आजकल भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ बनाने का दावा किया जा रहा है।

सपा, बसपा का मेल, कर्नाटक में जेडीएस की सरकार बनना, प. बंगाल में कांग्रेस और वामपंथियों का तृणमूल के पीछे खड़े होना, इन सभी की तुलना भाजपा और पीडीपी के गठबन्धन से नहीं हो सकती। इन्होंने तो बिना लड़े ही हिम्मत छोड़ दी है, न कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम है, न कोई नेतृत्व, इन्हें भी केवल मोदी, मोदी करना होगा। कर्नाटक में सरकार बनाने की इतनी जल्दी थी कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम का नाम ही नहीं लिया गया। आधी संख्या वाला मुख्यमंत्री बन गया। अनेक विधायक कोप भवन में हैं। जबकि जम्मू-कश्मीर के गठबन्धन में ऐसा उतावलापन नहीं था। पहली बात यह कि भाजपा और पीडीपी दोनों एक दूसरे के खिलाफ जम कर लड़ी थीं। उस समय वहां नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की गठबन्धन सरकार थी। लेकिन पीडीपी और भाजपा ने यह नहीं कहा कि इन्हें हटाने के लिए तालमेल कर लें। इन्होंने बिना लड़े हार नहीं मानी। नरेंद्र मोदी के विरोध में तो ऐसे लोग भी साथ आ गए जिन्हें 22 वर्षों तक एक दूसरे की शक्ल देखना गवारा नहीं था।

भाजपा और पीडीपी जम कर लड़े, एक दूसरे पर आरोपों की बौछार की। खंडित जनादेश आया, तब भी सरकार बनाने की जल्दीबाजी नहीं दिखाई गई। पूरा समय लेकर पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया। बड़ी पार्टी के कारण मुख्यमंत्री का पद पीडीपी और उप मुख्यमंत्री का पद भाजपा को मिलना तय हुआ। मंत्रालय भी पहले तय हो गए। इसके बाद सरकार बनाई गई। यह गठबन्धन की मिसाल थी। जब अपरिहार्य स्थिति आ जाये तब न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार बनाई जा सकती है।

ऐसे में पहली बात यह कि इसकी तुलना नरेंद्र मोदी विरोधी कथित मोर्चे से किसी भी दशा में नहीं हो सकती। दूसरा यह कि भाजपा और पीडीपी सरकार अब तक उसी साझा कार्यक्रम के तहत ही चली, जिसे व्यापक विचार और सहमति के बाद बनाया गया था। दिसंबर 2014 में विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश मिलने के बाद राज्य में राज्यपाल शासन लगाया गया था। जनवरी 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद राज्य में फिर से राज्यपाल शासन लगाया गया था क्योंकि उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा का न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार नहीं हुआ था। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की सत्तासी सीटों पर चुनाव होते हैं। सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को चवालीस सीटों का बहुमत चाहिए। मौजूदा समय में पीडीपी के पास 28 और भाजपा की 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास 15, कांग्रेस के पास 12 और अन्य के खाते में 9 सीटें थीं।

इससे जाहिर है कि भाजपा को यहां सरकार बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी। अब तक उसने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुरूप ही कार्य किया। भाजपा कोटे के मंत्रियों ने अलग ध्वज के प्रयोग को नहीं माना। राष्ट्रीय ध्वज को ही अपनाया। जनसेवा के कार्यों में भी इनका रिकार्ड बेहतर रहा है। राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भाजपा की एक समस्या भी थी। उसे जम्मू के हिन्दू इलाकों में खूब समर्थन मिला जबकि पीडीपी को घाटी में सीट मिली थी। नरेंद्र मोदी ऐसे किसी विभाजन को भी रोकना चाहते थे। घाटी में आई भीषण बाढ़ के समय मोदी ने इसका प्रमाण भी दिया था तब स्थानीय प्रशासन के लोग भी नदारद हो गए थे। सेना के जवानों ने वहां राहत पहुंचाई थी। भाजपा कोटे के मंत्रियों द्वारा लिए गए कुछ निर्णयों को न्यायपालिका ने भी सही माना था।

लेकिन यह भी सही था कि महबूबा मुफ्ती अलगाववादी हुर्रियत नेताओं, पाकिस्तान, पत्थरबाजों से वार्ता की हिमायत करने लगी थीं जबकि भाजपा की रणनीति इन्हें दरकिनार करने की थी। यह ऐसा मसला था जिस पर गठबन्धन के टूटने की नौबत आ गई। यह सराहनीय है कि भाजपा ने इस दबाव को नामंजूर किया। वह महबूबा के दबाव को मानकर सरकार चला सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। महबूबा की नाराजगी के बावजूद हुर्रियत के सरगनाओं की नजरबंदी कम नहीं हुई। इन्हें न तो वार्ता के लिए बुलाया गया, न इन्हें कोई अहमियत दी गई। यह कहना भी गलत है कि संघर्ष विराम का निर्णय महबूबा के दबाव में किया गया था। वस्तुतः यह तो भारतीय विचारों के अनुरूप था जिसमें सभी मजहबों का सम्मान किया जाता है। रमजान पर संघर्ष विराम के पीछे यही सोच थी। केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारियों को समझती है। यह उम्मीद करनी चाहिए कि वहाँ स्थिति जल्दी है सामान्य होगी और नए चुनाव से सरकार का गठन होगा।

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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