भारत रत्न आडवाणी ने राजनीति को नई दिशा और मतदाताओं को मजबूत विकल्प दिया

Lal Krishna Advani
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स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति लम्बे समय तक कांग्रेस के प्रभाव में रही। विपक्ष बिखरा हुआ और असंगठित था। ऐसे समय में आडवाणी ने संगठन के महत्त्व को पहचाना। उन्होंने न केवल भाजपा को संगठित ढाँचा दिया, बल्कि उसे वैचारिक दृढ़ता भी प्रदान की।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के वरिष्ठ नेता और लालकृष्ण आडवाणी को आज उनके जन्मदिन पर बधाई दी और उन्हें ‘‘एक महान दृष्टिकोण वाला राजनेता’’ बताया। हम आपको बता दें कि 

राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा को एक मजबूत ताकत के रूप में उभारने में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी आज 98 वर्ष के हो गए। भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित आडवाणी ने भारत के लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ी है। लालकृष्ण आडवाणी का जीवन भारतीय लोकतंत्र के एक ऐसे युग का साक्षी है, जिसमें कांग्रेस की एकाधिकारवादी राजनीति को पहली बार वैकल्पिक चुनौती मिली।

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अविभाजित भारत के कराची में 8 नवंबर 1927 को जन्मे आडवाणी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपना सार्वजनिक जीवन आरंभ किया। यह पृष्ठभूमि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का आधार बनी यानि अनुशासन, संगठन और राष्ट्रनिष्ठा का त्रिवेणी संगम। आडवाणी का जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक का सफर, किसी राजनीतिक दल की कहानी भर नहीं है; यह उस विचार का प्रस्फुटन है जो यह कहता है कि लोकतंत्र में केवल एक पार्टी का वर्चस्व स्थायी नहीं रह सकता। आडवाणी ने इस सत्य को समझा, जिया और उसे जनांदोलन का रूप दिया।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति लम्बे समय तक कांग्रेस के प्रभाव में रही। विपक्ष बिखरा हुआ और असंगठित था। ऐसे समय में आडवाणी ने संगठन के महत्त्व को पहचाना। उन्होंने न केवल भाजपा को संगठित ढाँचा दिया, बल्कि उसे वैचारिक दृढ़ता भी प्रदान की। उनकी रथयात्रा न केवल भाजपा को जनभावनाओं के केंद्र में लायी बल्कि देश के राजनीतिक विमर्श को ही बदल दिया। जनता को यह विश्वास हुआ कि सत्ता परिवर्तन अब असंभव नहीं है। आडवाणी ने लोकतंत्र को जीवंत प्रतिस्पर्धा का रूप दिया। उन्होंने दिखाया कि विपक्ष केवल आलोचना तक सीमित नहीं रह सकता, बल्कि उसे विकल्प बनना चाहिए— विचार का, नेतृत्व का और नीति का। यही उनके जीवन का सबसे बड़ा योगदान रहा।

आडवाणी की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने संगठन को व्यक्ति से ऊपर रखा। उन्होंने नेतृत्व के भीतर सामूहिकता की भावना को पल्लवित किया। भाजपा के विस्तार में उनका योगदान केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को आधुनिक लोकतांत्रिक विमर्श से जोड़ा। आपातकाल के दौरान उनका संघर्ष लोकतंत्र की मर्यादा का प्रतीक रहा। जब कई लोग सत्ता के भय में मौन थे, तब आडवाणी ने असहमति को देशभक्ति का रूप दिया। यही साहस आगे चलकर भाजपा के चरित्र का हिस्सा बना।

 

आडवाणी की राजनीति में केवल संघर्ष नहीं, समावेश भी था। जब वह उपप्रधानमंत्री बने, तब भाजपा ने पहली बार बहुदलीय गठबंधन के रूप में सत्ता संभाली। यह भारतीय राजनीति के परिपक्व होने का संकेत था।

