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अक्षय तृतीया का महत्व, पूजा का मुहूर्त और पूजन विधि
- शुभा दुबे
- अप्रैल 16, 2018 17:35
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अक्षय तृतीया को आखातीज भी कहा जाता है। शास्त्रों के मुताबिक इस दिन से सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ माना जाता है। इस दिन किया हुआ तप, दान अक्षय फलदायक होता है। इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहते हैं।
अक्षय तृतीया को आखातीज भी कहा जाता है। शास्त्रों के मुताबिक इस दिन से सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ माना जाता है। इस दिन किया हुआ तप, दान अक्षय फलदायक होता है। इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। यदि यह व्रत सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र में पड़ता है तो महा फलदायक माना जाता है। इस दिन प्रातः काल पंखा, चावल, नमक, घी, चीनी, सब्जी, फल, इमली, वस्त्र के दान का बहुत महत्व माना जाता है।
कैसे करें पूजा
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित की जाती है। इसके बाद फल, फूल, बरतन तथा वस्त्र आदि ब्राह्मणों को दान के रूप में दिये जाते हैं। इस दिन ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये।
पूजा का मुहूर्त
अक्षय तृतीया पर इस वर्ष पूजा का सर्वश्रेष्ठ समय सुबह 6 बजकर 7 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 26 मिनट तक है। इसके अलावा यदि आप सोना खरीदना चाह रहे हैं तो 18 अप्रैल को दोपहर तीन बजकर 45 मिनट से लेकर 19 अप्रैल 2018 के दोपहर 1 बजकर 29 मिनट तक खरीद सकते हैं।
भगवान देते हैं दर्शन
इस दिन श्री बद्रीनारायण जी के पट खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। इस दिन ठाकुर द्वारे जाकर या बद्रीनारायण जी का चित्र सिंहासन पर रखकर उन्हें भीगी हुई चने की दाल और मिश्री का भोग लगाते हैं। कहते हैं भगवान परशुराम जी का अवतरण भी इसी दिन हुआ था।
दान प्रधान है यह पर्व
यह पर्व दान प्रधान माना गया है। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। अक्षय तृतीया के दिन गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान बेहद पुण्यदायी माना गया है। पंचांग के मुताबिक यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है।
कर सकते हैं कोई भी मांगलिक कार्य
इस पर्व के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह−प्रवेश, वस्त्र−आभूषणों की खरीददारी या घर, वाहन आदि की खरीददारी आदि कार्य किये जा सकते हैं। पुराणों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस दिन अपने पितरों को किया गया तर्पण भी अक्षय फल प्रदान करता है। लोग इस दिन गंगा स्नान करते हैं क्योंकि मान्यता है कि इससे तथा भगवत पूजन से उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। पुरानी मान्यता यह भी है कि इस दिन यदि अपनी गलतियों के लिए भगवान से क्षमा मांगी जाए तो वह माफ कर देते हैं।
खूब खरीदें सोना
यह माना जाता है कि इस दिन ख़रीदा गया सोना कभी समाप्त नहीं होता, क्योंकि भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी स्वयं उसकी रक्षा करते हैं। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार यह दिन सौभाग्य और सफलता का सूचक है।
