नोटा का उपयोग या मतदान का बहिष्कार लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है

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चुनाव आयोग के मतदान करने के लिए सघन प्रचार अभियान और सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों और मीडिया द्वारा मतदान के लिए प्रेरित करने के बावजूद मतदान का यह प्रतिशत आया है तो क्या कहा जाए।

लोकतंत्र के महायज्ञ में एक चौथाई मतदाताओं की बेरुखी निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय है। राजस्थान−मध्यप्रदेश में मतदान का आंकड़ा 75 फीसदी के आसपास रहने और राजस्थान में गत चुनाव 2013 से भी 1.46 फीसदी कम मतदान होना मतदाताओं का मताधिकार के प्रति गंभीर नहीं होना दर्शाता है। यह भी तब है जब राजस्थान में 70 लाख नए मतदाता शामिल हुए हैं। इनमें करीब 20 लाख मतदाता 18 वर्ष की उम्र पूरी कर पहली बार मताधिकार प्राप्त करने वाले लोगों में शामिल हैं। खासबात यह कि आधे से ज्यादा यानि की 53 प्रतिशत से अधिक मतदाता 18 से 40 साल की आयुवर्ग के हैं। मजे की बात यह है कि महिलाओं का वोट प्रतिशत बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में मतदान अधिक हो रहा है। इससे साफ हो जाता है कि शहरी व पढ़े लिखे मतदाता मतदान के प्रति कम गंभीर हैं। हालांकि पिछले बीस साल के आंकड़ों को देखें तो मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है और इसका श्रेय निश्चित रूप से चुनाव आयोग के प्रयासों को भी जाता है। निर्वाचन आयोग को इसके लिए बधाई देनी होगी कि चुनावों में अब हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा है, मतदान केन्द्रों तक मतदाताओं की आसान पहुंच बनी है, मतदाताओं को मतदान की पूरी प्रक्रिया को समझाया जाता है वहीं अब पर्चियां भी चुनाव आयोग उपलब्ध कराने लगा है। सभी पांचों प्रदेशों में शांतिपूर्ण मतदान संपन्न हुआ है। यह तो प्रत्याशियों के समर्थक थोड़ा संयम बरतें और भावुकता से बचें तो समर्थकों के बीच होने वाली छुटपुट झड़पों पर भी अंकुश पाया जा सकता है। आखिर मतदाता मतदान केन्द्रों तक पहुंच क्यों नहीं पाते, यह चिंतन−मनन का विषय है। हालांकि विश्लेषण तो यह बताता है कि पॉश कॉलोनियों के नागरिक जो अपने आप को बुद्धिजीवी व संभ्रांत कहते हैं, मतदान प्रतिशत भी उन्हीं के कारण कम होता है।

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यह साफ हो चुका है कि विश्व के देशों में हमारे देश में अधिक शांतिपूर्ण व निष्पक्षता से चुनाव होते हैं। हालांकि हारने वाले दलों द्वारा आरोप प्रत्यारोप लगाना आम होता जा रहा हैं। चुनावों के बाद हारने वाले दलों ने हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर डालने का प्रयास करते हुए चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया पर जिस तरह से चुनाव आयोग ने इसे खुली चुनौती के रूप में लेते हुए ईवीएम से छेड़छाड़ सिद्ध करने की चुनौती दी उससे सभी दल बगले झांकने लगे। सही भी है हारने वाला दल ईवीएम को दोष देने लगता है जिसे उचित नहीं माना जा सकता। अब तो चुनाव आयोग ने वीवीपेट का प्रयोग भी शुरू कर दिया है। देश की सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा एक जनहित याचिका के मामले में गंभीर टिप्पणी करते हुए मतदान नहीं करने वाले मतदाताओं को बेनकाब किया है कि जो मतदान नहीं करता उसे सरकार से प्रश्न करने का हक भी नहीं हैं। आखिर सरकार चुनने के दायित्व से हम कोई लेना−देना नहीं रखें, समय निकाल कर मतदान केन्द्र तक जाने और मताधिकार के उपयोग के दायित्व को पूरा करने के दायित्व को निभाने के लिए गंभीर नहीं हैं तो फिर किस मुंह से हम सरकार की आलोचना और सरकार से अपेक्षा कर सकते हैं।

