भारत में कमजोर मानसून के पीछे उत्तरी अटलांटिक की उथल-पुथल

Atlantic Ocean

अनुसंधान टीम ने अल-नीनो और गैर-अल-नीनो सूखा वर्षों के दौरान दैनिक वर्षा का बारीकी से आकलन किया है, और जून एवं सितंबर के बीच बरसात के पैटर्न में भिन्नता का पता लगाया है। उन्होंने पाया कि अल-नीनो वर्ष के दौरान होने वाली सूखे की घटनाएं एक मानक पैटर्न पर आधारित होती हैं।

भारतीय मानसून के दौरान सूखे की घटनाओं का पूर्वानुमान गर्म भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र से जुड़ी वर्षा ऋतु में होने वाली बरसात की कमी की धारणा पर आधारित है। हालांकि, एक नये अध्ययन में, पिछली सदी में भारतीय ग्रीष्म मानसून के दौरान पड़ने वाले सूखे की लगभग आधी घटनाओं के लिए उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में वायुमंडलीय उथल-पुथल को जिम्मेदार पाया गया है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया है। यह अध्ययन सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक ऐंड ओशनिक साइंसेज (सीएओएस), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी) के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।

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जून और सितंबर के बीच देश के बड़े क्षेत्रों में प्रचुर वर्षा लाने वाले भारतीय ग्रीष्म मानसून पर एक अरब से अधिक आबादी आश्रित है। जब इसके विफल होने पर देश का अधिकांश हिस्सा सूखे से ग्रस्त हो जाता है, तो इसके पीछे एक सामान्य संदेह अल-नीनो की ओर जाता है। अल-नीनो एक ऐसी जलवायु घटना है, जिसमें असामान्य रूप से गर्म भूमध्यवर्ती प्रशांत जल क्षेत्र, नमी से भरे बादलों को भारतीय उपमहाद्वीप से दूर खींचता है। लेकिन, पिछली सदी में, भारत में हुई 23 सूखे की घटनाओं में से 10 सूखे की घटनाएं ऐसे वर्षों में देखी गईं, जब अल-नीनो अनुपस्थित था। ऐसे में, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर मानसून के दौरान कम बारिश के पीछे और क्या कारण हो सकता है?

आईआईएससी के अध्ययन से पता चलता है कि सूखे की ये घटनाएं अगस्त के अंत में बरसात में होने वाली अचानक और तेज गिरावट का परिणाम थीं। बरसात में यह गिरावट उत्तरी अटलांटिक महासागर के मध्य क्षेत्र में एक वायुमंडलीय उथल-पुथल से जुड़ी हुई पायी गई है, जिससे वायुमंडलीय धाराओं का एक ऐसा चक्र बनता है, जो उपमहाद्वीप में सक्रिय मानसून को प्रभावित कर कमजोर बना देता है। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंस में प्रकाशित किया गया है। 

सीएओएस में एसोसिएट प्रोफेसर वी. वेणुगोपाल ने बताया कि “वर्ष 1980 के दशक के आरंभ में सूखे की विभिन्न घटनाओं को अलग-अलग रूपों में देखा जाता था। इन घटनाओं को समग्र रूप से नहीं देखा गया, और निष्कर्ष निकाला गया कि सूखे की इन घटनाओं का उद्भव अल-नीनो के कारण पड़ने वाले सूखे की तुलना में अलग-अलग हो सकता है।" 

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अनुसंधान टीम ने अल-नीनो और गैर-अल-नीनो सूखा वर्षों के दौरान दैनिक वर्षा का बारीकी से आकलन किया है, और जून एवं सितंबर के बीच बरसात के पैटर्न में भिन्नता का पता लगाया है। उन्होंने पाया कि अल-नीनो वर्ष के दौरान होने वाली सूखे की घटनाएं एक मानक पैटर्न पर आधारित होती हैं। वर्षा में गिरावट का क्रम जून के मध्य के आसपास शुरू होता है और उत्तरोत्तर बदतर हो जाता है। अगस्त के मध्य तक, यह स्थिति पूरे देश में फैल जाती है और अंततः सूखे में परिवर्तित होने लगती है।

हैरानी की बात यह है कि गैर-अल-नीनो वर्षों के दौरान सूखे की घटनाओं का जब एक साथ विश्लेषण किया गया, तो यह भी एक सामान्य पैटर्न के अनुरूप लग रहा था। सबसे पहले, जून में मध्यम गिरावट दर्ज की गई। फिर, जुलाई मध्य से अगस्त मध्य तक मानसून के ठीक होने के संकेत मिलते हैं और वर्षा की मात्रा में वृद्धि होती है। हालांकि, अगस्त के तीसरे सप्ताह के आसपास बारिश में अचानक गिरावट होती है, जिसके परिणामस्वरूप सूखे की स्थिति बनती है।

अगस्त के आखिरी दिनों में बरसात में अचानक होने वाली इस गिरावट के कारणों को शोधकर्ता समझना चाहते थे। सीएओएस में एसोसिट प्रोफेसर जय सुखातमे ने बताया कि "हमने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर वह कौन-सा तंत्र या एजेंट है, जो भारत में मानसून के इस व्यवहार को प्रभावित करता है। हमने सूखे की घटनाओं वाले गैर-अल-नीनो वर्षों में व्याप्त हवाओं का भी आकलन किया है।”

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प्रोफेसर सुखातमे ने बताया कि "इस अध्ययन में मध्य अक्षांश क्षेत्र में असामान्य वायुमंडलीय उथल-पुथल देखी गई है। यह स्थिति ऊपरी वायुमंडल में उन हवाओं से उभरती है, जो असामान्य रूप से ठंडे उत्तरी अटलांटिक जल के ऊपर एक गहरे चक्रवाती परिसंचरण के साथ परस्पर प्रभाव डालती हैं। इस तरह, निकलने वाली वायु-धाराएं, जिन्हें रॉस्बी लहर कहा जाता है, उत्तरी अटलांटिक से नीचे की ओर मुड़ती है - तिब्बत के पठार पर वर्षा करती हैं- और मध्य अगस्त के आसपास भारतीय उपमहाद्वीप से टकराती हैं, बारिश में अवरोध पैदा करती हैं, और मॉनसून को धकेल देती हैं, जो जून में हुई गिरावट के बाद ठीक होने की कोशिश कर रहा होता है। आमतौर पर यह लहर पश्चिम से पूर्व की ओर जाती है, लेकिन भूमध्य रेखा की ओर नहीं जाती। भीतर की ओर इसका मुड़ जाना एक असामान्य बात थी, जिसे हमने इन विशेष वर्षों के दौरान देखा।"

ये शोध निष्कर्ष उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के बाहर से भारतीय मानसून पर प्रभावों पर विचार के महत्व को रेखांकित करते हैं, जो वर्तमान पूर्वानुमान मॉडल पर बहुत अधिक केंद्रित हैं। प्रोफेसर वेणुगोपाल कहते हैं, "हिंद महासागर और प्रशांत महासागर भारतीय मानसून के दौरान पड़ने वाले सूखे से संबंधित सभी चर्चाओं में प्रमुखता से शामिल रहते हैं।" उनका कहना है कि "यह संभवतः केवल मध्य अक्षांश प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करने का समय है, जो मानसून परिवर्तनशीलता की बेहतर भविष्यवाणी में मदद कर सकता है।" 

(इंडिया साइंस वायर)

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