राम के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाले इतिहासकार बेनकाब हो गये

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अगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो हमें समझ आ जाना चाहिए कि अयोध्या को लेकर वामपंथी इतिहासकार और राजनीतिक वर्ग ने कुछ मजबूत मिथक गढ़ दिए थे जो इतिहास और पुरातत्व के नजरिये से भी मिथ्या थे।

अयोध्या पर भारत की सर्वोच्च अदालत के निर्णय को आज सेक्युलरिज्म के चश्मे से भी देखने की आवश्यकता है। यह वही चश्मा है जिसने इस मुल्क की संसदीय सियासत में 70 साल तक लोगों की आंखों पर जबरिया चढ़कर इमामे हिन्द को अदालत की चौखट पर खड़े होने को मजबूर कर दिया। इस चश्मे के नम्बर सत्ता की जरूरतों के हिसाब से ऊपर नीचे होते रहे हैं और लगातार भारत की महान सांस्कृतिक विरासत पर बहुलता, विविधता जैसे शब्दों को इतना बड़ा बनाकर स्थापित कर दिया कि इस पुण्य धरती की अपनी हजारों साल की पहचान पर ही लोग सशंकित होने लगे। 1947 के साम्प्रदायिक बंटवारे के बावजूद भारत में अल्पसंख्यकवाद की नई राजनीति को जन्म भी इसी पश्चिमी सेक्युलर शब्द ने दिया।

गांधी के राम को खूंटी पर लटका कर भारत के अवचेतन पर लुटेरे सिकन्दर, बाबर और औरंगजेब जैसे आतातायी को महानता का चोला पहना कर स्थापित करने का काम इस दौरान किया गया। इतिहास किसी नजरिये से नहीं लिखा जा सकता है यह सामान्य बात है लेकिन भारत में तो इतिहास भी सेक्युलरिज्म की स्याही से लिखा गया है। इसीलिये आज अयोध्या के निर्णय को किसी सम्प्रदाय की हार जीत से आगे चल कर सुगठित और सत्ता पोषित वामपंथी सेक्युलर प्रलाप के पिंडदान रूपी घटनाक्रम के रूप में भी विश्लेषित किये जाने की आवश्यकता है। मोटे तौर पर भारत में सेक्युलर शब्द की व्याप्ति हिन्दू सनातन परंपरा और विश्वास के विरुद्ध एक सुनियोजित वैचारिक और राजनीतिक विग्रह है। इस समुच्चय का उद्देश्य हिंदुओं के नाम से मुसलमानों और ईसाइयों को भयादोहित करके करोड़ों अल्पसंख्यकों को सेक्युलरिज्म की नकली सुरक्षा छतरी के नीचे जमा करना रहा है। छतरी के नीचे जमा जमात को इस बात का अहसास कराया गया कि बाबर, औरंगजेब महान थे और उनके साथ इस देश के मुसलमानों का एक रागात्मक रिश्ता है।

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अगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो हमें समझ आ जाना चाहिए कि अयोध्या को लेकर वामपंथी इतिहासकार और राजनीतिक वर्ग ने कुछ मजबूत मिथक गढ़ दिए थे जो इतिहास और पुरातत्व के नजरिये से भी मिथ्या थे। मसलन बाबरी मस्जिद पर हिंदुओं का दावा संघ के हिन्दू राष्ट्र की कल्पना का एक हिस्सा है। जो कुछ लोग अयोध्या आंदोलन के पीछे खड़े हैं वे आरएसएस के एजेंडे पर काम करने वाले हैं। लेकिन आज सवाल अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के उस पक्ष का है जो रामलला के हित में किसी आस्था के आधार पर नहीं बल्कि इतिहास, पुरातत्व, टूरिस्ट डायरी और भारतीय पुरातत्व परिषद की वैज्ञानिक प्रविधि से की गई खुदाई के निष्कर्ष पर आधारित है। यह फैसला अयोध्या में उसी स्थान पर राम के अस्तित्व को प्रमाणित करता है जिसे भारत में सेक्युलर फोर्सेज ने बाबरी मस्जिद के रूप में हमें पढ़ाया और ये समझाने का प्रयास किया कि अयोध्या का पूरा विवाद तो सिर्फ संघ परिवार के गुप्त एजेंडे का हिस्सा है। जबकि हकीकत यह थी कि लाख दमन और अत्याचार के बावजूद हिन्दू 400 साल से इस स्थान के लिये सँघर्ष कर रहा था। यह तथ्य आज तक सहिष्णुता के नीचे ही दबा रहा है। सवाल यह है कि क्या भारत की सर्वोच्च अदालत ने भी ऐसा ही मानकर निर्णय दिया है? जवाब सेक्युलर जमात को आइना दिखाने वाला है यह निर्णय।

