मृत्यु लोक में देवताओं का सर्वाधिक प्रिय स्थान पुष्कर है

the importance of pushkar fair

राजस्थान में त्यौहारों, पर्वों एवं मेलों की अनूठी परम्परा एवं संस्कृति है वैसी देश में अन्यत्र कहीं मिलना कठिन है। यहां का प्रत्येक मेला एवं त्यौहार लोक जीवन की किसी किवदन्ती या किसी ऐतिहासिक कथानक से जुड़ा हुआ है।

राजस्थान में त्यौहारों, पर्वों एवं मेलों की अनूठी परम्परा एवं संस्कृति है वैसी देश में अन्यत्र कहीं मिलना कठिन है। यहां का प्रत्येक मेला एवं त्यौहार लोक जीवन की किसी किवदन्ती या किसी ऐतिहासिक कथानक से जुड़ा हुआ है। इसलिए इनके आयोजन में सम्पूर्ण लोक जीवन पूरी सक्रियता से भाग लेता है। इन मेलों में राजस्थान की लोक संस्कृति जीवन्त हो उठती है। इन मेलों के अपने गीत हैं, जिनके प्रति जन साधारण की गहरी आस्था दृष्टिगोचर होती है। इससे लोग एकता के सूत्र में बंधे रहते हैं। राजस्थान में अधिकांश मेले पर्व व त्यौहार के साथ जुड़े हुए हैं। 

मेलों का महत्व देवताओं एवं देवियों की आराधना को लेकर भी है, क्योंकि देर्वाचन से मानव को शान्ति प्राप्त होती है। मनुष्य देवालयों में इसलिए जाते हैं ताकि उनका मनोरथ पूर्ण हो सके और उन्हें देवकृपा प्राप्त हो। ऐसे मेले धार्मिक दृष्टि से संस्कृति के विशेष अंग हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह परिपाटी चलती रहती है। वैसे तो राजस्थान के विभिन्न भागों में बहुत बड़ी संख्या में मेले आयोजित किए जाते हैं, परन्तु कुछ गिने-चुने मेलों का अपना ही महत्व होता है। यहां के धार्मिक मेलों में सम्बंधित धर्म अनुयायियों के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोग एवं अन्य जाति के लोग भी खुलकर भाग लेते हैं।

अजमेर से लगभग 11 कि.मी. दूर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर है। यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। पुष्कर मेला कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक लगता है। मेलों के रंग राजस्थान में देखते ही बनते हैं। ये मेले मरुस्थल के गांवों के कठोर जीवन में एक नवीन उत्साह भर देते हैं। लोग रंग-बिरंगे परिधानों में सज-धजकर जगह-जगह पर नृत्य गान आदि समारोहों में भाग लेते हैं। यहां पर काफी मात्रा में भीड़ देखने को मिलती है। लोग इस मेले को श्रद्धा, आस्था और विश्वास का प्रतीक मानते हैं। पुष्कर मेला थार मरुस्थल का एक लोकप्रिय व रंगों से भरा मेला है। पुष्कर झील भारतवर्ष में पवित्रतम स्थानों में से एक है। प्राचीनकाल से लोग यहां पर प्रतिवर्ष कार्तिक मास में एकत्रित हो भगवान ब्रह्मा की पूजा उपासना करते हैं।

पुष्कर मेले का एक रोचक अंग ऊंटों का क्रय-विक्रय है। निस्संदेह अन्य पशुओं का भी व्यापार किया जाता है, परन्तु ऊंटों का व्यापार ही यहां का मुख्य आकर्षण होता है। मीलों दूर से ऊंट व्यापारी अपने पशुओं के साथ में पुष्कर आते हैं। यहां पर प्रतिवर्ष पच्चीस हजार से भी अधिक ऊंटों का व्यापार होता है। यह सम्भवत: ऊंटों का संसार भर में सबसे बड़ा मेला होता है। कार्तिक के महीने में यहां लगने वाला ऊंट मेला दुनिया में अपनी तरह का अनूठा तो है ही, साथ ही यह भारत के सबसे बड़े पशु मेलों में से भी एक है। मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन सा देखने को मिलता है। एक तरफ तो मेला देखने के लिए विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाक़ों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं। मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है। आम मेलों की ही तरह ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या। ऊंट मेला और रेगिस्तान की नजदीकी है इसलिए ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं। लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप एक विशाल पशु मेले का हो गया है, इसलिए लोग ऊंट के अलावा घोड़े, हाथी और बाकी मवेशी भी बेचने के लिए आते हैं। सैलानियों को इन पर सवारी का लुत्फ मिलता है। 

मेला स्थल से परे पुष्कर नगरी का माहौल एक तीर्थनगरी सरीखा होता है। कार्तिक में स्नान का महत्व हिंदू मान्यताओं में वैसे भी काफी ज्यादा है। इसलिए यहां साधु भी बड़ी संख्या में नजर आते हैं। मेले के शुरुआती दिन जहां पशुओं की खरीद-फरोख्त पर जोर रहता है, वहीं बाद के दिनों में पूर्णिमा पास आते-आते धार्मिक गतिविधियों का ज़ोर हो जाता है। श्रद्धालुओं के सरोवर में स्नान करने का सिलसिला भी पूर्णिमा को अपने चरम पर होता है। पुष्कर मेले के दौरान इस नगरी में आस्था और उल्लास का अनोखा संगम देखा जाता है। पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहा जाता है और पुष्कर मेला राजस्थान का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। पुष्कर मेले की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में ताजमहल का जो दर्जा विदेशी सैलानियों की नजर में है, ठीक वही महत्व त्यौहारों से जुड़े पारम्परिक मेलों में पुष्कर मेले का है।