कथा− अक्षय तृतीया का महत्व युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा था। तब श्रीकृष्ण बोले, 'राजन! यह तिथि परम पुण्यमयी है। इस दिन दोपहर से पूर्व स्नान, जप, तप, होम तथा दान आदि करने वाला महाभाग अक्षय पुण्यफल का भागी होता है। इसी दिन से सतयुग का प्रारम्भ होता है। इस पर्व से जुड़ी एक प्रचलित कथा इस प्रकार है−
प्राचीन काल में सदाचारी तथा देव ब्राह्म्णों में श्रद्धा रखने वाला धर्मदास नामक एक वैश्य था। उसका परिवार बहुत बड़ा था। इसलिए वह सदैव व्याकुल रहता था। उसने किसी से व्रत के माहात्म्य को सुना। कालान्तर में जब यह पर्व आया तो उसने गंगा स्नान किया। विधिपूर्वक देवी देवताओं की पूजा की। गोले के लड्डू, पंखा, जल से भरे घड़े, जौ, गेहूं, नमक, सत्तू, दही, चावल, गुड़, सोना तथा वस्त्र आदि दिव्य वस्तुएं ब्राह्मणों को दान कीं। स्त्री के बार−बार मना करने, कुटुम्बजनों से चिंतित रहने तथा बुढ़ापे के कारण अनेक रोगों से पीड़ित होने पर भी वह अपने धर्म कर्म और दान पुण्य से विमुख न हुआ। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना। अक्षय तृतीया के दान के प्रभाव से ही वह बहुत धनी तथा प्रतापी बना। वैभव संपन्न होने पर भी उसकी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं हुई।
-शुभा दुबे
बुध प्रदोष व्रत से आती है घर में सुख-शांति
- प्रज्ञा पाण्डेय
- फरवरी 24, 2021 12:16
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प्रदोष व्रत त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। इस बार 24 फरवरी 2021 (बुधवार) को माघ महीने के शुक्ल पक्ष का प्रदोष व्रत मनाया जा रहा है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना की जाती है।
आज बुध प्रदोष व्रत है। बुधवार के दिन प्रदोष व्रत होने के कारण इसे बुध प्रदोष व्रत कहा जाता है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा का विधान है तो आइए हम आपको बुध प्रदोष व्रत के विधि तथा महत्व के बारे में बताते हैं।
जानें माघ शुक्ल प्रदोष व्रत के बारे में
प्रदोष व्रत त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। इस बार 24 फरवरी 2021 (बुधवार) को माघ महीने के शुक्ल पक्ष का प्रदोष व्रत मनाया जा रहा है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। साथ ही प्रदोष काल में ही प्रदोष व्रत की पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि प्रदोष के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की एक साथ पूजा करने से कई जन्मों के पाप धुल जाते हैं और मन पवित्र हो जाता है।
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सभी इच्छाओं को पूरा करता है प्रदोष व्रत
प्रदोष व्रत में शिव जी की आराधना होती है। ऐसे जो भी व्यक्ति सुख-सुविधाएं चाहते है या धन अर्जन की इच्छा रखते हैं, उनके लिए इस व्रत को करने की परंपरा है। जिस शुक्रवार को प्रदोष पड़े उस दिन इसे करना चाहिए। दीर्घायु की कामना से भी इस व्रत को किया जाता है। धार्मिक शास्त्रों की मानें तो जिस त्रयोदशी को रविवार पड़े उस दिन इस व्रत को आरंभ करना चाहिए। संतान की प्राप्ति के लिए शनि त्रयोदशी का व्रत करें। साथ ही कर्ज से मुक्ति हेतु सोम प्रदोष का व्रत करें।
बुध प्रदोष व्रत में ऐसे करें पूजा
इस दिन सबसे पहले प्रदोष व्रत करने के लिए आपको सुबह जल्दी चाहिए। उसके बाद स्नान के पश्चात स्वच्छ वस्त्र पहनें और भगवान शिव का ध्यान करें। इसके बाद भगवान शिव का अभिषेक करना करें। पंचामृत और पंचमेवा का भगवान को भोग लगाएं उसके बाद व्रत का संकल्प लें। शाम में भगवान शिव की पूजा से पहले स्नान अवश्य करें तथा प्रदोष काल में शिव जी की आराधना प्रारम्भ करें।