अदालत ने अयोध्या आंदोलन को महज 1990 और 6 दिसम्बर 1992 की कारसेवा या किसी सिविल टाइटल सूट के उलट 400 साल पुराने उस हिन्दू दावे को भी समझने की कोशिशें की हैं जिसकी बुनियाद पर राम  इमामे हिन्द कहलाये हैं। अयोध्या को जिस तरह संघ और बीजेपी के राजनीतिक परकोटे में 1990 की कालावधि के साथ जोड़ने का कुत्सित षड्यंत्र वामपंथी विचारकों ने किया उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करने का काम किया है। असल में इस फैसले ने साबित कर दिया कि राम और अयोध्या भारत की पहचान हैं और इसके ऐतिहासिक, पुरातत्वीय और पौराणिक प्रमाण भी हैं। लिहाजा सेक्युलरिज्म के चश्मे से अब राम और उसके अस्तित्व को नहीं देखा जाना चाहिये। जिस विवादित जगह को बाबरी शहादत जैसे प्रतिक्रियावादी शब्दों के साथ जोड़ा गया वे साक्ष्यों की पेशकदमी में टिक नहीं पाए हैं।

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निर्णय के एक हजार पन्ने अयोध्या को स्कंद पुराण से लेकर वाल्मीकि रामायण तक के दौर से प्रमाणित करते चले गए और यही असल में सेक्युलरिज्म की सबसे बड़ी शिकस्त है क्योंकि सेक्युलर इतिहास तो अयोध्या और राम दोनों को काल्पनिक मानता है उसकी कलम से तो बाबरनामा प्रमाणित होता आया है। औरंगजेब की क्रूरता और असहिष्णुता को महानता का प्रमाण पत्र मिला हुआ है। बुनियादी सवाल कोर्ट में हार जीत का नहीं है इससे अधिक है। इस निर्णय ने साबित कर दिया कि अयोध्या भारत की सांस्कृतिक और मौलिक विरासत है, उसे किसी कालक्रम से सीमित किया ही नहीं जा सकता है। आरएसएस के जन्म से 75 साल पहले भी वहां सिख मतावलम्बी राम की आराधना के लिये मुगलों से लोहा ले रहे थे। उसी स्थान पर महान तीर्थंकर महावीर राम को तलाशते हुए आये थे। क्यों बुद्ध अपने बुद्धत्व को पूर्णता के लिये इसी अयोध्या तक चले आये ? इन सबका एक ही उत्तर है- राम इस धरती के आत्मतत्व हैं। आत्मतत्व के बगैर शरीर का महत्व क्या ? लेकिन ईमानदारी से आत्मवलोकन कीजिये हमें 70 साल तक क्या बताया और समझाया गया है। पाठ्यक्रम, पुरातत्व, कला और अन्य माध्यमों से। यही कि राम एक मिथक हैं। लेकिन कभी राम की उस व्याप्ति को नहीं बताया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया है। मंदिर को तोड़ कर मस्जिद नहीं बनाई गई यह एएसआई की रिपोर्ट कहती है लेकिन इस मस्जिद के नीचे निकले पुरावशेष इस्लामिक भी नहीं हैं न ही समतल जगह पर इसे बनाया गया।

एएसआई के चीफ रहे श्री मोहम्मद के खुदाई निष्कर्ष को भी देश के वामपंथी सेक्युलर वर्ग ने मानने से इनकार कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे मान्यता देकर भारत के छद्म सेक्युलरिज्म को बेनकाब कर दिया। सवाल फिर उस सेक्युलर सोच का है जो भारत और अयोध्या के रिश्ते में बाबर, मीर बांकी और औरंगजेब को स्थापित करता आया है। सच तो सिर्फ यही है कि रामलला और हाशिम अंसारी में कोई द्वेत है ही नहीं इसीलिए महंत और अंसारी एक ही रिक्शे में बैठकर फैजाबाद की अदालत में इस मुकदमे की लड़ाई लड़ने जाते थे। दोनों के अंतर को सेक्युलर सोच ने गहरा किया, दोनों को राम और बाबर के साथ जोड़ दिया जबकि दोनों मूल रूप से राम की विरासत के ही हकदार हैं। तुर्क, अफगान और मुगल के साथ भारत का कैसा रिश्ता ? अगर शासन से कोई पीढ़ीगत रिश्ता बनता तो फिर आज हमारे यहां एंग्लो इंडियन करोड़ों में होते। लेकिन जनांकिकीय बदलाव का शासन से कोई रिश्ता नहीं है यही बात भारत के आम मुसलमान, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यको पर लागू होती है।

वस्तुतः पूजा पद्धति बदले जाने से किसी भौगोलिक क्षेत्र की पहचान और संस्कृति नहीं बदली जा सकती। इंडोनेशिया, मलेशिया, त्रिनिदाद, मॉरिशस, बर्मा में अगर आज भी राम वहां के लोकजीवन में वहां की मुद्राओं, वहां की कला, साहित्य में स्थाई रूप से नजर आते हैं तो समझ लीजिये यही राम की अपरिमित व्याप्ति है उन्हें भारत से दूर राम को लेकर कोई आपत्ति नहीं है लेकिन हमारे सेक्युलर धुरंधर राम की धरती पर राम की जगह बाबर और औरंगजेब को स्थापित करते रहे। अयोध्या को भारत की सुप्रीम अदालत ने फिर से उसी मौलिक महत्व के साथ प्रतिष्ठित कर दिया है जिसमें सब भारतवासी जीते हैं। मेरे रामलला और हासिम अंसारी के इमामे हिन्द। हार गए तो सरकारी खर्चे से पले पोषित सेक्यूलर परजीवी। फिर भी हारे को हरी नाम।

डॉ. अजय खेमरिया

स्वतंत्र पत्रकार

एवं अध्यक्ष बाल कल्याण समिति (जेजे एक्ट) शिवपुरी/ग्वालियर

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