भारतीय हॉकी के सुनहरे दौर के मजबूत स्तंभ थे बलबीर सिंह सीनियर

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अपने कौशल और उपलब्धियों के मामले में मेजर ध्यानचंद के समकक्ष रहे बलबीर सिंह सीनियर भारतीय हॉकी के स्वर्णिम दौर के आखिरी स्तंभ थे जिनके खेलने के दिनों में विश्व हॉकी में भारत की तूती बोलती थी।

नयी दिल्ली। अपने कौशल और उपलब्धियों के मामले में मेजर ध्यानचंद के समकक्ष रहे बलबीर सिंह सीनियर भारतीय हॉकी के स्वर्णिम दौर के आखिरी स्तंभ थे जिनके खेलने के दिनों में विश्व हॉकी में भारत की तूती बोलती थी। यह वह दौर था जब भारत के दो धुरंधरों मेजर ध्यानचंद और बलबीर सीनियर ने अंतरराष्ट्रीय हॉकी में भारत की उपस्थिति पूरी शिद्दत से दर्ज कराई थी। ध्यानचंद का 74 वर्ष की उम्र में 1979 में निधन हुआ जबकि बलबीर सिंह सीनियर ने सोमवार को 96 वर्ष की उम्र में आखिरी सांस ली। बतौर खिलाड़ी तीन ओलंपिक स्वर्ण (1948, 1952 और 1956) और बतौर मैनेजर एक विश्व कप (1975) जीत चुके बलबीर सीनियर के नाम ओलंपिक फाइनल (हेलसिंकी 1952) में सर्वाधिक पांच गोल का रिकार्ड है।

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दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सेंटर फारवर्ड में शुमार बलबीर के बारे में हॉकी विशेषज्ञों का मानना है कि वह ध्यानचंद की विरासत को आगे ले गए। ध्यानचंद ने गुलाम भारत में अपने हुनर की बानगी पेश की तो बलबीर सीनियर आजाद भारत में अपने सपनों को परवान चढाने की कोशिश में जुटी टीम के नायक थे। दोनों कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साथ नहीं खेले लेकिन दोनों के बीच अक्सर तुलना होती रही। विश्व कप 1975 जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान अजितपाल सिंह ने कहा ,‘‘ कोई तुलना है ही नहीं। दोनों हर विभाग में बराबर थे और दोनों ने तीन ओलंपिक स्वर्ण जीते।’’ उन्होंने कहा ,‘‘फर्क है तो इतना कि दोनों अलग अलग दौर में खेले।’’ भारतीय हॉकी में इतने बलबीर रहे हैं कि दूसरों से अलग करने के लिये उनके नाम के साथ सीनियर लगाना पड़ा।

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अजितपाल ने कहा ,‘‘ भारतीय हॉकी में कई बलबीर आये और गए लेकिन उनके जैसा कोई नहीं था।’’ यह तकदीर की ही बात है कि शुरूआती कुछ साल में उनकी उपलब्धियों पर गौर नहीं किया गया क्योंकि देश विभाजन की त्रासदी झेलकर उबर रहा था। उन्हें 1957 में पद्मश्री से नवाजा गया लेकिन बतौर खिलाड़ी और कोच तमाम उपलब्धियों के बावजूद उन्हें यही पुरस्कार सरकार से मिला। वह 1956 में ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान थे और 1958 एशियाईखेलों में रजत पदक विजेता टीम के भी सदस्य रहे। उनके कोच रहते भारत ने 1975 में एकमात्र विश्व कप जीता।

खेल से उनके रिश्ते को ट्राफियों और गोलों में नहीं तोला जा सकता। यह जीवन भर का प्यार था जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द गोल्डन हैट्रिक : माय हॉकी डेज ’ में कुछ यूं लिखा है।‘‘ हमारा प्यार लंदन में पनपा। हेलसिंकी में हमने शादी की और मेलबर्न हनीमून था। 11 साल (तोक्यो ओलंपिक 1964 से) बाद वह (हॉकी) मुझसे फिर तरोताजा होकर मिली।’’ उन्होंने लिखा ,‘‘ इस बार वह मुझे कुआलालम्पुर ले गई और हम फिर शिखर पर पहुंचे। मैं उसका इंतजार कर रहा था ..मेरी हॉकी परी।

डिस्क्लेमर: प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।


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