जानें बुध प्रदोष व्रत की पौराणिक कथा
हिन्दू धर्म में बुद्ध प्रदोष व्रत के विषय में एक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक पति अपनी पत्नी को लेने उसके मायके गया। ससुराल में घर के लोग बुधवार के दिन दामाद और बेटी को विदा न करने की आग्रह करने लगे। लेकिन पति अपने ससुराल वाली की बात पर ध्यान नहीं दिया और उसी दिन अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने घर को चल दिया। रास्ते में दोनों पति-पत्नी जाने लगे तभी पत्नी को प्यास लगी तो पति ने कहा मैं पानी की व्यवस्था करके आता हूं। वह पानी लेने जंगल में चला गया। पति के लौटने पर उसने देखा कि पत्नी किसी और के साथ हंस रही है और दूसरे के लोटे से पानी पी रही है। यह देखकर वह काफी क्रोधित हो गया। तब उसने सामने जाकर देखा तो वहां पत्नी जिसके साथ बात कर रही थी वे कोई और नहीं बल्कि उसी का हमशक्ल था। पत्नी भी दोनों में सही कौन है इसकी पहचान नहीं कर पा रही थी ऐसे में पति ने भगवान शिव से प्रार्थना किया और कहा कि पत्नी के मायके पक्ष की बात न मान कर उसने बड़ी भूल की है। यदि वह सकुशल घर पहुंच जाएगा तो नियमपूर्वक बुधवार त्रियोदशी को प्रदोष का व्रत करेगा। ऐसा करते ही भगवान शिव की कृपा से दूसरा हमशक्ल गायब हो गया। उसी दिन से दोनों पति-पत्नी बुध प्रदोष का व्रत करने लगे।
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बुध प्रदोष व्रत में इन गलतियों से बचें
बुध प्रदोष व्रत विशेष प्रकार का व्रत है इसलिए इसमें किसी भी प्रकार की गलती से बचें। पंडितों का मानना है कि इस दिन साफ-सफाई का विशेष ख्याल रखें। इस दिन नहाना नहीं भूलें। काले वस्त्र न पहनें और व्रत रखें। क्रोध पर नियंत्रण रखें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। साथ ही मांस-मदिरा का सेवन न कर केवल शाकाहार भोजन ग्रहण करें।
बुध प्रदोष व्रत का महत्व
हिन्दू धर्म में प्रदोष व्रत का खास महत्व होता है। हमारे शास्त्रों में वर्णन किया है कि इस दिन भगवान शिव की पूजा करने से घर में सुख-शांति आती है। संतान की इच्छा रखने वाली स्त्रियों के लिए यह व्रत फायदेमंद होता है। अच्छे वर की कामना से कुंवारी कन्याएं इस व्रत को करती हैं।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- सुखी भारती
- फरवरी 16, 2021 11:42
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माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें।
पीले−पीले फूलों से सजी हुई धरती की गेंद, बड़े−छोटे पेड़ों पर फूट रही नईं कोपलें, जीव जंतुओं के मुख पर नई ऋतु की आमद की खुशी, ठंडी एवं शुष्क हवाओं के जाने का समय। यह सब निशानियां हैं एक सुहावनी एवं महमोहक ऋतु के आगमन की। जिसे बसंत ऋतु कहा जाता है। भारत में मुख्यतः छह ऋतुएं मानी गईं हैं एवं प्रत्येक ऋतु दो महीनों की अवधि की होती है। महान कवि कालीदास जी ने 'ऋतु संहार' ग्रंथ में सभी ऋतुओं की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। भगवान श्री कृष्ण जी भी गीता के अंदर कहते हैं−
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।
अर्थात् मैं महीनों में मार्गशीर्ष−अगहन हूँ। और ऋतुओं में ऋतुराज बसंत हूँ।
यह ऋतुराज या बसंत का मौसम इस माह भी अंगड़ाई लेकर झूम उठा है। इसकी शुरुआत माघ शुक्ल पंचमी के दिन होती है। बसंत पंचमी को 'श्री पंचमी' कह कर भी संबोधित किया जाता है। इसका भाव है कि इस पर्व में भारतीय ऋषियों का ओजस्वी तत्व अवश्य निहित होगा। आए जानते हैं कि वास्तव में वह ओजस्वी तत्व आखिर है क्या?
