Gyan Ganga: देवी पार्वती का ऐसा कौन सा प्रश्न सुनकर महादेव जी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए

देवी पार्वती का प्रश्न सुन कर, महादेव जी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रें में जल भर गया। श्री रघुनाथ जी का रुप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानंद शिवजी ने भी अपार सुख पाया।
ईश्वर के प्रति अगर मन में प्रश्न उठ रहे हों, तो आवश्यक नहीं कि प्रश्नकर्ता के मन में संदेह ही हो। उसके हृदय में, संदेह के स्थान पर जिज्ञासा व ज्ञान की पिपासा भी हो सकती है। भगवान शिव को माता पार्वती ने जब, श्रीराम जी के संबंध में प्रश्न किए, तो भोलेनाथ उन प्रश्नों को सुन कर, तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। उल्टा वे कहते हैं-
‘तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना।
आन जीव पाँवर का जाना।।
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई।
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।।’
गोस्वामी जी, इस चौपाई में भगवान शंकर को तीनों लोकों का गुरु कहकर संबोधित कर रहे हैं। देवी पार्वती जी भी भोलेनाथ को पति मान कर नहीं, अपितु गुरु मान कर प्रश्न कर रही हैं। गुरु अपने आप में, सत्ता ही ऐसी हैं, कि वे जब अपने शिष्य में छल की शून्यता देखते हैं, तो वे शिष्य पर अपना सर्वस्व लूटाने को तत्पर हो उठते हैं। देवी पार्वती में भी वे ऐसे ही अंश देख पा रहे हैं।
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देवी पार्वती के जीवन का एक सकारात्मक पहलु यह भी था, कि वे इस जन्म में दक्ष की पुत्री न होकर, साक्षात भक्ति की मूर्त राजा हिमवान की पुत्री हैं। राजा हिमवान की वृति, राजा दक्ष से पूर्णतः भिन्न है। राजा दक्ष जहाँ भगवान शंकर के प्रति शत्रु भाव रखते हैं, वहीं राजा हिमवान भगवान शंकर के अनन्य भक्त हैं। वे राजा दक्ष की भाँति ऐसा नहीं चाहते, कि उनकी पुत्री भगवान शंकर को वर्ण न करे। अपितु वे तो चाहते हैं, कि श्रीनारद जी के वचन शीघ्राति शीघ्र सत्य हों। कहने का तात्पर्य, कि जीव को ईश्वर से यह भी प्रार्थना करनी चाहिए, कि हमारा जन्म ऐसे घर में हो, जहाँ परिवार के समस्त गण, प्रभु के प्रति श्रद्धा भाव से भरे हों। ऐसे वातावरण में भक्ति करने के लिए अनुकूलता का सुख बना रहता है। देवी पार्वती जी तो अपनी श्रद्धा व विश्वास का परिचय पहले ही दे चुकी हैं। इसलिए भगवान शंकर ने जैसे ही सुना, कि देवी पार्वती श्रीराम जी की पावन कथा श्रवण करना चाह रही हैं, तो वे श्रीराम जी के प्रेम भाव में, नख से सिर तक बहने लगते हैं-
‘हर हियँ रामचरित सब आए।
प्रेम पुलक लोचन जल छाए।।
श्रीरघुनाथ रुप उर आवा।
परमानंद अमित सुख पावा।।’
देवी पार्वती का प्रश्न सुन कर, महादेव जी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रें में जल भर गया। श्री रघुनाथ जी का रुप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानंद शिवजी ने भी अपार सुख पाया। भगवान शंकर ने अपने नेत्रें को बंद कर श्रीराम जी के पावन बाल रुप का ध्यान किया। और श्रीराम जी के पावन चरित्रें का वर्णन करने लगे-
‘झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।
जेहि जानें जग जाइ हेराई।
जागें जथा सपन भ्रम जाई।।’
अर्थात जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वपन का भ्रम जाता रहता है। लेकिन यह तभी सँभव है, जब कोई श्रीराम जी की पावन कथा को छल कपट व श्रद्धा प्रेम से श्रवण करता है। संसार में ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें श्रीराम जी की कथा का, कभी रसपान ही नहीं किया होता। ऐसे जीवों के बारे में अब क्या कहा जाये। उनके कानों द्वारा श्रवण किये जा रहे संसारिक मायावी शब्दों का क्या ही अर्थ रह जाता है? ऐसे कानों के छिद्र मानों ऐसे हैं, जैसे सर्प का बिल होता है-
‘जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।’
भगवान शंकर की दृष्टि में कानों के वे छिद्र, कोई शब्द सुनने वाले सुराख नहीं, अपितु सर्प के बिल ही हैं।
सर्प के बिल की उदाहरण, भगवान शंकर ने क्यों दी, जानेंगे अगले अंक में।
क्रमशः
- सुखी भारती
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