हिंसक भाषा बोध के बीच भाषायी सहिष्णुता की अपील

Governor CP Radhakrishnan
ANI

महाराष्ट्र के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन तमिलनाडु से आते हैं। राज्य की कोयंबटूर राज्यपाल एक तरह से राज्य का प्रथम नागरिक होता है। इस नाते राज्य में कोई समस्या हो तो उसे रोकने के लिए हस्तक्षेप करना उसकी जिम्मेदारी बनती है।

आमची मराठी बोध को लेकर जारी सियासी खींचतान के बीच आए राज्यपाल के बयान को लेकर विवाद नहीं होता तो ही आश्चर्य होता। मराठी स्वाभिमान के बहाने हिंदीभाषियों से हिंसा का समर्थक रही महाराष्ट्र नव निर्माण सेना यानी मनसे हो या फिर शिवसेना-उद्धव ठाकरे, दोनों के नेता राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन के विरोध में उतर आए हैं। शिवसेना-उद्धव के प्रवक्ता आनंद दुबे ने कहा है कि मराठी महाराष्ट्र में नहीं बोली जाएगी तो क्या भूटान में बोली जाएगी।  मनसे नेता संदीप देशपांडे ने कहा है कि राज्यपाल को मराठी स्वाभिमान और मराठी भाषा के अपमान में अंतर समझना चाहिए।

 सीपी राधाकृष्णन भले ही तमिलभाषी हों, लेकिन मराठी गौरवबोध के बहाने जारी भाषा विवाद  में हस्तक्षेप करके उन्होंने एक तरह से अपने दायित्वबोध को ही जाहिर किया है। तमिलनाडु के कोयंबटूर से दो बार लोकसभा सदस्य रहे राधाकृष्णन आपसी बातचीत में मानतेरहे हैं कि राजनीति में अखिल भारतीय व्याप्ति के लिए हिंदी का सहयोग जरूरी है। इन पंक्तियों के लेखक से कई बार उन्होंने हिंदी सिखाने की अपील की है। यह बात और है कि हिंदी के कुछ शब्दों के अलावा कुछ ज्यादा नहीं सीख पाए। तमिलनाडु के राजनीतिक हलकों में उन्हें तमिल मोदी कहा जाता रहा है। तमिलनाडु की राजनीति हिंदी के कटु विरोध के लिए जानी जाती रही है। 1968 में तमिलनाडु में हिंदी को राजभाषा बनाने के खिलाफ हिंसक आंदोलन हो चुका है। राधाकृष्णन ने उस आंदोलन की हिंसक तपिश को महसूस किया है। इसके बावजूद हिंदी सीखना उनकी चाहत रही है। हिंदी विरोध की आंच में पली-बढ़ी तमिलनाडु की एक पूरी पीढ़ी आपसी बातचीत में मानती है कि उसने क्या खोया है। वह पीढ़ी अब प्रौढ़ावस्था के उतरार्ध की ओर बढ़ रही है। वह मानती है कि अगर हिंदी विरोध की आंच से झुलसने का उसे अंदाजा होता तो हिंदी के विरोध में वह अपनी जिंदगी और अपने सपनों को होम नहीं करती।

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राज्यपाल ने वैसे कुछ ऐसा नहीं बोला है, जिसे तूल दिया जा सके। उन्होंने कहा है कि किसी को पीटने के बाद क्या वह तत्काल मराठी बोलने लगेगा। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। सीपी राधाकृष्णन 1998 और 1999 में लगातार दो बार कोयंबटूर से चुने गए थे। उन दिनों वे तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष भी रहे। उसी दौर की एक घटना का जिक्र उन्होंने अपने बयान में किया है। इस बयान में उन्होंने कहा है कि एक बार वे तमिलनाडु में कहीं जा रहे थे तो तमिल न बोलने के चलते कुछ हिंदीभाषी लोगों के साथ स्थानीय भाषा आंदोलनकारी मारपीट कर रहे थे। जिसके लिए उन्होंने हिंदीभाषियों से माफी मांगी और तमिल बोलने की जिद्द करने वाले लोगों से कहा था कि क्या उनके हाथों पिट जाने के बाद कोई तत्काल तमिल बोल पाएगा।