अगर हम इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहते हैं तो हमें बसंत पंचमी के एक अन्य नाम पर भी चर्चा करनी पड़ेगी। जिसे 'विद्या जयंती' कहा जाता है। जोकि विद्या देवी 'सरस्वती' के जन्म अथवा प्रकाट्य का दिवस है।
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कहते हैं कि जब इस सृष्टि का आरंभ हुआ तो ब्रह्मा जी ने अदभुत् सृजन कार्य किया। परंतु इसके बावजूद भी वे अपने सृजन से संतुष्ट नहीं थे। इसका कारण था कि उनके द्वारा बनाई गई संपूर्ण सृष्टि निःशब्द थी। सब ओर बस एक सन्नाटा व मौन था। ऐसे में श्री ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु जी से आज्ञा प्राप्त कर एक दैवी शक्ति का सृजन किया− जिन्हें आज हम देवी सरस्वती जी के रूप में जानते हैं। यह दैवी शक्ति श्री ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट होने के कारण 'वाग देवी' भी कहलाईं।
वागदेवी माँ सरस्वती जी वीणा−वादिनी हैं। उनके प्रकट होते ही संपूर्ण सृष्टि संगीतमय हो गई। इस सृष्टि के कण−कण से मधुर ध्वनियां झंकृत हो उठीं, जल धराएँ कल−कल मधुर निनाद से गुनगुनाने लगीं। पवन की चाल अद्भुत सरसराहट से गुंजायमान होकर बहने लगी। सृष्टि के हर जीव के कंठ में वाणी अंगड़ाई लेने लगी। जड़−चेतनमय जगत जो अब तक निःशब्द था वो शब्दमय बन गया। सरस्वती नाम में निहितार्थ भी तो यहीं हैं−सरस़+मुतुप् अर्थात जो रसमय प्रवाह से युक्त है, सरस है, प्रवाह अथवा गतिमान है। संगीत व शब्दमय वाणी को प्रवाहमान करने वाली विद्या एवं ज्ञान को भी प्रवाहित कर देती हैं।
माँ सरस्वती का चतुर्भुज स्वरूप हमारे सामने उनके अलौलिक व दिव्य अति दिव्य रूप को दर्शाता है। माँ के चारों हाथों में सुशोभित 'चार अलंकार' माता शारदा की विद्या दात्री महिमा को उजागर करते हैं। ये अलंकार हैं− वीणा, पुस्तक, अक्षमाला एवं वर्द मुद्रा। ये चारों अलंकार प्रत्यक्ष तौर पर विद्या के ही साधन हैं। वीणा संगीत विद्या की प्रतीक है। पुस्तक 'साहित्यिक या शास्त्रीय विद्या' की द्योतक है। अक्षमाला 'अक्षरों या वर्णों की श्रृखंलाबद्ध लड़ी है।
इस अक्षमाला की अद्भुतता पर ऋषियों ने एक सम्पूर्ण उपनिषद् की रचना की है। यह है−अक्षमालिकोपनिषद्'। उपनिषद् के आरम्भ में प्रजापति, 'भगवान कार्तिकेय' से प्रश्न करते हैं−सा किं लक्षण'−अक्षमाला का लक्षण क्या है? 'का प्रतिष्ठा'...किं फलं चेति'−अक्षमाला की क्या प्रतिष्ठा है? क्या फल है?
