बौने लगते हैं पृथ्वी बचाने के प्रयास, जन भागीदारी की है दरकार

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अधिक से अधिक पेड़ लगाए आजादी के बाद से सतत रूप से कहा जा रहा है। हर साल देश में करोड़ों पोधें लगाए जाते हैं, सवाल है उनमें पनपते कितने हैं और कितने पेड़ बनते हैं। एक विशेषज्ञ की माने तो 10 फीसदी पोधे ही पेड़ बन पाते हैं। थोड़ी बहुत सार सम्भाल से कुछ पौधे बचते हैं।

अधिक से अधिक पेड़ लगाए, वायुमंडल को प्रदूषित नहीं करें,सौर ऊर्जा का उपयोग करे,सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग करे, सिंगल प्लास्टिक का उपयोग छोडे यह सन्देश आज पृथ्वी दिवस के मौके पर समाचार पत्रों में प्रकाशित एक विज्ञापन में देखने - पढ़ने को मिला। आंकड़ों के जाल में न उलझ कर पृथ्वी को बचाने के लिए कितना कारगर हो रहा है यह सन्देशआइए !, चिंतन करें।

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अधिक से अधिक पेड़ लगाए आजादी के बाद से सतत रूप से कहा जा रहा है। हर साल देश में करोड़ों पोधें लगाए जाते हैं, सवाल है उनमें पनपते कितने हैं और कितने पेड़ बनते हैं। एक विशेषज्ञ की माने तो  10 फीसदी पोधे ही पेड़ बन पाते हैं। थोड़ी बहुत सार सम्भाल से कुछ पौधे बचते हैं। एक बड़ी धनराशि इस अभियान पर व्यर्थ चली जाती है। दूसरी और जंगलों की अवैध कटाई बदस्तूर जारी है। जिम्मेदार आंखे मूंद कर करते - लूटते जंगल को अपने आर्थिक लाभ के लिए देखते रहते हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है, वन क्षेत्रों में अवैध खनन अलग मुद्दा हैं। इनके हौसलें इतने बुलंद होते हैं कि कोई रोकने का प्रयास करता है तो उन पर हमला करने में चूकते नहीं। ऐसे समाचार खूब पढ़ने को मिलते हैं। एक तरफ वृक्षारोपण पर धन की बेतहाशा बर्बादी दूसरी वनों का विनाश और वन भूमि पर अवैध खनन और  अतिक्रमण सब कुछ मिल कर पृथ्वी बचाने के प्रयासों को बौना बना देते हैं।

लगे हाथों हमारे महान पर्वतों की चर्चा भी करले। वनों का बड़ा भाग भी इनसे जुड़ा है। पृथ्वी का बड़ा भू-भाग पर्वतों से आच्छादित हैं। इनके उपादान हमारी अर्थ व्यवस्था के भी श्रोत हैं। पर्यटन के मजबूत आधार हैं पर लुप्त होती इनकी हरियाली, लोगों के जमावड़े से बढ़ती गर्मी, पहाड़ों पर बेतहाशा निर्माण, वृहत रूप से अतिक्रमण, विकास के लिए पर्वतों की जड़ों को खोखला करना जैसे कदमों से क्या हमारे सुरक्षा प्रहरी और पर्यटन का मज़ा देने वाले पहाड़ संकट में नहीं हैं।

बात आती है वायुमंडल को प्रदूषण से बचाने के प्रयासों की तो धरातल पर कहीं दिखाई नहीं देते। आम आदमी तो मजबूरी वश सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करता है, उसके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। दूसरी तरफ हर साल लाखों वाहन सड़कों पर उतर जाते हैं। 

हमने देखा किस तरह बढ़ते प्रदूषण से दिल्ली में इवन और ओड नंबर गाड़ियों का प्रयोग करना पड़ा। विकल्प के रूप में इल्ट्रोनिक वाहनों सामने आए हैं। इनका उपयोग अभी शैशव अवस्था में है। कारखानों की चिमनियां धुआं उगलती हैं। रासायनिक उद्योगों से निकलने वाली विषेली गेस हवा और पानी में जहर घोलती हैं। गंगा नदी के उद्गम स्थल पर बढ़ती गर्मी से ग्लेशियर तेजी से पिंघल रहे हैं। विशेषज्ञ चिंतित है ग्लेशियरों के इस स्थिति से कहीं गंगा नहीं के अस्तित्व पर खतरा न आजाए। देश की सबसे बड़ी और पावन गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए बड़ा अभियान चलना पड़ रहा है। देश की अधिकांश नदियां प्रदूषण की जड़ में हैं। प्रदूषण को बढ़ाने में महत्वपूर्ण कारक सिंगल प्लास्टिक का उपयोग नहीं करने का अभियान अभी दूर की कोड़ी जैसा है।

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कोयला, पानी, गैस से बनने वाली बिजली हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। कोयले खाने संकट में, जल सीमित ऐसे में सौर ऊर्जा के विकास पर अरबों की परियोजनाएं चल रही हैं। इस श्रोत से बिजली पैदा करना काफी मंहगा है। सरकार खेतों में घरों में और सार्वजनिक स्थानों में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करने के लिए अनुदान सहायता देती हैं। पिछले कुछ वर्षो के प्रयासों के बावजूद भी कितनी बिजली सौर ऊर्जा से उत्पादित कर पाए किसी से छिपा नहीं है। लोग बिजली के संकट को समझ नहीं रहे हैं और इस दिशा में उदासीनता अपनाए हुए हैं। 

इन सब मुद्दों पर जनता को सोचना होगा, चिंतन करना होगा, जागरूक बन कर आगे आना होगा और पहल करनी होगी तब ही हम हमारी वसुंधरा को बचा पाएंगे। सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयास जनता के सहयोग से ही फलीभूत हो सकेंगे। विकास भी हो और प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल और जमीन भी बचें रहें इसके लिए संतुलित और समन्वय की नीति पर चलने और जनता की सक्रिय भागीदारी होने पर ही प्रयासों का बौनापन दूर हो सकेगा और पृथ्वी दिवस की सार्थकता भी।

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

(लेखक राजस्थान के कोटा में स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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