विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस: विनाश से बचाने के लिये प्रकृति संरक्षण जरूरी
आप ही बताइये कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी।
विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस प्रत्येक वर्ष 28 जुलाई को मनाया जाता है। वर्तमान परिपे्रक्ष्य में कई प्रजाति के जीव−जंतु, प्राकृतिक स्रोत एवं वनस्पति विलुप्त हो रहे हैं। विलुप्त होते जीव−जंतु और वनस्पति की रक्षा के लिये विश्व−समुदाय को जागरूक करने के लिये ही इस दिवस को मनाया जाता है। आज चिन्तन का विषय न तो युद्ध है और न मानव अधिकार, न कोई विश्व की राजनैतिक घटना और न ही किसी देश की रक्षा का मामला है। चिन्तन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही गर्मी, सिकुड़ रहे जलस्रोत विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन− ये सब पृथ्वी एवं पृथ्वीवासियों के लिए सबसे बडे़ खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना ही विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस का ध्येय है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा हैं। जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं। पिछले दिनों पहाड़ों के शहर शिमला में पानी की भयावह कमी आ गई थी। अनेक शहर पानी की कमी से परेशान हैं। ये सब आजकल साधारण सी बात है। आज हम हर दिन किसी−न−किसी शहर में पीने के पानी की कमी के बारे में सुन सकते हैं।
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इस तरह की प्रकृति एवं पर्यावरण से जुड़ी विकराल स्थितयिों के प्रति सचेत एवं सावधान नहीं हुए तो भविष्य निश्चित ही खतरे में पड़ेगा। आज जरूरत हमारी पृथ्वी के पर्यावरण को स्वस्थ बनाये रखने की है, उसे संरक्षित करने की है। बहुत चिंता का विषय है कि खुद मनुष्य पृथ्वी के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है। कितनी विचित्र बात है कि एक आदमी ही ऐसा प्राणी है जिसने सब कुछ पाकर स्वयं को खो दिया है। आप ही बताइये कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु−पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियों बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अब वही मनुष्य अपने स्वार्थ एवं सुविधावाद के लिये सही तरीके से प्रकृति का संरक्षण न कर पा रहा है और उसके कारण बार−बार प्राकृतिक आपदाएं कहर बरपा रही है। रेगिस्तान में बाढ़ की बात अजीब है, लेकिन हम इनदिनों राजस्थान में अनेक शहरों में बाढ़ की विकराल स्थित किो देख रहे हैं। जब मनुष्य प्रकृति का संरक्षण नहीं कर पा रहा तो प्रकृति भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखा रही है। निरूसंदेह प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण आज हमारी मुख्य प्राथमिकता है। यह देखा गया है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है। अगर प्रकृति के साथ इस प्रकार से खिलवाड़ होती रही तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा।
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आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष दिया जाए, जिसमें मुख्यतरू धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं। इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे−धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। प्रकृति के संरक्षण को सभी देशों की सरकारों एवं विभिन्न गैर−राजनैतिक संगठनों ने बड़ी गम्भीरता से लिया है और इस पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है। ऐसे भी अनेक तरीके हैं जिनमें आम आदमी भी इनके संरक्षण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा सकता है। हमें शुद्ध हवा के लिए पेड़ों की आवश्यकता होती है, इसलिये अधिक से अधिक पेड़ लगाने की तरफ ध्यान दिया जाना जरूरी है। पृथ्वी का जल स्तर बड़ी तेजी से नीचे होता जा रहा है। हमें पानी का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए और पानी की अधिक से अधिक बचत करनी चाहिए। हमें वर्षा के जल को पुनरू उपयोग में लाने वाली प्रणाली को विकसित करना होगा। हमें बिजली की बर्बादी को भी रोकना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब हम अंधेरे में ही अपना जीवन−यापन करने को मजबूर हो जायेेंगे। हमें कागज के उपयोग को सीमित करना होगा, क्योंकि कागज पेड़ों की लकड़ी से बनता है जिसके लिए हमें बड़ी संख्या में पेड़ काटने पड़ते हैं। आजकल भूमि भी जहरीली होती जा रही