Gyan Ganga: समुद्र मंथन के दौरान देवता और असुर साथ क्यों आ गये थे?

samudra manthan
आरएन तिवारी । Apr 8 2022 3:18PM

भगवान का यह कच्छप अवतार था। अब जैसे ही मंथन प्रारम्भ हुआ वासुकि नाग ज़ोर-ज़ोर से फुफुकारने लगा। उसकी फुफकार से दैत्य जलने लगे और पीछे लगे देवताओं पर कोई असर नहीं पड़ा, वे आनंद में थे। अब मन ही मन दैत्य पछता रहे थे, ओह !

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आज-कल हम श्रीमदभागवत महापुराण के अंतर्गत आठवें स्कन्द की कथा श्रवण कर रहे हैं। पिछले अंक में हम सबने भगवान श्री हरि ने गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया और पार्षद स्वरूप गजेन्द्र को साथ लेकर गरुण पर सवार होकर अपने अलौकिक धाम को चले गए। इस कलियुग में संकट और विपत्ति आने पर गजेन्द्र मोक्ष का पाठ बहुत ही उपयोगी होता है।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: प्रभु कहते हैं- जो मेरी शरण में आ गया उसका उद्धार होना ही है

आइए ! अब कथा के अगले प्रसंग में चलते हैं।

  

समुद्र मंथन

एक बार इन्द्र ने दुर्वासा मुनि की माला का अपमान कर दिया तो दुर्वासा का शाप इन्द्र को लगा जा तू श्रीहीन हो जा। शुक्राचार्य को पता चल गया कि इन्द्र अब बलहीन और श्रीहीन हो गए हैं। तो दैत्यों से कहा देवताओं पर आक्रमण कर दो अच्छा मौका है। सभी दैत्यों ने मिलकर आक्रमण किया और सारा स्वर्ग देवताओं से छीन लिया। देवता बिचारे मारे-मारे फिरने लगे रोते-बिलखते गोविंद की शरण में गए। भगवान बोले- तुम्हारा ऐश्वर्य और वैभव समुद्र में समा गया है। समुद्र मंथन करो तो प्राप्त होगा। देवता बोले कैसे? दैत्यों से सहयोग लो। तुम अकेले नहीं कर सकोगे। “अहि मूषकवत” जैसे जब परिस्थिति विपरीत आई तो साँप ने चूहे को अपना मित्र बनाकर काम चलाया। कूटनीति कहती है कि 

अरयोSपि हि संधेयासति कार्यार्थ गौरवे । 

अहिमूषकवत् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतै:॥ 

सर्प के सामने चूहा कुछ भी नहीं है, पर “जहाँ काम आवे सूई कहाँ करे तलवारी”?

जब अपना काम सिद्ध करना हो तो शत्रु को भी राम-राम करके काम सफल कर लेना चाहिए। देवता समझ गए, दैत्यों के पास गए और समुद्रमंथन का प्रस्ताव रखा। कहा— भाई समुद्र मंथन से अमृत निकलेगा हम मिल-बाँट कर पी लेंगे और अमर हो जाएंगे फिर कोई चिंता नहीं चाहे कितनी भी लड़ाई हो हममें से कोई मरने वाला है नहीं। दैत्यों ने कहा वाह ! यह तो बहुत ही अच्छी बात है। हमें पसंद है, चलो, चलते हैं। देवता असुर मिलकर गए और मंथन हेतु मंदारचल पर्वत को उठा लिया। पर्वत उठाकर चल दिए किन्तु गणेश जी का पूजन नहीं किया तो विघ्नेश्वर नाराज हो गए। दस कदम ही चल पाए थे कि हाथ से छूटकर मंदराचल पहाड़ गिर गया और देवता तथा दैत्यों के हाथ-पैर टूट गए। दैत्य हाथ जोड़कर दूर खड़े हो गए और बोले— भैया ! हमको अमृत नहीं पीना है, हम जैसे हैं ठीक हैं कौन अपना हाथ-पैर तुड़वाएगा ? अब क्या हो? बनता हुआ काम बिगड़ गया। देवताओं ने नारायण का ध्यान किया, प्रभु प्रकट होकर बोले— घबड़ाओ मत इस पहाड़ को मैं लिए चलता हूँ। 

