अद्वेतवाद के प्रवर्तक थे जगतगुरू आदि शंकराचार्य

Adi Shankaracharya

बचपन से ही शंकराचार्य में विशिष्ट गुणों की झलक देखी जा सकती थी, छोटी सी ही उम्र में उन्होंने सारे वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत को कंठस्थ कर लिया था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात महज सात वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने संन्यासी बनना स्वीकार किया।

आदि शंकराचार्य भारत के उन महान दार्शनिकों में हैं जिन्होंने संसार को मिथ्या बताकर इस चर-अचर जीव जगत में एकमात्र परब्रह्म की सत्ता को स्वीकार कर अद्वेतवाद को स्थापित किया था। शंकराचार्य के अनुसार यह संपूर्ण जगत परब्रह्म, निर्गुण निराकार है। यह जगत सत्य रूप में हमें उसी तरह जान पडता है जिस प्रकार सर्प में रज्जू यानि रस्सी का आभास होता हैं। हम अज्ञानवश इस जगत को सत्य समझ रहे हैं, जिस दिन यह भ्रांति, इस अज्ञान का पर्दा हमारी आंखों के सामने से हट जाता है, इस संपूर्ण जगत में हम सिर्फ और सिर्फ परब्रह्म को ही पाते हैं। 

अद्वेतवाद को हालांकि भारत में शंकराचार्य से पहले भी कई दार्शनिकों, महात्माओं ने जगत के सामने रखा था किन्तु शंकराचार्य ने इसे अपनी सरल, स्पष्ट समीक्षाओं, दार्शनिक दृष्टि और तर्क संगत रूप से ठोस और दृढ़ रूप में जगत में स्थापित किया। शंकराचार्य ने हिन्दुओं के महान ग्रंथों उपनिषद, गीता, ब्रह्मसूत्र इत्यादि पर भाष्य लिखकर अद्वेत के आधार पर उनकी सरल और सटीक व्याख्या की। भारत में सनातन धर्म और अद्वेतवाद के प्रचार प्रसार के लिए शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों में चार प्रमुख मठों दक्षिण में श्रृंगेरी मठ, पश्चिम में द्वारिका शारदा मठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी गोवर्द्धन मठ, और उत्तर में ज्योतिर्पीठ मठ की स्थापना की।

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जगतगुरू आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ई.में वैशाख शुक्ल की पंचमी को हुआ था। कहा जाता है कि इनके पिता शिवगुरू और इनकी माता ने शिवजी की गहन तपस्या से पुत्र प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया था जिनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान तो दिया था किन्तु एक शर्त रखी थी कि उन्हें अपने पुत्र के लिए उसके दीर्घायु या सर्वज्ञ होने में से किसी एक को चुनना होगा। पुत्र यदि सर्वज्ञ होगा तो वह अल्पायु होगा और यदि उन्हें दीर्घायु पुत्र की कामना हो तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। पिता शिवगुरू ने वरदान मांगा कि मुझे सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति हो। शिवजी के वरदान से समय आने पर वैशाख शुक्ल पंचमी को शिवगुरू के यहां पुत्र का जन्म हुआ उस बालक का नाम शंकर रखा गया, जिसे शिवजी का अवतार माना गया और जो बाद में जगतगुरू आदि शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ। 

बचपन से ही शंकराचार्य में विशिष्ट गुणों की झलक देखी जा सकती थी, छोटी सी ही उम्र में उन्होंने सारे वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत को कंठस्थ कर लिया था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात महज सात वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने संन्यासी बनना स्वीकार किया। शंकराचार्य की माता नहीं चाहती थीं कि उनका बेटा सन्यासी बने किन्तु अपने प्रयत्नों से उन्होंने अपनी माता को इसके लिए मना लिया। 

अपने जीवन में शंकराचार्य ने कई धर्म ग्रंथों की रचना की उन्होंने शिव की स्तुति में अनेक श्लोकावालियों लिखीं। शंकराचार्य की सर्वश्रेष्ठ रचना ‘भजगोविंदम’ है जिसे उन्होंने तब लिखा जब उन्होंने देखा कि कैसे संसार में लोग व्यर्थ की उलझनों में उलझकर अपना जीवन किलिष्ट बनाकर गंवा रहे हैं, जबकि इस संसार के जीवन को गोविंद के साथ एकाकार होकर उसके साथ गाकर, नाचकर भी अतिप्रसन्नता पूर्वक आनन्दमय होकर जिया जा सकता है। अपनी इस विशिष्ट रचना ‘भजगोविंदम‘ में शंकराचार्य ने लोगों को यही समझाया कि अपने हर काम में गोविंन्द को भजो। शंकराचार्य लिखित इस रचना में संस्कृत में वर्णित बारह स्त्रोत हैं जिसे ‘द्वादश मंजरिका’ भी कहा जाता है। 

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शंकराचार्य ने केरल से कश्मीर, पुरी से द्वारका, श्रृंगेरी से बद्रीनाथ और कांची से काशी तक घूमकर धर्म-दर्शन का प्रचार किया।

‘भजगोविन्दम’ के अलावा शंकराचार्य द्वारा रचित एक और सुन्दर विलक्षण रचना है ‘कनकधारा’ स्त्रोत’, जिसकी रचना उन्होंने एक गरीब वृद्धा को धन-संपन्न बनाने के लिए की थी, जिसका श्रवण और वाचन आज भी घर की दरिद्रता को दूर करने के लिए किया जाता है। 

- अमृता गोस्वामी

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