Gyan Ganga: गीता में श्रीकृष्ण ने बताया है भगवान को प्राप्त करने का नायाब तरीका

Shri Krishna
आरएन तिवारी । Jul 16 2021 4:14PM

अच्छी तरह से आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से निश्चित किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। यज्ञ कराना, दान लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिए शास्त्र के अनुसार स्वधर्म है।

प्रभासाक्षी के सहृदय गीता प्रेमियों ! 

अपने से पहले अपने स्वजनों का सोचो और अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहो जीवन महक उठेगा--------

आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं---

पिछले अंक में भगवान ने अर्जुन को समझाया था कि सभी वर्ण के लोगों को (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) अपना कर्म ईमानदारी पूर्वक करना चाहिए। अब आगे के प्रसंग में कहते हैं, कि जो अपने कर्म में तत्पर रहता है उसका यह लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाता है। 

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श्री भगवान उवाच 

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति और परमसिद्धि को प्राप्त करता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसका जो कर्म है, जैसे- अध्यापक, वकील, डाक्टर, नौकर उसको प्रेमपूर्वक ठीक-ठाक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से उसका यह लोक और परलोक दोनों सुधरता है। आज हमारे समाज परिवार में दुख का एक कारण यह भी है कि लोग ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करते। 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

अच्छी तरह से आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से निश्चित किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। यज्ञ कराना, दान लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिए शास्त्र के अनुसार स्वधर्म है, पर वे ही कर्म क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए शास्त्र का निषेध होने से परधर्म है। परंतु आपत्ति काल में जीविका को लेकर वे ही कर्म सभी वर्णों के लिए स्वधर्म हो जाते हैं। 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

भगवान कहते हैं— इसलिए हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी अपने सहज और नियत कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि अग्नि में धूएँ की भाँति सभी कर्मों में कोई न कोई दोष हैं। अब भगवान अर्जुन को ब्रह्म प्राप्ति के लिए क्या आवश्यक है, इसका वर्णन करते हुए कहते हैं-- 

बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥

अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

विशुद्ध बुद्धि से युक्त, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग में व्यस्त रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष भगवान को प्राप्त करता है।

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ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥

फिर वह भगवान में स्थित, प्रसन्न मन वाला व्यक्ति न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी चीज की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला व्यक्ति मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।

जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता उसी को यहाँ पराभक्ति कहा गया है। 

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌॥

भगवान कहते हैं उस पराभक्ति के द्वारा वह व्यक्ति मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है। 

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

हे अर्जुन ! सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके तथा समान बुद्धि के साथ योग का आश्रय लेकर मेरे परायण हो जाओ और अपना चित्त मुझमें लगा दो। 

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

इस प्रकार मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा। 

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥

लेकिन यदि तुम अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहे हो कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तो तुम्हारा यह फैसला मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव तुम्हें जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा। यहाँ भगवान अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारी क्षात्र प्रकृति (क्षत्रिय स्वभाव) तुम्हें युद्ध  में लगाएगी। यदि प्रकृति लगाएगी तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी होगी और मेरी बात मानकर युद्ध करोगे तो मेरी ज़िम्मेदारी होगी। अपनी ज़िम्मेदारी पर लड़ोगे तो बंधन में पड़ोगे और मेरी ज़िम्मेदारी पर लड़ोगे तो मुक्त हो जाओगे। 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥

हे अर्जुन! शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ होकर संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। जैसे बिजली मशीन का संचालन करती है वैसे ही भगवान इस शरीर रूपी मशीन को चलाते हैं।  

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥

हे अर्जुन! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥

भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तुम इस रहस्यमय ज्ञान पर पूर्णरूप से भलीभाँति विचार करो और जैसा चाहते हो वैसा ही करो। 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

भगवान की हर बात जीव के लिए हितकारी है, पर उसमें भी विशेष हित की बात अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन! तुम मुझ में अपना मन लगा,, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है। मेरा कहा मानकर मेरी झोली भर दे अर्जुन !

तेरे द्वार खड़ा भगवान हो,

तेरें द्वार खड़ा भगवान,

भगत भर दे रे झोली।।

तेरा होगा बड़ा एहसान, 

कि जुग जुग तेरी रहेगी शान, 

भगत भर दे रे झोली, 

तेरें द्वारे खड़ा भगवान, 

भगत भर दे रे झोली, 

ओ भगत भर दे रे झोली।।

श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------

जय श्री कृष्ण ----------

-आरएन तिवारी

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