Gyan Ganga: श्रीराम से मुलाकात के दौरान अपना असली परिचय देने को आतुर थे हनुमानजी

Hanumanji
सुखी भारती । Dec 8 2020 3:34PM

सज्जनों उसी क्षण श्री हनुमान जी भगवान श्री राम जी के पावन श्री चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते हैं। और वह सुख शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। अपितु उस अद्भुत पल की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।

गतांक से आगे.... हनुमान जी सोचे बैठे थे कि श्री राम जी मेरे प्रश्नों का अवश्य ही कोई दिव्य समाधन देंगे। स्पष्ट कर देंगे कि वे नर रूप में नारायण ही हैं। लेकिन यहां तो श्रीराम अपनी वास्तविक पहचान से सोलह के सोलह आने ही मुकर गए। और स्वयं को सर्व समर्थ ईश्वर के रूप में प्रस्तुत करने की बजाए ऐसे निर्बल से मानव के रूप में प्रस्तुत किया कि श्री हनुमान जी तो अवाक् ही रह गए। क्योंकि श्रीराम के कथनानुसार वे अपने पिता के कहने पर ही वनवास को प्राप्त हुए हैं− 'हम पितु बचन मानि बन आए' सांसारिक अध्ययन तो यही कहता है कि पिता अपने पुत्रों से अथाह मोह के सूत्र में बंध होता है। लेकिन तब भी अगर कोई पिता अपने पुत्र को वनवास का आदेश देता है तो निश्चित है पुत्र के कलुषित कुकर्मों से पिता को इतना आघात लगे हैं कि वह पुत्र को वनवास देने पर विवश हो उठा। जबकि वास्तविक घटनाक्रम से तो जन−जन परिचित है कि श्रीराम तो पाप हर्ता व कष्टनिवारक हैं। दैवीय चरित्र के साक्षात प्रतिबिंब है। तो भला वे पिता दशरथ को क्या कष्ट देते?

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साथ में श्री राम स्वयं को निर्बल मानव सिद्ध करने के लिए एक और वाक्य कहे देते हैं−

इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।

अर्थात् हम तो अपनी पत्नी का रक्षण करने में भी असमर्थ निकले। हम जैसा असहाय व यशहीन प्राणी दुनिया में और कौन होगा? और हे ब्राह्मण देवता! आप हमें भगवान की संज्ञा दे रहे हैं। हम भगवान ही होते तो क्या अपनी अर्धांगिनी को यूं वन−वन ढूंढ़ते फिरते। इसलिए हे विप्र वर हम कोसलेस राजा दशरथ जी के ही पुत्र हैं। 

आगे श्री राम एक और वाक्य कहते हैं− 'आपन चरित कहा हम गाई' अर्थात् हमने अपना चरित्र गा−गाकर सुना दिया। क्योंकि जैसी दयनीय व कष्टदायक स्थिति हमारी है उसे देखकर संसार में लोग दया थोड़ी न करते हैं। बल्कि एक दूसरे के मुँह से मुँह जोड़कर ऐसी ही बातें करते हैं कि अरे! वो देखो राजा दशरथ का ज्येष्ठ पुत्र! बड़ा अयोध्या नरेश बनने लगा था। देखो बाप ने जंगलों की खाक छनवा दी। और रहा−सहा सम्मान तब माटी में मिल गया जब पत्नी को ही कोई अपहरण करके ले गया। भला ऐसा जीना भी कोई जीना है? इससे अच्छा तो चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए। 

परनिंदा की ऐसी चर्चा को लोग गीत ही तो बना लेते हैं। जिसे हर चौपाल व झुण्ड में गा−गाकर एक दूसरे को सुनाते हैं। हमने सोचा कि इससे पहले कि दुनिया हमारे दयनीय चरित्र का उपहासमय गीत गाए। हम खुद ही अपना चरित्र गाकर सुना देते हैं। चलो ब्राह्मण देवता हमारे बारे में तो बहुत कह सुन लिया अब कृपया अपनी भी कथा समझाने का कष्ट करें− 'कहहु बिप्र निज कथा बुझाई'