गिरिं चारोप्य गरूणे हस्तेनैकेन लीलया

आरूह्य प्रययावब्धिं सुरासुर गणे: वृत: ।। 

प्रभु ने एक हाथ से ही पर्वत को उठाकर गरुण पर रखा और समुद्र तट पर पहुंचा दिया और कहा- अब जाओ रस्सी का प्रबंध करो। दोनों सुर-असुर वासुकि नाग के पास गए प्रार्थना की। वासुकि ने कहा— देखो भाई, यदि अमृत में मुझे भी हिस्सा मिलेगा तब तो मैं सहयोग कर सकता हूँ। सबने एक स्वर में स्वीकार किया। वासुकि को लाकर मंदराचल पहाड़ में लपेट दिया गया। पभु मन ही मन सोच रहे हैं जिसने मुख पकड़ा उसका तो हो गया कल्याण। भगवान जान बूझकर बोले- देवताओं ! आप लोग श्रत्रिय ब्राह्मण कुल में जन्म लिए हो इसलिए आप को आगे लगना चाहिए। राक्षसों से कहा- जाओ तुम सब सर्प की पूंछ पकड़ लो। राक्षसों ने कहा- क्या आपने हमें ही नीच खानदान का समझ लिया है। महाराज ! कान खोलकर सुन लीजिए मंथन हो या नहीं हो आगे लगेंगे तो हम ही लगेंगे। 

‘न गृह्णीमो वयम पुच्छम् अहेरंगममंगलम’ 

इस साँप के अशुभ अंग पूंछ को हम नहीं पकड़ेंगे। भगवान बोले- नाराज मत हो भैया ! तुम ही बड़े बाप के बेटे हो आगे तुम ही लग जाओ। देवताओं से कहा जाओ तुम पूंछ की तरफ लग जाओ। प्रभु तो यही चाहते ही थे। देवताओं ने पूंछ और दैत्यों ने मुँह पकड़ लिया। ज्यों लाकर समुद्र में रखा मंदराचल पर्वत डूबने लगा। इस विघ्न को दूर करने के लिए– 

विलोक्य विघ्नेश विधिं तदेरश्वरो दुरन्तवीर्योSवितथाभि सन्धि:।

कृत्वा वपु काच्छप मद्भूतं महत प्रविष्य तोयं गिरिमुज्जहार ॥  

विशाल कछुए का रूप बनाकर भगवान ने विशाल मंदराचल को उठा लिया-

बोलिए कच्छप भगवान की जय----

भगवान का यह कच्छप अवतार था। अब जैसे ही मंथन प्रारम्भ हुआ वासुकि नाग ज़ोर-ज़ोर से फुफुकारने लगा। उसकी फुफकार से दैत्य जलने लगे और पीछे लगे देवताओं पर कोई असर नहीं पड़ा, वे आनंद में थे। अब मन ही मन दैत्य पछता रहे थे, ओह ! बड़े बाप का बेटा बनना महंगा पड़ गया। खूब पछताए। खैर मंथन प्रारम्भ हुआ तो कुछ ही समय बाद कालकूट विषाग्नि प्रकट हो गई। सभी जलचर छ्टपटाने लगे। समुद्र में खलबली मच गई। देवता घबड़ा गए, अरे ये क्या हुआ। प्रभु बोले मत घबड़ाओ शान्ति रखो। बिखरे हुए विष को एकत्र करके प्रभु भोलेनाथ शंकर की शरण में पहुँचे और निवेदन किया---

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: प्रभु आखिर क्यों भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए दौड़ पड़े थे?

देव देव महादेव भूतात्मन्भूत भावन।  

त्राहिन:शरणापन्नामत्रैलोक्यदहनातविषात॥ 

हे देवाधिदेव भोलेनाथ ! तीनों लोकों को जलाने वाले इस हलाहल विष से हमारी रक्षा करो....               

जय श्री कृष्ण -----                                              

क्रमश: अगले अंक में --------------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।

-आरएन तिवारी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़