है जिससे उसमें उगने वाली वनस्पतियों में विषाक्तता बढ़ती जा रही है। इसके लिए हमें गोबर की खाद का प्रयोग करना होगा, तभी हमारी भूमि बच सकती है। इसके लिए हमें गाय को बचाना होगा क्योंकि गाय से हमें अच्छा दूध, गोबर, गोमूत्र आदि प्राप्त होते हैं जो प्रकृति एवं मानव के लिए बहुत ही उपयोगी है। मनुष्य को अपनी जीविका चलाने के लिए सब्जियों, ईंधन, गैस, पानी, हवा एवं रोशनी की अत्यधिक आवश्यकता होती है। इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा पेड़−पौधे लगाने चाहिए, ताकि वातावरण स्वच्छ एवं शुद्ध रहे और पेड़ों की कटाई की भरपाई आसानी से की जा सके। गत दिनों लगभग पूरा देश प्रचंड गर्मी की चपेट में रहा। यह प्रचंड गमी पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति उपेक्षा का ही परिणाम है। गर्मी का अधिक अहसास होने का कारण हमारी सुविधावादी जीवनशैली है। यह गर्मी इसलिये भी बढ़ रही है कि हमने पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति घोर उपेक्षा बरती है। लगातार दी जा रही चेतावनियों को नजरअंदाज किया है। इसी कारण देखने में आ रहा है कि मौसम की मार से निपटने में हम पहले के मुकाबले कहीं न कहीं कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
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आधुनिक जीवनशैली, खानपान, रहन−सहन के बदलते तौर तरीकों ने हमें मौसम की मार का सामना करने के मामले में कमजोर कर दिया है। एअर कंडीशनर का ही उदाहरण लें। यही एअर कंडीशनर अपनी गरम हवा से वातावरण को असंतुलित बनाता है। हमारी सुविधावादी जीवनशैली से निकलने वाली विषैली गैसों के एक "अणु" में ओजोन के लाख अणुओं को नष्ट करने की क्षमता है। इन खतरों से हम सब वाकिफ हैं, पूरे देशवासियों को इस बार गहरे रूप में झकझोरा है। प्रचंड गर्मी में जीवन होम करने एवं पृथ्वी को विनाश की सीमा तक जाने से पहले बहुत कुछ करना चाहते हैं। पर कैसे लौटा पाएंगे देश को 20−30 साल पहले की स्थित मिंे? कैसे रोकेंगे कार्बन डाईआक्साइड और मिथेन गैस के उर्त्सजन को। गरमी के मौसम में पहाड़ी क्षेत्रों में जंगल धधक उठते हैं। उत्तराखंड के जंगल जलते रहे हैं। सवाल है कि जब ऐसी घटनाओं से हम हर साल दो−चार होते हैं तो भविष्य के लिए कोई सबक क्यों नहीं लेते। पिछले कुछ वर्षों से बार−बार सूखे का सामना कर रहे महाराष्ट्र के विदर्भ और उत्तर प्रदेश−मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में पीने के पानी की समस्या बढ़ गई है। इन इलाकों के कई जलाशयों में पानी का स्तर क्षमता का 10 फीसदी ही रह गया है, जिससे कुछ फसलें संकटग्रस्त हो गई हैं। लेकिन केवल सरकारी प्रयत्नों से इस संकट से उपरत नहीं हुआ जा सकता। सरकारी प्रयत्नों से भी ज्यादा आवश्यक है−मानव स्वभाव का प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित हो। सहज रिश्ता कायम हो। जीवन शैली में बदलाव आये। हर क्षेत्र में संयम की सीमा बने। हर नागरिक जागरूक हो। हमारे दिमागों में भी जो स्वार्थ एवं सुविधावाद का शैतान बैठा हुआ है, उस पर अंकुश लगे। मनुष्य का आंतरिक रसायन भी बदले, तो बाहरी प्रदूषण में भी परिवर्तन आ सकता है, सुख एवं सुविधावाद के प्रदूषण के अणु कितने विनाशकारी होते हैं, सहज ही विनाश का रूप ले रही प्रकृति की विनाशलीला को देखकर कहा जा सकता है। प्रकृति संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अंत दिखाई दे रहा है। इस स्थित किो ध्यान में रखकर सन 1992 में ब्राजील में विश्व के 174 देशों का 'पृथ्वी सम्मेलन' आयोजित किया गया था। इसके पश्चात् सन 2002 में जोहान्सबर्ग में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित कर विश्व के सभी देशों को पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देने के लिए अनेक उपाय सुझाए गये। वस्तुतरू प्रकृति के संरक्षण से ही धरती पर जीवन का संरक्षण हो सकता है। पिछले कुछ समय से दुनिया में पर्यावरण के विनाश एवं प्रकृति प्रदूषण को लेकर काफी चर्चा हो रही है। मानव की गतिविधियों के कारण पृथ्वी एवं प्रकृति के वायुमंडल पर जो विषैले असर पड़ रहे हैं, उनसे राजनेता, वैज्ञानिक, धर्मगुरु और सामाजिक कार्यकर्ता भी चिंतित हैं। चूंकि प्रकृति मनुष्य की हर जरूरत को पूरा करती है, इसलिए यह जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति की है कि वह प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी ओर से भी कुछ प्रयास करे।
ललित गर्ग
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