वन्य जीवों के टकराव से निपटने की रणनीतियां नाकाम
जंगली जीवों के इंसानों से टकराव को लेकर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक वन्य जीवों के हमलों से निपटने की मौजूदा रणनीतियों के बावजूद फसलों, मवेशियों और जान-माल के नुकसान को कम नहीं किया जा सका है।
उमाशंकर मिश्र। (इंडिया साइंस वायर)। जंगली जीवों के इंसानों से टकराव को लेकर किए गए एक देशव्यापी अध्ययन के मुताबिक वन्य जीवों के हमलों से निपटने की मौजूदा रणनीतियों के बावजूद फसलों, मवेशियों और जान-माल के नुकसान को कम नहीं किया जा सका है। भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक वन्य जीवों से मनुष्य के टकराव से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए इस समस्या से निपटने की प्रचलित रणनीतियों की समीक्षा करने की जरूरत है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार देश भर में 32 वन्य जीवों की प्रजातियां लोगों के जान-माल को गंभीर नुकसान पहुंचा रही हैं, जिसे देखते हुए इंसान एवं वन्य जीवों के बढ़ते टकराव की घटनाओं को रोका जाना जरूरी है। वर्ष 2011 से 2014 के दौरान पश्चिमी, मध्य एवं दक्षिण भारत के 11 वन्य जीव अभ्यारण्यों के आसपास मौजूद 2,855 गांवों के 5,196 परिवारों के वन्य जीवों से टकराव एवं उससे बचाव के पैटर्न का विश्लेषण करने के बाद अध्ययनकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस अध्ययन के नतीजे ह्यूमन डाइमेंशन्स ऑफ वाइल्ड लाइफ नामक शोध-पत्रिका में प्रकाशित किए गए हैं।
अध्ययन में शामिल 71 प्रतिशत परिवारों ने माना है कि जंगली जानवरों के कारण उनकी फसलों को नुकसान पहुंचा है, जबकि 17 प्रतिशत परिवारों के मुताबिक वन्य जीवों ने उनके मवेशियों को अपना शिकार बनाकर उन्हें नुकसान पहुंचाया है। तीन प्रतिशत परिवार ऐसे भी हैं, जिन्हें जंगली जानवरों के हमले में घायल होने से लेकर मौत की त्रासदी से भी गुजरना पड़ा है।
अध्ययन में शामिल 11 अभ्यारण्यों में से चार अभ्यारण्य जयसमंद, कुंभलगढ़, फुलवारी की नाल और सीतामाता उत्तर-पश्चिमी भारत, ताडोबा अंधेरी एवं कान्हा समेत दो अभ्यारण्य मध्य भारत और बाकी के पांच अभ्यारण्य काली, भद्रा, बिलीगिरी रंगास्वामी मंदिर, बंदीपुर एवं नागरहोले पश्चिमी घाट में मौजूद हैं।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में बंगलूरू स्थित सेंटर फॉर वाइल्ड-लाइफ स्टडीज से जुड़ी संरक्षणवादी वैज्ञानिक डॉ. कृति करंत और साहिला कुदालकर शामिल थीं। डॉ. कृति कारंत न्यूयॉर्क स्थित वाइल्ड-लाइफ कन्जर्वेशन सोसाइटी और अमेरिका के निकोलस स्कूल ऑफ एन्वायरमेंट से भी जुड़ी हैं।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार वन्य जीवों एवं इंसानों के साथ होने वाले टकराव को कम करने के लिए उपयुक्त नीतियां बनाने में यह अध्ययन मददगार साबित हो सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस समस्या की रोकथाम के लिए प्रभावी तकनीकों की पहचान के अलावा मुआवजे से संबंधित मौजूदा योजनाओं के सुदृढ़ीकरण और स्थानीय समुदायों, सरकार एवं संरक्षणवादी लोगों से आपसी बातचीत करना जरूरी है।
डॉ. साहिला कुदालकर के अनुसार ‘‘अत्यधिक गरीबी एवं सरकारी मुआवजे के बारे में जानकारी के अभाव के कारण वन्य जीवों के हमले से प्रभावित लोगों की जीविका पर सबसे बुरा असर पड़ता है।’’
इस अध्ययन के मुताबिक वन्य जीवों के कारण लोगों को औसतन 12,599 रुपये मूल्य की फसलों एवं 2,883 रुपये मूल्य के मवेशियों का नुकसान प्रतिवर्ष उठाना पड़ता है। इस तरह का नुकसान खेती एवं पशुपालन पर आश्रित भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है, जहां बहुसंख्य आबादी की आमदनी बेहद कम है।
डॉ. कारंत के अनुसार ‘‘वन्य जीवों से इंसानों के टकराव के समाधान के लिए लोगों और संगठनों द्वारा संरक्षण नीतियों एवं निवेश के लक्ष्यों की समीक्षा करने की आवश्यकता है। इस समस्या के बेहतर समाधान के लिए पूर्व चेतावनी तंत्र की स्थापना, मुआवजा एवं बीमा प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरूरत है।’’
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक ग्रामीण परिवार विभिन्न तकनीकों का उपयोग वन्य जीवों से अपनी फसलों, मवेशियों और संपत्ति को बचाने के लिए करते हैं। कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश के अभ्यारण्यों के आसपास रहने वाले लोग वन्य जीवों से बचाव के लिए रात में निगरानी, डराने के लिए यंत्र का उपयोग और बाड़ लगाने जैसे तरीकों का उपयोग प्रमुखता से करते हैं।
इन दोनों राज्यों में वन्य जीवों के कारण होने वाले नुकसान की घटनाएं सबसे अधिक दर्ज की गई हैं। जाहिर है, इस तरह की तकनीकें वन्य जीवों के उपद्रव से होने वाले नुकसान से बचाव के लिए प्रभावी नहीं रही हैं। देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले इन राज्यों में नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा भी अधिक दिया जाता है। इसके विपरीत राजस्थान में वन्य जीवों से फसलों एवं संपत्ति के बचाव के प्रयास सबसे कम किए जाते हैं। (इंडिया साइंस वायर)
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