उन्होंने दिखाया कि राष्ट्रीय हित में मतभेद भी सहयोग में बदल सकते हैं। गठबंधन-राजनीति की यह परंपरा भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता की एक बड़ी गारंटी बनी।

यह भी सही है कि आडवाणी का राजनीतिक जीवन विवादों से अछूता नहीं रहा। अयोध्या आंदोलन ने उन्हें जहां अपार जनसमर्थन दिलाया, वहीं आलोचना का भी केंद्र बनाया। किंतु यही लोकतंत्र की खूबसूरती है— जहाँ विचारों की विविधता को भी इतिहास दर्ज करता है। आडवाणी की सबसे बड़ी विशेषता यही रही कि उन्होंने विवाद से विमर्श की दिशा निकाली। वह संवाद को टकराव से ऊपर मानते हैं। आज भारतीय लोकतंत्र में भाजपा के रूप में जो सशक्त वैकल्पिक शक्ति खड़ी है, उसकी नींव एक तरह से आडवाणी ने ही रखी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि लोकतंत्र केवल सत्ता परिवर्तन का साधन नहीं, बल्कि वैचारिक प्रतिस्पर्धा का उत्सव है। उनकी राजनीति ने जनसंघ से भाजपा तक एक ऐसी यात्रा तय की जिसमें विचार, संगठन और जनविश्वास एक सूत्र में बंधे।

देखा जाये तो राजनीति में कुछ ही ऐसे नेता होते हैं, जिनके कार्य और दृष्टि केवल किसी दल को नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्रीय विमर्श को नई दिशा देते हैं। लालकृष्ण आडवाणी निस्संदेह उन विरले नेताओं में हैं जिन्होंने न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को संगठनात्मक रूप से सशक्त किया, बल्कि हिंदुत्व की सांस्कृतिक चेतना को राजनीतिक अभिव्यक्ति में बदलने का ऐतिहासिक कार्य भी किया। उनके नेतृत्व में जन्मा और विस्तृत हुआ राम मंदिर आंदोलन, आधुनिक भारत के सबसे बड़े और दीर्घकालिक जनआंदोलनों में से एक माना जाता है। खास बात यह रही कि राम मंदिर आंदोलन अपने लक्ष्य में सफल भी रहा क्योंकि श्रीरामजन्मभूमि पर ही भव्य राम मंदिर का निर्माण हुआ।

 

देखा जाये तो आडवाणी का राजनीतिक दृष्टिकोण केवल चुनावी गणित तक सीमित नहीं था। उन्होंने भारतीय समाज की गहराइयों में विद्यमान सांस्कृतिक अस्मिता को राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनाया। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का मुद्दा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया। आडवाणी ने इसे राष्ट्र की आत्मा से जोड़ा और इसे “राष्ट्रीय गौरव का प्रश्न” कहा। उनकी 1990 की ऐतिहासिक राम रथ यात्रा जो सोमनाथ से अयोध्या तक चली, उसने हिंदू समाज को आत्म-स्वर देने का कार्य किया। यह यात्रा मात्र राजनीतिक अभियान नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक मानस को आंदोलित करने वाली यात्रा थी। जहां भी रथ पहुँचा, वहां लाखों की भीड़ एक विचार से जुड़ने लगी— “राम हमारे हैं, राम राष्ट्र के हैं।” यही वह बिंदु था जिसने भाजपा को विचार की पार्टी से जनांदोलन की पार्टी बना दिया।

