धूम्रवर्ण का अवतार लेकर देवताओं को अहंतासुर के उत्पात से निजात दिलाई श्रीगणेश ने

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शुभा दुबे । Sep 13 2018 4:27PM

भगवान श्रीगणेश के वैसे तो कई अवतार हैं लेकिन आज हम चर्चा कर रहे हैं धूम्रवर्ण अवतार की। इस अवतार में आकर भगवान श्रीगणेश ने अभिमानासुर का संहार किया। खास बात यह है कि भगवान श्रीगणेश के धूम्रवर्ण अवतार का वाहन भी मूषक ही है।

भगवान श्रीगणेश के वैसे तो कई अवतार हैं लेकिन आज हम चर्चा कर रहे हैं धूम्रवर्ण अवतार की। इस अवतार में आकर भगवान श्रीगणेश ने अभिमानासुर का संहार किया। खास बात यह है कि भगवान श्रीगणेश के धूम्रवर्ण अवतार का वाहन भी मूषक ही है। धूम्रवर्ण से जुड़ी एक प्रचलित कथा से पता चलता है कि एक बार लोक पितामह ब्रह्मा ने सूर्य को कर्माध्यक्ष पद प्रदान किया। राज्य पद प्राप्त करते ही सूर्यदेव के मन में अहंकार हो गया और संयोगवश उसी समय उनको छींक आ गयी। जिससे अहंतासुर का जन्म हुआ। वह दैत्यगुरु शुक्राचार्य से गणेश मंत्र की दीक्षा प्राप्त कर तपस्या के लिए वन गया। वन में अहंतासुर उपवासपूर्वक भगवान गणेश का ध्यान तथा जप करने लगा। सहस्त्रों वर्षों की कठिन तपस्या के बाद भगवान गणेश प्रकट हुए। उन्होंने अहंतासुर से कहा, ''मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूं। तुम इच्छित वर मांगो। अहंतासुर ने उनसे संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर राज्य, अमरत्व, आरोग्य तथा अजेय होने का वर मांगा। भगवान गणेश तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गये।

अहंतासुर आखिर उत्पात क्यों मचाने लगा? 

भगवान श्रीगणेश से आशीर्वाद प्राप्त कर अहंतासुर वापस लौटा और शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम किया। अपने शिष्य की सफलता का समाचार प्राप्त कर शुक्राचार्य काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने संपूर्ण असुरों को बुलाकर उसे दैत्यों का स्वामी बना दिया। इस अवसर पर दैत्यों ने अद्भुत महोत्सव मनाया। विषयप्रिय नामक नगर में अहंतासुर सुखपूर्वक निवास करने लगा। उसे सर्वाधिक योग्य पात्र समझकर प्रमदासुर ने अपनी सुंदर कन्या उसके साथ ब्याह दी। कुछ दिनों बाद उसे गर्व और श्रेष्ठ नामक दो पुत्र हुए।

इस बात का उल्लेख मिलता है कि परिवार बसने के बाद एक दिन अहंतासुर ने अपने ससुर की सलाह और गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर विश्व विजय के लिए प्रस्थान किया। असुरों के द्वारा भयानक नर संहार किया जाने लगा। सर्वत्र मार काट मच गयी। इस प्रकार पृथ्वी अहंतासुर के अधिकार में हो गयी। फिर असुर ने स्वर्ग पर आक्रमण किया। देवताओं की तरफ से भगवान विष्णु युद्ध करने आये, किंतु वह भी पराजित हो गये। सर्वत्र अहंतासुर का शासन हो गया। देवता, ऋषि, मुनि पर्वतों में छिपकर रहने लगे। धर्म कर्म नष्ट हो गया। अहंतासुर देवताओं, मनुष्यों और नागों की कन्याओं का अपहरण कर उनका शील भंग करने लगा। सर्वत्र पाप और अन्याय का बोलबाला हो गया।

आखिरकार देवताओं ने भगवान श्रीगणेश की शरण ली

जब देवतागण इस उत्पात से परेशान हो गये और चारों ओर से उन्हें निराशा हाथ लगने लगी तो सभी ने भगवान शंकर एवं ब्रह्मा की सलाह से भगवान श्रीगणेश की उपासना करनी शुरू की। सात सौ वर्षों की कठिन साधना के बाद भगवान गणनाथ प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं की विनती सुनकर उनका कष्ट दूर करने का वचन दिया। पहले धूम्रवर्ण ने देवर्षि नारद को दूत के रूप में अहंतासुर के पास भेजा। उन्होंने उसे धूम्रवर्ण गणेश की शरण ग्रहण कर शांत जीवन बिताने का संदेश दिाय। अहंतासुर क्रोधित हो गया। संदेश निष्फल हो गया। नारद निराश लौट आये।

भगवान श्रीगणेश ने फिर दिखाया रौद्र रूप

उल्लेख मिलता है कि जब अहंतासुर ने शांति का प्रस्ताव ठुकरा दिया तो भगवान धूम्रवर्ण ने क्रोधित होकर असुर सेना पर अपना उग्र पाश छोड़ दिया। उस पाश ने असुरों के गले में लिपटकर उन्हें यमलोक भेजना शुरू कर दिया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। असुरों ने भीषण युद्ध की चेष्टा की, किंतु तेजस्वी पाश की ज्वाला में वे सभी जलकर भस्म हो गये। निराश अहंतासुर शुक्राचार्य के पास पहुंचा। उन्होंने उसे धूम्रवर्ण की शरण लेने की प्रेरणा दी। अहंतासुर ने भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। उनकी विविध उपचारों से पूजा की। संतुष्ट भगवान धूम्रवर्ण ने दैत्य को अभय कर दिया। उन्होंने उसे आदेश दिया कि जहां मेरी पूजा न होती हो, तुम वहां जाकर रहो। मेरे भक्तों को कष्ट देने का कभी भी प्रयास न करना। अहंतासुर भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में प्रणाम कर चला गया। देवगणों ने श्रद्धापूर्वक धूम्रवर्ण की पूजा की तथा मुक्त कंठ से उनका जयघोष करने लगे।

-शुभा दुबे

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