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इन सब प्रश्नों के उत्तर स्वरूप भगवान कार्तिकेय बताते हैं कि अक्षमाला के एक−एक अक्ष (मनके) या वर्ण में दैवीय गुण समाहित हैं। एक−एक वर्ण दिव्य गुणों से प्रपन्न है। उदारणतः−
ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ।
अर्थात् हे 'अ'−कार! आप मृत्यु को जीतने वाले हैं, सर्वव्यापी हैं। आप माला के इस प्रथम अक्ष (मनके) में स्थित हो जाओ।
ओमाङ्काराकर्षणात्मक सर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ।
अर्थात् हे 'आ−कार' तुम आकर्षण शक्ति से ओतप्रोत हो और सर्वत्र संव्याप्त हो। तुम माला के दूसरे अक्ष में स्थित हो जाओ।
ओमाङ्कार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठा।
अर्थात् हे 'ए−कार! तुम सभी को वश में करने वाले तथा शुद्ध सत्त्व वाले हो। तुम माला के ग्यारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। इस प्रकार अक्षमालिकोपनिषद् में प्रत्येक वर्ण में समाई दिव्यता को उजागर किया गया है। आगे भगवान कार्तिकेय यहाँ तक कहते हैं कि पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि के देवगण (दैवी शक्तियाँ) सभी इस अक्षमाला में समाहित हैं−
ये देवाः पृथ्विीपदस्तेभ्यो...अन्तरिक्षसदस्तेभ्य...
दिविषदस्तेभ्यो...नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु
अर्थात् जो देवगण पृथ्वी में, अंतरिक्ष में और स्वर्ग में निवास कर रहे हैं वे सभी मेरी इस अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों।
इससे आगे के मंत्रों में कार्तिकेय जी ने कहा कि समस्त विद्याओं और कलाओं की स्रोत यह अक्षमाला ही है−ये मंत्र य विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्य...अर्थात् इस लोक में जो सारे मंत्र और सारी विद्याएँ एवं कलाएँ विद्यमान हैं उन सभी को कोटिश−कोटिश नमन है। इनकी शक्तियाँ मेरी अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों।
माँ सरस्वती का वरद मुद्रा में उठा हुआ चौथा हाथ इस दिव्य गुणों वाली विद्या का ही द्योतक एवं आशीष देता है।
एक भारतीय होने के नाते हमें गर्व होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में विद्या और विद्या की देवी का स्वरूप कितना सकारात्मक, कितना शुद्ध एवं दिव्य दर्शाया गया है। लेकिन आज के परिवेश में पढ़े लिखे वर्ग को देखिए। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि पढ़ाई ने उन्हें अहंकारी बना दिया है। अकड़बाज एवं तानाशाह बना कर रख दिया है। जिनकी नाक की नोक पर गुस्सा हर समय आसन जमाए बैठा रहता है। भौहें तनी और दिमाग गर्म रहता है। यह पढ़ा लिखा वर्ग तर्कों के बाणों का तुनीर भर अपनी पीठ पर लादे रखता है। इनकी वाणी में ज्वालाएँ भरी हुईं हैं जो किसी को भी झुलसाने की क्षमता से ओतप्रोत हैं। स्वार्थमय और आत्मप्रशंसा का मद उन्हें आठों पहर ही मदहोश रखता है।
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जरा सोचिए! क्या माँ शारदा का वरद हस्त इतना विकृत परिणाम दे सकता है? विद्वजनों का चिंतन कहता है कि यह विद्या नहीं अपितु मात्र कोरी शिक्षा है। आज केवल उन्हें कागज़ पर उकेर कर वर्णों को रटाया जाता है। वे उन्हें अक्षमाला के मनकों का साक्षात्कार नहीं करवा रहे। हमारे शास्त्रों का कथन है− 'विद्या ददाति विनयं' विद्या मानव को विनयशील बनाती है। प्लेटो ने भी कहा Knowledge is Virtue ज्ञान एक महान सद्गुण है। इसलिए विद्वता के साथ सद्वृत्तियों को भी जरूर धारण करें।
हम देखते हैं कि माँ शारदा के रूप सज्जा में बहुधा श्वेत रंग ही दृष्टिगोचर होता है। वेद का कथन है−
या कुन्देन्दु तुषार हार ध्वला या शुभ्रवस्त्रावृता...