महाभारत में पुष्कर राज के बारे में लिखा है कि तीनों लोकों में मृत्यु लोक महान है और मृत्यु लोक में देवताओं का सर्वाधिक प्रिय स्थान पुष्कर है। चारों धामों की यात्रा करके भी यदि कोई व्यक्ति पुष्कर सरोवर में डुबकी नहीं लगाता है तो उसके सारे पुण्य निष्फल हो जाते हैं। यही कारण है कि तीर्थ यात्री चारों धामों की यात्रा के बाद पुष्कर की यात्रा जरूर करते हैं। तीर्थ राज पुष्कर को पृथ्वी का तीसरा नेत्र भी माना जाता है। पुष्कर नगरी में विश्व का एकमात्र ब्रह्मा मंदिर है तो दूसरी तरफ दक्षिण स्थापत्य शैली पर आधारित रामानुज संप्रदाय का विशाल बैकुंठ मंदिर है। इनके अलावा सावित्री मंदिर, वराह मंदिर के अलावा अन्य कई मंदिर हैं। पास में ही एक छोटे से मन्दिर में नारद जी की मूर्ति और एक मन्दिर में हाथी पर बैठे कुबेर तथा नारद की मूर्तियां हैं।

पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहे जाने का गौरव इसलिए प्राप्त है क्योंकि यहां समूचे ब्रह्मांड के रचयिता माने जाने वाले ब्रह्मा जी का निवास है। पुष्कर के महत्व का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है। इसके अनुसार एक समय ब्रह्मा जी को यज्ञ करना था। उसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन करने के लिए उन्होंने धरा पर अपने हाथ से एक कमल पुष्प गिराया। वह पुष्प अरावली पहाड़ियों के मध्य गिरा और लुढ़कते हुए दो स्थानों को स्पर्श करने के बाद तीसरे स्थान पर ठहर गया। जिन तीन स्थानों को पुष्प ने धरा को स्पर्श किया, वहां जलधारा फूट पड़ी और पवित्र सरोवर बन गए। सरोवरों की रचना एक पुष्प से हुई, इसलिए इन्हें पुष्कर कहा गया। प्रथम सरोवर कनिष्ठ पुष्कर, द्वितीय सरोवर मध्यम पुष्कर कहलाया। जहां पुष्प ने विराम लिया वहां एक सरोवर बना, जिसे ज्येष्ठ पुष्कर कहा गया। ज्येष्ठ पुष्कर ही आज पुष्कर के नाम से विख्यात है। पुष्कर में लगभग चार सौ मंदिर हैं, इसीलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाता है।

कई आस्थावान लोग पुष्कर परिक्रमा भी करते हैं। सुबह और शाम के समय यहां आरती होती है। वह दृश्य अत्यंत मनोहारी होता है। इतनी विशेषताओं के कारण पुष्कर को तीर्थराज कहने के अलावा देश का पांचवां धाम भी कहा जाता है। पुष्कर सरोवर में कार्तिक पूर्णिमा पर पर्व स्नान का बड़ा महत्व माना गया है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा पर ही ब्रह्मा जी का वैदिक यज्ञ संपन्न हुआ था। तब यहां सम्पूर्ण देवी-देवता एकत्र हुए थे। उस पावन अवसर पर पर्व स्नान की परम्परा सदियों से चली आ रही है। जिस प्रकार प्रयाग को तीर्थराज कहा जाता है, उसी प्रकार से इस तीर्थ को पुष्कर राज कहा जाता है। ज्येष्ठ पुष्कर के देवता ब्रह्माजी, मध्य पुष्कर के देवता भगवान विष्णु और कनिष्क पुष्कर के देवता रुद्र हैं। 

ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लिखित है कि अपने मानस पुत्र नारद द्वारा सृष्टिकर्म करने से इन्कार किए जाने पर ब्रह्मा ने उन्हें रोषपूर्वक शाप दे दिया कि— तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है, अत: मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जाएगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्त करके कामिनियों के वशीभूत हो जाओगे। तब नारद ने भी दु:खी पिता ब्रह्मा को शाप दिया—तात! आपने बिना किसी कारण के सोचे-विचारे मुझे शाप दिया है। अत: मैं भी आपको शाप देता हूं कि तीन लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मंत्र, श्लोक कवच आदि का लोप हो जाएगा। तभी से ब्रह्मा जी की पूजा नहीं होती है। मात्र पुष्कर क्षेत्र में ही वर्ष में एक बार उनकी पूजा-अर्चना होती है।

हिन्दुओं के लिए पुष्कर एक पवित्र तीर्थ व महान पवित्र स्थल है। वर्तमान समय में इसकी देख-रेख की व्यवस्था सरकार ने सम्भाल रखी है। अत: तीर्थस्थल की स्वच्छता बनाए रखने में भी काफी मदद मिली है। यात्रियों की आवास व्यवस्था का विशेष ध्यान रखा जाता है। हर तीर्थयात्री जो यहां आता है वो यहां की पवित्रता और सौंदर्य की मन में एक याद संजोए वापिस जाता है।

- रमेश सर्राफ धमोरा

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