Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-8

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Apr 12 2024 4:53PM

महाराज धृतराष्ट्र ! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते, उनके नाम सुनो नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी-ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष को आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिए।

मित्रो! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं ---

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पिछले अंक में विदुरजी ने उन बातों की तरफ इशारा किया जो हमारे लिए हानिप्रद हैं, इसलिए उनका त्याग कर देना चाहिए। अब हमें क्या अपनाना चाहिए उसकी चर्चा करते हुए कहते हैं--- हे राजन् ! 

अष्टाविमानि हर्षस्य नव नीतानि भारत ।

वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव सुसुखान्यपि ॥ 

समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।

पुत्रेण च परिष्वङ्गः संनिपातश्च मैथुने ॥ 

समये च प्रियालापः स्वयूथेषु च संनतिः ।

अभिप्रेतस्य लाभश्च पूजा च जनसंसदि ॥ 

विदुर जी कहते हैं, हे भ्राता श्री ! मित्रों से समागम, अधिक धनकी प्राप्ति, पुत्र का आलिङ्गन, मैथुन में प्रवृत्ति, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जन समाज में सम्मान-ये आठ हर्ष और खुशी के सार हैं और ये ही हमारे लौकिक सुख के भी साधन होते हैं।। 

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।

पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ 

बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता-ये आठ गुण जिस व्यक्ति में होते हैं उसकी ख्याति अपने आप ही बढ़ जाती है। 

नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्च साक्षिकम् ।

क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान्यो वेद स परः कविः ॥ 

जो विद्वान् पुरुष [आँख, कान आदि] नौ दरवाजे वाले, तीन (वात, पित्त, कफरूपी) खम्भों वाले, पाँच (ज्ञानेन्द्रियरूप) साक्षीवाले आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को भलीभाँति जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है॥ 

दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।

मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥ 

त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामी च ते दश ।

तस्मादेतेषु भावेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥ 

महाराज धृतराष्ट्र ! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते, उनके नाम सुनो नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी-ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष को आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिए। 

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

पुत्रार्थमसुरेन्द्रेण गीतं चैव सुधन्वना ॥ 

इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लादने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था। नीतिज्ञ लोग उस पुराने इतिहास का उदाहरण देते हैं। 

सुदुर्बलं नावजानाति कंचिद्- युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम् ।

न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः ॥ १११ ॥

जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रुके साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसन्द नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, उसी को धीर समझना चाहिए। 

प्राप्यापदं न व्यथते कदा चिद् उद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः ।

दुःखं च काले सहते जितात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सपत्नाः ॥ ११२ ॥

जो महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुःखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दुःख सहता है, उसके शत्रु स्वयम ही पराजित हो जाते हैं।। 

अनर्थकं विप्र वासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम् ।

दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्य पानं न सेवते यः स सुखी सदैव ॥ ११३ ॥

जो निरर्थक विदेश वास, पापियों से मेल, पर स्त्रीगमन, पाखण्ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है।। 

न संरम्भेणारभतेऽर्थवर्गम् आकारितः शंसति तथ्यमेव ।

न मात्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः ॥ ११५ ॥


न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति ।

नात्याह किं चित्क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग्लभते प्रशंसाम् ॥ ११५ ॥

जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा कामका आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पसन्द करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, दुर्बल होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्य सब जगह प्रशंसा पाता ॥ 

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्यान् ।

न मूर्च्छितः कटुकान्याह किं चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनोऽपि ॥ ११६ ॥

जो कभी उद्दण्ड का-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की भी डींग नहीं हाँकता, क्रोध से व्याकुल होनेपर भी कटुवचन नहीं बोलता, वह मनुष्य लोग का प्यारा होता है  ॥

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्ममारोहति नास्तमेति ।

न दुर्गतोऽस्मीति करोति मन्युं तमार्य शीलं परमाहुरग्र्यम् ॥ 

जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा मैं विपत्ति में पड़ा हूँ,' ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरुषको आर्यजन सर्वश्रेष्ठ कहते हैं ॥

न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रतीतः ।

दत्त्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं न कत्थते सत्पुरुषार्य शीलः ॥ 

जो अपने सुखमें प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दुःख में हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह सदाचारी कहलाता है ॥ 

देशाचारान्समयाञ्जातिधर्मान् बुभूषते यस्तु परावरज्ञः ।

स तत्र तत्राधिगतः सदैव महाजनस्याधिपत्यं करोति ॥ 

जो मनुष्य देश के व्यवहार, लोकाचार तथा जातियों के धर्मो को जानने की इच्छा करता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहाँ कहीं भी जाता है, सदा महान् जनसमूह पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लिता है॥

दम्भं मोहं मत्सरं पापकृत्यं राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम् ।

मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान्वर्जयेत्स प्रधानः ॥ 

जो बुद्धिमान् व्यक्ति दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्ठ है ।। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 

- आरएन तिवारी

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