भाव माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें। हम जानते हैं कि श्वेत रंग उजाले की ओर इंगित करता है। पवित्रता एवं शुद्धता का पर्याय है। शुभ और श्री का द्योतक है। माता शारदा का वाहन हंस भी दूध के समान अति धवल है। जोकि नीर−क्षीर विवेक को दर्शाता है। इसलिए बसंत पंचमी पर्व को माँ सरस्वती के प्राक्टय दिवस के रूप में मनाने से तात्पर्य है कि हमारे जीवन में संपूर्ण सुविद्या का प्रकटीकरण हो जाए।
बसंत पंचमी के बाद ऋतुराज बसंत का मनमोहक मौसम शुरू होता है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहलहा उठती हैं। सरसों के पीले फूल धरती माँ को पीली साड़ी पहने किसी सुंदर स्त्री के समान अलंकृत कर देते हैं। आमों पर बौर और कोयल का मीठा संगीत हमें एक अलौकिक आनंद से सराबोर कर देता है।
बसंत के मौसम में ठंड की ठिठुरन नहीं रहती। और न ही गर्मी का ताप हमें जलाता है। बयार शीतल एवं सुहावनी हो जाती है। जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सौम्यता धारण कर लेते हैं। मौसम अपने पावन रूप में प्रकट हो जाता है।
बसंत के दिन विद्या की देवी प्रकट होती हैं और उनके प्रकट होते ही प्रकृति ने अपनी उग्रता छोड़ दी। अगर हम गहराई से देखेंगे तो इसमें मानव समाज के लिए बहुत ही प्रेरणादायक संदेश छुपा हुआ है कि जब हमारे भीतर विद्या जागृत हो जाएगी तो हमें विनयशील बन जाना चाहिए। यही विद्या का रहस्य है। विद्या केवल मस्तिष्क को ही नहीं जगाती अपितु हमारी चेतना को भी परिवर्तित करती है। ऋग्वेद का कथन है−
प्रणो: देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनांमणित्रयवतु:।
अर्थात् माँ सरस्वती परम चेतना हैं जो हमारी बुद्धि प्रज्ञा एवं मनोवृत्तियों को सद्मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं। अगर हम ऊँची डिग्रियां प्राप्त कर भी विनयशील नहीं बने तो समझ लेना हमने सच्ची शिक्षा हासिल नहीं की। और न ही हमारे जीवन में माँ शारदा का प्रकटीकरण हुआ और न ही ऋतुराज बसंत का।
-सुखी भारती
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- शुभा दुबे
- फरवरी 15, 2021 19:08
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वसंत पंचमी के दिन घरों में पीले रंग के ही पकवान बनाए जाते हैं। पीला रंग इस बात का द्योतक होता है कि फसलें पकने वाली हैं और समृद्धि द्वार पर खड़ी है। पूजन के समय माँ सरस्वती को पीली वस्तुओं का ही भोग लगाएँ, पीले फूल चढ़ाएँ और घी का दीपक जलाकर आरती करें।
माँ सरस्वती के पूजन का दिवस है वसंत पंचमी। देश भर में धूमधाम से मनाये जाने वाले इस पर्व से ही वसंत ऋतु की शुरुआत मानी जाती है। इस पर्व से जुड़ी खास बात यह है कि वसंत पंचमी का उत्सव सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि नेपाल और पश्चिमोत्तर बांग्लादेश समेत कई देशों में मनाया जाता है। इस दिन सभी विद्यालयों और महाविद्यालयों व गुरुकुलों में माँ सरस्वती का पूजन किया जाता है। जैसे विजयादशमी के दिन सैनिक अपने शस्त्रों का, व्यास पूर्णिमा के दिन विद्वान अपनी पुस्तकों का और दीपावली के दिन व्यापारी अपने बही खातों का पूजन करते हैं उसी प्रकार कलाकार इस दिन अपने वाद्य यंत्रों का पूजन करते हैं और माँ सरस्वती की वंदना करते हैं।
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वसंत पंचमी पूजन
