बसंत पंचमी को श्री पंचमी भी कहा जाता है, इस पर्व में ऋषियों का ओजस्वी तत्व निहित है

basant panchami
सुखी भारती । Feb 16 2021 11:42AM

माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें।

पीले−पीले फूलों से सजी हुई धरती की गेंद, बड़े−छोटे पेड़ों पर फूट रही नईं कोपलें, जीव जंतुओं के मुख पर नई ऋतु की आमद की खुशी, ठंडी एवं शुष्क हवाओं के जाने का समय। यह सब निशानियां हैं एक सुहावनी एवं महमोहक ऋतु के आगमन की। जिसे बसंत ऋतु कहा जाता है। भारत में मुख्यतः छह ऋतुएं मानी गईं हैं एवं प्रत्येक ऋतु दो महीनों की अवधि की होती है। महान कवि कालीदास जी ने 'ऋतु संहार' ग्रंथ में सभी ऋतुओं की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। भगवान श्री कृष्ण जी भी गीता के अंदर कहते हैं−

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।

अर्थात् मैं महीनों में मार्गशीर्ष−अगहन हूँ। और ऋतुओं में ऋतुराज बसंत हूँ। 

यह ऋतुराज या बसंत का मौसम इस माह भी अंगड़ाई लेकर झूम उठा है। इसकी शुरुआत माघ शुक्ल पंचमी के दिन होती है। बसंत पंचमी को 'श्री पंचमी' कह कर भी संबोधित किया जाता है। इसका भाव है कि इस पर्व में भारतीय ऋषियों का ओजस्वी तत्व अवश्य निहित होगा। आए जानते हैं कि वास्तव में वह ओजस्वी तत्व आखिर है क्या? 

अगर हम इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहते हैं तो हमें बसंत पंचमी के एक अन्य नाम पर भी चर्चा करनी पड़ेगी। जिसे 'विद्या जयंती' कहा जाता है। जोकि विद्या देवी 'सरस्वती' के जन्म अथवा प्रकाट्य का दिवस है। 

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कहते हैं कि जब इस सृष्टि का आरंभ हुआ तो ब्रह्मा जी ने अदभुत् सृजन कार्य किया। परंतु इसके बावजूद भी वे अपने सृजन से संतुष्ट नहीं थे। इसका कारण था कि उनके द्वारा बनाई गई संपूर्ण सृष्टि निःशब्द थी। सब ओर बस एक सन्नाटा व मौन था। ऐसे में श्री ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु जी से आज्ञा प्राप्त कर एक दैवी शक्ति का सृजन किया− जिन्हें आज हम देवी सरस्वती जी के रूप में जानते हैं। यह दैवी शक्ति श्री ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट होने के कारण 'वाग देवी' भी कहलाईं। 

वागदेवी माँ सरस्वती जी वीणा−वादिनी हैं। उनके प्रकट होते ही संपूर्ण सृष्टि संगीतमय हो गई। इस सृष्टि के कण−कण से मधुर ध्वनियां झंकृत हो उठीं, जल धराएँ कल−कल मधुर निनाद से गुनगुनाने लगीं। पवन की चाल अद्भुत सरसराहट से गुंजायमान होकर बहने लगी। सृष्टि के हर जीव के कंठ में वाणी अंगड़ाई लेने लगी। जड़−चेतनमय जगत जो अब तक निःशब्द था वो शब्दमय बन गया। सरस्वती नाम में निहितार्थ भी तो यहीं हैं−सरस़+मुतुप् अर्थात जो रसमय प्रवाह से युक्त है, सरस है, प्रवाह अथवा गतिमान है। संगीत व शब्दमय वाणी को प्रवाहमान करने वाली विद्या एवं ज्ञान को भी प्रवाहित कर देती हैं।

