Gyan Ganga: रावण को समझाने के लिए विभीषण ने कौन-सी कहानी सुनाई थी?

Ravana
ANI
सुखी भारती । Oct 6 2022 3:20PM

श्रीविभीषण जी रावण को बार-बार सिर निवाकर, निवेदन स्वर में कह रहे हैं, कि हे लंकापति, आप जैसे भी अपने मन को समझायें, बस समझा लीजिए। और श्रीराम जी के भजन में विलीन हो जाईये। श्रीविभीषण जी ने सोचा, कि लगता है, रावण भईया पर मेरी बातों का प्रभाव नहीं पड़ रहा है।

श्रीविभीषण जी अपने भाई रावण को समझाने का अथक प्रयास कर रहे हैं। किंतु रावण के संबंध में, उन्हें शायद यह ज्ञान विस्मृत हो गया था, कि रावण का हृदय कोई संतों के हृदय के समान, माखन जैसा नहीं है। जो कि भक्तिमय भावों के तनिक से ताप से पिघल जाता। रावण तो नख से सिर तक, और भीतर से लेकर बाहर तक, मानो निरा पत्थर ही था। और पत्थर की यह विड़म्बना है कि वह सौ कल्प तक भी, भले ही गंगा जी में भी क्यों न डूबा रहे, वह कभी भी भीतर से भीग नहीं सकता। वे तो श्रीविभीषण जी थे, जिनके श्रीमुख से, रावण ने अपने सम्मुख, श्रीराम जी की इतनी महिमा सुन ली। अन्यथा कोई और होता, तो उसका सीस, अब तक धड़ से विलग हुआ होता। रावण स्वयं को समझा नहीं पा रहा था, कि विभीषण को आखिर हो क्या गया है? कारण कि जिस विभीषण को मैंने मंत्री पद के साथ-साथ, हर वह सुख व सम्मान दिया, जो किसी के लिए भी एक सव्पन सा होता है। क्या वही विभीषण मेरे ही समक्ष, मेरे शत्रु के महिमा गान कर रहा है? रावण ने जब श्रीविभीषण जी के माध्यम से सुना, कि श्रीराम तो कोई साधारण मानव न होकर, साक्षात भगवान हैं, तो रावण को तो मानों तन, मन में आग सी लग गई। लेकिन तब भी रावण चुप रहा। वह शायद यह जानना चाह रहा था, कि मेरा भाई विभीषण, आखिर किस सीमा तक मुझसे दूर, और श्रीराम जी के कितना समीप आ चुका था। किंतु रावण को क्या पता था, कि श्रीविभीषण जी, अब श्रीराम जी के कोई समीप मात्र थोड़ी न हुए थे, अपितु वे तो श्रीराम जी संग भीतर तक सागर में गुड़ की भाँति घुले हुए थे। तभी तो श्रीविभीषण जी के श्रीमुख से ऐसे-ऐसे वाक्य निकल रहे हैं-

‘गो द्विज धेनु देव हितकारी।

कृपा सिंधु मानुष तनुधारी।।

जन रंजन भंजन खल ब्राता।

बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।

प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।

भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।’

श्रीविभीषण जी ने मानो प्रभु गुणगान की, अब तो सीमा ही लाँघ दी थी। वे बोले कि हे तात! उन कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समुह का नाश करने वाले, और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं। इसलिए मेरा करबद्ध निवेदन है, कि आप बैर त्यागकर उन्हें हृदय से मस्तक नवाइए। वे श्रीरघुनाथ जी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु को जानकी वापिस लौटा दीजिए। और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री राम जी को भेजिए।

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श्रीविभीषण जी रावण को बार-बार सिर निवाकर, निवेदन स्वर में कह रहे हैं, कि हे लंकापति, आप जैसे भी अपने मन को समझायें, बस समझा लीजिए। और श्रीराम जी के भजन में विलीन हो जाईये। श्रीविभीषण जी ने सोचा, कि लगता है, रावण भईया पर मेरी बातों का प्रभाव नहीं पड़ रहा है। तो क्यों न मैं ऋर्षि पुलस्त्य जी के संदेश को भी कह सुनाऊँ। क्योंकि ऋर्षि पुलस्त्य जी ने अपने शिष्य के माध्यम से भी, आपके लिए यही संदेश भिजवाया है, कि आप अपने समस्त अपराधों को त्याग कर, श्रीराम जी की शरणागत हो अपना जीवन सफल करें। रावण पर मानो अब अपने दादा जी का भी प्रभाव था। शायद रावण अब अवश्य ही श्रीराम शरणागति पर चिंतन करता। लेकिन उसने अभी भी मौन व्रत ही धारण किया हुआ था। रावण तो नहीं बोला। किंतु हाँ, उसका एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री, जिसका नाम माल्यवान् था, वह बोला-

‘माल्यवंत अति सचिव सयाना।

तासु बचन सुनि अति सुख माना।।

तात अनुज तव नीति बिभूषन।

सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।’

मंत्री माल्यवान् को, श्रीविभीषण जी के वाक्य बहुत ही सुंदर लगे। जिसे सुन माल्यवान् रावण को बोला, कि हे तात! आपके छोटे भाई नीति के भूषण हैं, अर्थात नीति को आभूषण रूप में धारण करने वाले हैं। जिसका एक ही परिणाम निकलता है, कि आपके भाई जो कुछ भी कह रहे हैं, उसे आप बिना किसी संकोच के, हृदय में धारण कर लीजिए।

रावण ने जब देखा, कि अभी तक तो केवल विभीषण ही मेरे शत्रु के पक्ष में बोल रहा था। लेकिन अब उसके भाषण के प्रभाव में तो, मेरे मंत्री भी बोलने लगे हैं। और यह निश्चित ही, किसी भी परिस्थिति में अस्वीकार्य है। अन्य राक्षस जनों द्वारा, विभीषण का अनुसरण करने का, सीधा सा अर्थ है, कि मेरे शत्रु के अग्नि ताप का प्रभाव मेरे घर तक भी आन पहुँचा है। जो धीरे-धीरे मेरे राज-पाट को भी अपनी चपेट में ले सकता है। मुझे विभीषण को लेकर, जिस निष्कर्ष तक पहुँचना था, मैं वहाँ पहुँच गया। निष्कर्ष यह, कि मेरा भाई अब मेरा नहीं, अपितु मेरे शत्रु का सगा हो गया है। और मेरे मतानुसार ऐसे भाई का मेरी लंका नगरी में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

ऐसे में, क्या रावण श्रीविभीषण जी को लंका से निकाल देने का निर्णय ले लेता है, अथवा दोनों भाईयों की आगे भी कोई सार्थक वार्ता होती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती 

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