भारत की हर भाषा का सम्मान हो, हर भाषा को बोलने वालों का सम्मान हो, इस सोच को बढ़ावा देने की जरूरत है। भारत की हर भाषा एक-दूसरे से जुड़ी है। भारत  की भाषाएं आपस में बहनें हैं। इनके बहनापा को बढ़ावा देने की जरूरत है। कोई भाषा श्रेष्ठ है या कोई भाषा कमजोर है, इसकी तुलना भी बेमानी है। बहुभाषी भारत में एक कहावत पूरी शिद्दत से कही जाती है कि कोसृ-कोस पर पानी बदले, तीन कोस  पर बानी। इसका आशय साफ है कि कुछ ही  दूरी पर भाषा का स्वरूप बदल जाता है। लेकिन क्या व्यक्ति इसका व्यवहार करना छोड़ देता है,क्या कुछ दूरी पर बदली भाषा से वह घृणा करने लगता है। भाषाओं की दुनिया किसी राष्ट्र की चौहद्दी नहीं हैं कि बाड़ लगाकर उन्हें रोक दिया जाएगा, भाषाओं का समाज नदी के पाट की तरह भी नहीं है कि उनके किनारों को बांध बनाकर रोक दिया जाएगा और उसके पानी को नियंत्रित कर लिया  जाएगा। दरअसल भाषाएं नदी के प्रवाह की तरह हैं। जिस तरह हर नदी का अपना प्रवाह है, उसके प्रवाह की अपनी ध्वनि है, कुछ ऐसा ही हाल हर भाषा का है। लेकिन तमिल हो या मराठी, उन्हें बेहतर मानने और बाकी भाषाओं को कमतर समझने की सोच सही नहीं है। हर भाषा उसे बोलने वाले मूल धारा के व्यक्ति के लिए उसकी  अभिव्यक्ति का  श्रेष्ठ साधन है। राज्यपाल के बयान का मकसद भाषाओं की दुनिया की इसी खूबसूरती से परिचित करना और उनके गौरवबोध से लोगों का परिचय कराना है।

महाराष्ट्र में मराठी बोली जाए या तमिलनाडु में तमिल का व्यवहार बाकी भाषाओं की तुलना में बेहतर हो, इससे भला किसी को क्यों इनकार होगा। लेकिन मराठी और तमिल को बेहतर बताने और हिंदी को कमतर बताने की सोच को स्वीकार नहीं किया जा सकता। हिंदी ही क्यों, बाकी भारतीय  भाषाओं को कमतर बताना भी उचित नहीं होगा। 

भाषा को लेकर गौरवबोध होना तो ठीक है, लेकिन अपनी भाषा के गौरवबोध को कथित तौर पर स्थापित करने के लिए हिंसा का सहारा लेना या जबरदस्ती करना उचित नहीं है। ऐसा करना एक तरह से कानून-व्यवस्था का मामला बन जाता है। ऐसे में राज्यपाल का यह कहना उचित ही है कि कानून-व्यवस्था ठीक नहीं रहेगी तो निवेशक राज्य में आने से बचेंगे, निवेश घटेगा तो राज्य में उत्पादक इकाइयां कम होगीं, इससे रोजगार घटेगा और राज्य का राजस्व भी। भाषा की राजनीति को इन तथ्यों को भी समझना होगा। उसे देखना होगा कि भाषा के प्रति प्यार और स्नेह अराजकता का जरिया ना बने। भाषा को लेकर आक्रामक राजनीति करने वाले दलों को भी समझना होगा कि भाषाई स्वाभिमान के नाम पर होने वाली जबरदस्ती अंतत: दूसरे पक्ष को भी उकसाती है। सोचिए, अगर हर भाषाभाषी अराजक ढंग से अपने भाषायी गौरवबोध को उभारने और उसे अभिव्यक्ति देने लगे तो क्या होगा ? अराजकता का तीव्र विस्फोट होगा और उससे अंतत: राष्ट्र की नींव में सुराखें बनने लगेंगीं। जिसकी बुनियाद पर राष्ट का खड़े रह पाना कठिन होगा। महाराष्ट्र के राज्यपाल के बयान को इन संदर्भों में भी देखा और समझा जाना चाहिए। 

राज्यपाल ने ठीक ही कहा है कि हमें ज्यादा से ज्यादा भाषाएं सीखनी चाहिए, अपनी मातृभाषा पर गर्व भी करना चाहिए। इसे लेकर कोई समझौता भी नहीं किया जा सकता। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि हम किसी और की मातृभाषा से नफरत करें। भाषाओं के नाम पर अराजक होने की बजाय जरूरत इस बात की है कि हम एक-दूसरे की भाषा ही नहीं, उसके समूचे अस्तित्व के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। तुच्छ और तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए भाषा के नाम पर सहिष्णुता का यह पुल एक बार टूटा तो उसे फिर से स्थापित कर पाना बेहद कठिन होगा। महाराष्ट्र के राज्यपाल के बयान को इन्हीं संदर्भों में देखा, परखा और समझा जाना चाहिए।

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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