माँ सरस्वती का चतुर्भुज स्वरूप हमारे सामने उनके अलौलिक व दिव्य अति दिव्य रूप को दर्शाता है। माँ के चारों हाथों में सुशोभित 'चार अलंकार' माता शारदा की विद्या दात्री महिमा को उजागर करते हैं। ये अलंकार हैं− वीणा, पुस्तक, अक्षमाला एवं वर्द मुद्रा। ये चारों अलंकार प्रत्यक्ष तौर पर विद्या के ही साधन हैं। वीणा संगीत विद्या की प्रतीक है। पुस्तक 'साहित्यिक या शास्त्रीय विद्या' की द्योतक है। अक्षमाला 'अक्षरों या वर्णों की श्रृखंलाबद्ध लड़ी है। 

इस अक्षमाला की अद्भुतता पर ऋषियों ने एक सम्पूर्ण उपनिषद् की रचना की है। यह है−अक्षमालिकोपनिषद्'। उपनिषद् के आरम्भ में प्रजापति, 'भगवान कार्तिकेय' से प्रश्न करते हैं−सा किं लक्षण'−अक्षमाला का लक्षण क्या है? 'का प्रतिष्ठा'...किं फलं चेति'−अक्षमाला की क्या प्रतिष्ठा है? क्या फल है? 

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इन सब प्रश्नों के उत्तर स्वरूप भगवान कार्तिकेय बताते हैं कि अक्षमाला के एक−एक अक्ष (मनके) या वर्ण में दैवीय गुण समाहित हैं। एक−एक वर्ण दिव्य गुणों से प्रपन्न है। उदारणतः−

ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ।

अर्थात् हे 'अ'−कार! आप मृत्यु को जीतने वाले हैं, सर्वव्यापी हैं। आप माला के इस प्रथम अक्ष (मनके) में स्थित हो जाओ।

ओमाङ्काराकर्षणात्मक सर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ।

अर्थात् हे 'आ−कार' तुम आकर्षण शक्ति से ओतप्रोत हो और सर्वत्र संव्याप्त हो। तुम माला के दूसरे अक्ष में स्थित हो जाओ। 

ओमाङ्कार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठा।

अर्थात् हे 'ए−कार! तुम सभी को वश में करने वाले तथा शुद्ध सत्त्व वाले हो। तुम माला के ग्यारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। इस प्रकार अक्षमालिकोपनिषद् में प्रत्येक वर्ण में समाई दिव्यता को उजागर किया गया है। आगे भगवान कार्तिकेय यहाँ तक कहते हैं कि पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि के देवगण (दैवी शक्तियाँ) सभी इस अक्षमाला में समाहित हैं−

ये देवाः पृथ्विीपदस्तेभ्यो...अन्तरिक्षसदस्तेभ्य...

दिविषदस्तेभ्यो...नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु

अर्थात् जो देवगण पृथ्वी में, अंतरिक्ष में और स्वर्ग में निवास कर रहे हैं वे सभी मेरी इस अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों। 

इससे आगे के मंत्रों में कार्तिकेय जी ने कहा कि समस्त विद्याओं और कलाओं की स्रोत यह अक्षमाला ही है−ये मंत्र य विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्य...अर्थात् इस लोक में जो सारे मंत्र और सारी विद्याएँ एवं कलाएँ विद्यमान हैं उन सभी को कोटिश−कोटिश नमन है। इनकी शक्तियाँ मेरी अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों। 

माँ सरस्वती का वरद मुद्रा में उठा हुआ चौथा हाथ इस दिव्य गुणों वाली विद्या का ही द्योतक एवं आशीष देता है। 

एक भारतीय होने के नाते हमें गर्व होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में विद्या और विद्या की देवी का स्वरूप कितना सकारात्मक, कितना शुद्ध एवं दिव्य दर्शाया गया है। लेकिन आज के परिवेश में पढ़े लिखे वर्ग को देखिए। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि पढ़ाई ने उन्हें अहंकारी बना दिया है। अकड़बाज एवं तानाशाह बना कर रख दिया है। जिनकी नाक की नोक पर गुस्सा हर समय आसन जमाए बैठा रहता है। भौहें तनी और दिमाग गर्म रहता है। यह पढ़ा लिखा वर्ग तर्कों के बाणों का तुनीर भर अपनी पीठ पर लादे रखता है। इनकी वाणी में ज्वालाएँ भरी हुईं हैं जो किसी को भी झुलसाने की क्षमता से ओतप्रोत हैं। स्वार्थमय और आत्मप्रशंसा का मद उन्हें आठों पहर ही मदहोश रखता है। 