यह वाक्य सुनकर श्री हनुमान जी बड़े संकोच में पड़ गए। क्योंकि श्री हनुमान जी स्वयं भगवान शंकर के अवतार हैं और भगवान शिव सृष्टि के प्रथम कथा व्यास माने जाते हैं और श्री राम जी की पावन कथा उनसे बढ़कर रसिक व रुचिकर कोई बांच नहीं सकता। विडंबना यह भी है कि भगवान शंकर श्री राम की कथा छोड़ कोई अन्य कथा कहते भी तो नहीं। और आज स्वयं के श्री मुख से स्वयं की ही कथा बांचनी भला यह कहां की रीति और कहां का रिवाज? प्रभु श्री राम ने तो अत्यंत असमंजस की स्थिति में फंसा दिया। हमने स्वयं को ब्राह्मण वेश में क्या छुपाया, प्रभु तो तगड़े ही छुपने की जिद्द में आ बैठे। अब हमसे यूं लुका−छुपी का खेल और नहीं खेला जाता−तू डाल−डाल और मैं पात−पात आखिर कब तक चलती रहेगी। गलती मेरी ही है। जिस स्थान पर सब दिल खोलकर रख देना चाहिए, मैं वहीं सब कुछ छुपा गया। वैद्य से रोग और धोबी से कपड़े की मैल छुपाने में आखिर किसका भला हुआ? कैसा अभागा हूं मैं? चिरंकाल से जिन श्री चरणों के लिए मैं तरस रहा था। उन पावन श्री चरणों के अत्यंत निकट पहुंच कर भी मैं बांस की तरह अकड़ा खड़ा हूँ। यह मेरी मूढ़ता, हठता एवं अज्ञानता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? गंगा किनारे बैठकर भी अगर कोई गंगा में डुबकी लगाने से वंचित रहे तो उस जैसा निर्धन व निर्जन भाग्य वाला भला और कौन होगा? लेकिन अब और नहीं! स्वयं के साथ−साथ प्रभु को धोखा देकर अब मैं और नहीं जी सकता। इसलिए जैसे बालू की दीवार स्वयं को गिराने में विलम्ब नहीं करती व कागज़ की नाव जैसे पानी में गलने में क्षण भर संकोच नहीं करती। तो भला मैं देर क्यों करूं?

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प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। 

सज्जनों उसी क्षण श्री हनुमान जी भगवान श्री राम जी के पावन श्री चरणों में स्वयं को अर्पित कर देते हैं। और वह सुख शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। अपितु उस अद्भुत पल की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। बिंदु, सिंधु में लीन हो रहा था। और स्वयं सिंधु हो जाने का दैवीय आनंद रोम−रोम से महसूस कर रहा था। किसी वृक्ष पर लिपटी हरित कोमल बेल को देख सहज ही उसके यूं लिपटने का रहस्य समझ आ रहा था। क्योंकि श्री हनुमान जी भी तो प्रभु चरणों से यूं ही लिपटे रहना चाह रहे थे। केवट ने तो प्रभु चरणों को गंगा जी के पावन जल से प्रक्षालन किया था। और श्री हनुमान जी हैं कि अपने दो प्यासे नयनों से ही गंगा बहाए जा रहे हैं। और गंगा जी भी कैसी भोली हैं। देखिए तो कहीं भी बह पड़ती हैं। केवल विष्णु जी के श्री चरण या भगवान शंकर का शीश ही उनका उद्गम स्थल नहीं बल्कि श्री हनुमान जैसे भक्त के सजल नयन व गुरु रविदास जी का कठौता भी गंगा मैया की मनभावन स्थली हैं। लोहा जिस प्रकार चुंबक से चिपक जाता है श्री हनुमान जी भी प्रभु के श्रीचरणों से यूं ही चिपके थे। लेकिन तभी ध्यान आया कि प्रीति में रीति का पालन तो अभी तक नहीं हुआ। कुछ मर्यादा का पालन भी तो हो। तभी श्री हनुमान, भगवान श्री राम जी की स्तुति करते हैं− 'पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही' अर्थात श्री हनुमान जी ने धीरज धरि कर फिर प्रभु की स्तुति की लेकिन श्री हनुमान जी के प्रश्न अभी भी समाप्त नहीं होते। अब वे कौन से प्रश्न करने वाले हैं। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः

-सुखी भारती

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