वसंत पंचमी के दिन विष्णु पूजन का भी विशेष महत्व है। इसी दिन कामदेव के साथ रति का भी पूजन होता है। भगवान श्रीकृष्ण इस उत्सव के अधिदेवता हैं। इसीलिए ब्रज प्रदेश में आज के दिन राधा तथा कृष्ण के आनंद विनोद की लीलाएं बड़ी धूमधाम से मनाई जाती हैं। इस दिन सरस्वती पूजन से पूर्व विधिपूर्वक कलश की स्थापना करके गणेश, सूर्य, विष्णु तथा महादेव की पूजा करनी चाहिए। वसंत पंचमी पर्व पर पीले वस्त्र पहने जाते हैं और हल्दी से मां सरस्वती की पूजा की जाती है। इस दिन हल्दी का ही तिलक लगाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन घरों में पीले रंग के ही पकवान बनाए जाते हैं। पीला रंग इस बात का द्योतक होता है कि फसलें पकने वाली हैं और समृद्धि द्वार पर खड़ी है। पूजन के समय माँ सरस्वती को पीली वस्तुओं का ही भोग लगाएँ, पीले फूल चढ़ाएँ और घी का दीपक जलाकर आरती करें।
वसंत पंचमी से जुड़ी धार्मिक मान्यताएँ
वसंत पंचमी के दिन मनुष्यों को वाणी की शक्ति मिली थी जिसके बारे में कहा जाता है कि परमपिता ने सृष्टि का कामकाज सुचारू रूप से चलाने के लिए कमंडल से जल लेकर चारों दिशाओं में छिड़का। इस जल से हाथ में वीणा धारण किए जो शक्ति प्रगट हुईं, वह सरस्वती कहलाईं। उनके वीणा का तार छेड़ते ही तीनों लोकों में कंपन हो गया और सबको शब्द और वाणी मिल गई। वसंत पंचमी के दिन विद्यालयों में देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। इस दिन घरों में भी देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। इस दिन से बच्चों को विद्यारंभ कराना शुभ माना जाता है।
वसंत पंचमी का सामाजिक महत्व
वसंत पंचमी के दिन से ही होली की तैयारी भी शुरू हो जाती है। उत्तर प्रदेश में इसी दिन से फाग उड़ाना प्रारम्भ करते हैं जिसका क्रम फाल्गुन की पूर्णिमा तक चलता है। वसंत पंचमी की तिथि विवाह मुहूर्तों के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस शुभ दिन का इंतजार विवाह करने वाले लोगों को साल भर से रहता है। इस पर्व पर सभी प्रकार के मांगलिक कार्य करना बेहद शुभ माना जाता है।
वसंत की छटा ही निराली है
वसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। इस दिन से धार्मिक, प्राकृतिक और सामाजिक जीवन में भी बदलाव आने लगता है। वसंत ऋतु के दौरान फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों चमकने लगता है, जौ और गेहूं की बालियां खिल उठती हैं और इधर उधर रंगबिरंगी तितलियां उड़ती दिखने लगती हैं। इस पर्व को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। पक्षियों के कलरव, भौरों का गुंजार तथा पुष्पों की मादकता से युक्त वातावरण वसंत ऋतु की अपनी विशेषता है।
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वसंत पंचमी के दिन श्रद्धालु गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों में डुबकी लगाने के बाद मां सरस्वती की आराधना करते हैं। उत्तराखंड के हरिद्वार और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में तो श्रद्धालुओं की अच्छी खासी भीड़ रहती है। इस पर्व पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु गंगा और संगम के तट पर पूजा अर्चना करने आते हैं। इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड व अन्य राज्यों से श्रद्धालु हिमाचल प्रदेश के तात्पानी में एकत्रित होते हैं और वहां गर्म झरनों में पवित्र स्नान करते हैं।
-शुभा दुबे
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