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जरा सोचिए! क्या माँ शारदा का वरद हस्त इतना विकृत परिणाम दे सकता है? विद्वजनों का चिंतन कहता है कि यह विद्या नहीं अपितु मात्र कोरी शिक्षा है। आज केवल उन्हें कागज़ पर उकेर कर वर्णों को रटाया जाता है। वे उन्हें अक्षमाला के मनकों का साक्षात्कार नहीं करवा रहे। हमारे शास्त्रों का कथन है− 'विद्या ददाति विनयं' विद्या मानव को विनयशील बनाती है। प्लेटो ने भी कहा Knowledge is Virtue ज्ञान एक महान सद्गुण है। इसलिए विद्वता के साथ सद्वृत्तियों को भी जरूर धारण करें। 

हम देखते हैं कि माँ शारदा के रूप सज्जा में बहुधा श्वेत रंग ही दृष्टिगोचर होता है। वेद का कथन है−

या कुन्देन्दु तुषार हार ध्वला या शुभ्रवस्त्रावृता...

भाव माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें। हम जानते हैं कि श्वेत रंग उजाले की ओर इंगित करता है। पवित्रता एवं शुद्धता का पर्याय है। शुभ और श्री का द्योतक है। माता शारदा का वाहन हंस भी दूध के समान अति धवल है। जोकि नीर−क्षीर विवेक को दर्शाता है। इसलिए बसंत पंचमी पर्व को माँ सरस्वती के प्राक्टय दिवस के रूप में मनाने से तात्पर्य है कि हमारे जीवन में संपूर्ण सुविद्या का प्रकटीकरण हो जाए। 

बसंत पंचमी के बाद ऋतुराज बसंत का मनमोहक मौसम शुरू होता है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहलहा उठती हैं। सरसों के पीले फूल धरती माँ को पीली साड़ी पहने किसी सुंदर स्त्री के समान अलंकृत कर देते हैं। आमों पर बौर और कोयल का मीठा संगीत हमें एक अलौकिक आनंद से सराबोर कर देता है। 

बसंत के मौसम में ठंड की ठिठुरन नहीं रहती। और न ही गर्मी का ताप हमें जलाता है। बयार शीतल एवं सुहावनी हो जाती है। जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सौम्यता धारण कर लेते हैं। मौसम अपने पावन रूप में प्रकट हो जाता है। 

बसंत के दिन विद्या की देवी प्रकट होती हैं और उनके प्रकट होते ही प्रकृति ने अपनी उग्रता छोड़ दी। अगर हम गहराई से देखेंगे तो इसमें मानव समाज के लिए बहुत ही प्रेरणादायक संदेश छुपा हुआ है कि जब हमारे भीतर विद्या जागृत हो जाएगी तो हमें विनयशील बन जाना चाहिए। यही विद्या का रहस्य है। विद्या केवल मस्तिष्क को ही नहीं जगाती अपितु हमारी चेतना को भी परिवर्तित करती है। ऋग्वेद का कथन है−

प्रणो: देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनांमणित्रयवतु:।

अर्थात् माँ सरस्वती परम चेतना हैं जो हमारी बुद्धि प्रज्ञा एवं मनोवृत्तियों को सद्मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं। अगर हम ऊँची डिग्रियां प्राप्त कर भी विनयशील नहीं बने तो समझ लेना हमने सच्ची शिक्षा हासिल नहीं की। और न ही हमारे जीवन में माँ शारदा का प्रकटीकरण हुआ और न ही ऋतुराज बसंत का।

-सुखी भारती

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