लोग भावावेश में मतदान का बहिष्कार तक का निर्णय कर लेते हैं और पांच साल में अपनी सरकार चुनने के लिए मिलने वाले मौके को गंवा देते हैं इससे अधिक गंभीर बात क्या होगी। आखिर नागरिकों को भी अपने दायित्व को समझना होगा। सबकुछ सरकार पर ही ढोलना कहां का न्याय है ? भले ही हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करें पर लाख प्रयासों के बावजूद लोकतंत्र के प्रति आम आदमी की निष्ठा अभी तक परिलक्षित नही हो रही है। यह सब तो तब है जब पिछले दिनों ही सर्वोच्च न्यायालय की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी आई कि जो मतदान नहीं करते उन्हें सरकार के खिलाफ कुछ कहने या मांगने का भी हक नहीं है। आखिर क्या कारण है कि शत-प्रतिशत मतदाता मतदान केन्द्र तक नहीं पहुंच पाते ? सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और चुनाव आयोग के मतदान के प्रति लगातार चलाए जाने वाले केम्पेन के बावजूद मतदान का प्रतिशत ज्यादा उत्साहित नहीं माना जा सकता। चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों की माकूम व्यवस्था व बाहरी पर्यवेक्षकों के कारण अब धन−बल व बाहु बल में काफी हद तक कमी आई है। ईवीएम और चुनाव आयोग के निरंतर सुधारात्मक प्रयासों का ही परिणाम है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और चुनावों में दुरुपयोग के आरोप तो अब नहीं के बराबर ही लगते हैं। छिटपुट घटनाओें को छोड़ भी दिया जाए तो अब चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

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एक और हम जाति धर्म से ऊपर उठकर विचारधारा और योग्यता के आधार पर अपने नेता को चुनने की बात करते हैं जो कि अभी दिवास्वप्न से आगे नहीं है वहीं हम 25 फीसदी मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक ले जाने में भी सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में सही प्रतिनिधित्व की बात करना बेमानी है। तनिक विश्लेषण करें कि 100 में से 25 प्रतिशत मतदाता मतदान ही नहीं कर रहे हैं, शेष 75 में से यदि दो ही उम्मीद्वार हैं तो कुल मतदाताओं में से केवल 37 फीसदी मत प्राप्त करने वाला यानि की परीक्षा में गिरते पड़ते पासिंग मार्क्स पाने वाला हमारा नेता चुना जाता है। यानि की थर्ड डिविजन पास से हम बेहतर नुमांइदगी की आस रखकर चलते हैं। यह तो एक तरह से आदर्श स्थिति है। अधिक उम्मीदवार मैदान में होने और उसके बाद वोटों के विभाजन से कई बार तो कुल मतदाताओं में से 10 प्रतिशत वोट प्राप्त करने वाला ही नेता चुन लिया जाता है। हालांकि इसके लिए चुनाव आयोग, सरकार, राजनीतिक दलों को दोष नहीं दिया जा सकता पर कहीं ना कहीं यह व्यवस्था का दोष तो है ही। इसके साथ ही अधिकारों की बात करने वाले और सरकार के कामकाज की आलोचना प्रत्यालोचना करने वालों की मतदान नहीं करने की गैरजिम्मेदाराना हरकत को दोष जाता है।

चुनाव आयोग के मतदान करने के लिए सघन प्रचार अभियान और सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों और मीडिया द्वारा मतदान के लिए प्रेरित करने के बावजूद मतदान का यह प्रतिशत आया है तो क्या कहा जाए। आखिर मतदाता मताधिकार का प्रयोग करते हुए क्यों झिझकते हैं? क्या परेशानी है मतदान करने में? अब तो चुनाव आयोग ने मतदान को आसान बना दिया है। मतदाता के निकटतम स्थान पर मतदान केन्द्र बनाए जा रहे हैं। एक मतदान केन्द्र पर सीमित संख्या में ही मतदाता हैं जिससे मतदाताओं को अनावश्यक लंबी कतारों में खड़ा नहीं होना पड़े। मतदाता पर्चियों का वितरण किया जा रहा है। यदि अपनी पसंद का उम्मीद्वार नहीं है तो अब नोटा का विकल्प भी दे दिया गया है। हालांकि नोटा का प्रयोग या मतदान का बहिष्कार किसी भी सूरत में सही विकल्प नहीं माना जा सकता। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यदि मतदाता घर से निकल कर मतदान केन्द्र तक नहीं आता है तो इसे क्या कहा जाए? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मतदाताओं में उत्साह नहीं है। मतदाता मतदान के अधिकार का उपयोग करने के लिए उत्साहित नहीं है।

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लोकतंत्र में मताधिकार ही सबसे बड़ा अधिकार है। ऐसे में लगभग एक चौथाई मतदाताओं द्वारा मताधिकार का प्रयोग नहीं करना गैरजिम्मेदाराना कृत्य माना जाना चाहिए। बहाने या सरकार को कोसने से ज्यादा जरूरी अपने मताधिकार का प्रयोग कर सही व्यक्ति को चुनना है। आदर्श स्थिति तो यह भी हो कि चुनाव के बाद सारे मतभेदों को भुलाकर जनहित के निर्णयों को प्राथमिकता दी जाए पर अभी यह दूर की कौड़ी ही बनी रहेगी।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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