साथ ही 1980 के दशक में भाजपा जब अपने आरंभिक चरण में थी, तब वह महज दो सीटों तक सीमित रह गई थी। ऐसे कठिन समय में आडवाणी ने पार्टी को सिद्धांतों से जोड़े रखने और संगठन को विस्तार देने की दोहरी भूमिका निभाई। उन्होंने जनसंघ की अनुशासन परंपरा को आगे बढ़ाया और पार्टी में विचारधारा को प्राथमिकता देने का संस्कार विकसित किया। भाजपा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सांगठनिक संरचना को नई ऊंचाई दी और बूथ स्तर तक कार्यकर्ता नेटवर्क को मजबूत किया, युवा मोर्चा और महिला मोर्चा को सक्रिय किया और विचार-विस्तार के लिए “पार्टी विद ए डिफरेंस” की अवधारणा दी। यही संगठनात्मक शक्ति बाद में भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति का केंद्रीय स्तंभ बना गई।

आडवाणी ने हिंदुत्व को कभी धार्मिक अवधारणा के रूप में नहीं देखा। उन्होंने इसे “राष्ट्रीय पहचान का सांस्कृतिक बोध” कहा यानि एक ऐसी चेतना जो भारतीयता को एक सूत्र में बांधती है। उन्होंने तर्क दिया कि हिंदुत्व भारत के जीवन-मूल्यों का प्रतीक है, जो सहिष्णुता, समरसता और आध्यात्मिकता का संगम है। यही दृष्टिकोण उन्हें एक सांस्कृतिक राजनेता के रूप में अलग करता है। उन्होंने “सकारात्मक राष्ट्रवाद” की अवधारणा प्रस्तुत की, जो किसी के विरोध पर नहीं, बल्कि अपने गौरव के पुनर्स्थापन पर आधारित थी।

आडवाणी की राम रथ यात्रा, स्वर्ण जयंती यात्रा और भारत गौरव यात्रा सिर्फ राजनीतिक आयोजन नहीं थीं। वे संवाद के साधन थे, जिनसे भाजपा ने जनता के बीच अपनी वैचारिक उपस्थिति दर्ज कराई। इन यात्राओं ने भाजपा को उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में स्थापित किया। 1990 की रथ यात्रा ने जहां भाजपा को एक सांस्कृतिक मिशन दिया, वहीं 1997 की स्वर्ण जयंती यात्रा ने पार्टी को प्रशासनिक और शासन के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। यह यात्रा-संस्कृति आज भी भाजपा की जनसंपर्क परंपरा में दिखाई देती है।

लालकृष्ण आडवाणी का योगदान केवल एक आंदोलन की सफलता या एक पार्टी के उत्थान तक सीमित नहीं है। उन्होंने भारत की राजनीति को विचार की राजनीति बनाया— जहां भावनाएं, सिद्धांत और संगठन एक साथ चलते हैं। उनके रथ ने केवल सड़कों की यात्रा नहीं की, बल्कि भारतीय मानस की यात्रा की। विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी भाजपा की वैचारिक जड़ें और सांगठनिक ताकत, दोनों की नींव आडवाणी जैसे दूरदर्शी नेतृत्व ने ही रखी। उनकी यात्रा हमें यह सिखाती है कि राजनीति केवल सत्ता की सीढ़ी नहीं, बल्कि जनचेतना का माध्यम भी हो सकती है। लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति के वह अध्याय हैं, जिन्होंने विचार को आंदोलन और आंदोलन को राष्ट्रीय नीति में रूपांतरित किया।

बहरहाल, भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी का जन्मदिन हमें केवल एक वरिष्ठ नेता की उपलब्धियों की याद नहीं दिलाता, बल्कि यह भी स्मरण कराता है कि लोकतंत्र में विचारों की जीवंतता कितनी आवश्यक है। उन्होंने दिखाया कि लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन केवल विपक्ष के नारे से नहीं, बल्कि संगठन, वैचारिक दृढ़ता और जनविश्वास से होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा है कि आडवाणी जी निस्वार्थ कर्तव्य और अटल आदर्शों के प्रतीक हैं। सचमुच, वह भारतीय राजनीति के ऐसे शिल्पकार हैं जिन्होंने लोकतंत्र को नई दिशा दी— जहाँ विकल्प केवल विचार नहीं, एक सशक्त व्यवस्था बन गया।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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