अखिलेश यादव की चुनावी तैयारी देखकर उड़ सकती है भाजपा की नींद

Akhilesh Yadav
ANI

अखिलेश को लेकर यह सोच इसलिए बन रही है, क्योंकि उन्होंने ऐलान कर दिया है कि समाजवादी पार्टी राज्य की 80 में से 65 सीटों पर खुद उतरेगी। पंद्रह सीटों को छोड़कर अखिलेश यादव ने गठबंधन की गुंजाइश तो छोड़ी है।

खेती-किसानी में सबसे ज्यादा विकास दर वाले मध्य प्रदेश में कांग्रेस की उपेक्षा से क्या समाजवादी पार्टी ने मान लिया है कि अगले आम चुनाव में उसे अकेले अपने दम पर ही उतरना होगा? अखिलेश यादव ने आगे बढ़कर अपने असर वाले उत्तर प्रदेश में जिस तरह आम चुनाव के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं, उसके संकेत तो यही हैं। चुनाव में जीत-हार बाद का मसला है, लेकिन अखिलेश की तैयारियों से साफ है कि अगर गठबंधन की थोड़ी गुंजाइश बनी भी तो उत्तर प्रदेश में गठबंधन उनकी ही शर्तों पर होगा। अखिलेश जिस तरह जुटे हुए हैं, उससे लगता है कि अगर गठबंधन नहीं भी होता तो भी समाजवादी पार्टी अपने

दम पर उतरने में भी नहीं हिचकेगी।

अखिलेश को लेकर यह सोच इसलिए बन रही है, क्योंकि उन्होंने ऐलान कर दिया है कि समाजवादी पार्टी राज्य की 80 में से 65 सीटों पर खुद उतरेगी। पंद्रह सीटों को छोड़कर अखिलेश यादव ने गठबंधन की गुंजाइश तो छोड़ी है। अखिलेश के साथ विधानसभा चुनाव लड़ चुके सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर अखिलेश का साथ छोड़ चुके हैं। जिस तरह बहन जी यानी मायावती ने जिस तरह ‘एकला चलो रे’ का राग अपना रखा है, उससे अखिलेश मान चुके हैं कि बहुजन समाज पार्टी से इस बार गठबंधन संभव नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन था। तब इसे ‘बुआ-बबुआ’ का गठबंधन माना जा रहा था। साल 2017 के विधानसभा चुनावों में अखिलेश यादव की पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन था, तब उस गठबंधन को राहुल गांधी के साथ के चलते ‘यूपी के लड़के’ कहा गया था। वैसे तो हर चुनाव में हर राजनीतिक दल के लिए गुंजाइश होती ही है।

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लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश में अतीत में ये दोनों गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के सामने काम नहीं आए। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी का साफ गठबंधन नहीं था। लेकिन यह भी सच है कि समाजवादी पार्टी ने अमेठी और रायबरेली में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। लगता है कि पिछले दो विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों के अनुभव से अखिलेश सीखने की कोशिश कर रहे हैं। बेशक नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की पहल पर अखिलेश ने विपक्षी इंडी गठबंधन में शामिल होने के लिए कदम बढ़ाया। लेकिन जिस तरह मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने उन्हें किनारे किया, उससे वे नाराज हैं। अखिलेश अपनी नाराजगी जाहिर करने से नहीं हिचकते। कमलनाथ के बयान के बाद जिस तरह अखिलेश ने तीखी प्रतिक्रिया जताई, उससे साफ है कि कांग्रेस को लेकर इस बार वे सहज नहीं हैं। लेकिन

भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने के लिए वे कांग्रेस का साथ ले सकते हैं। लेकिन कांग्रेस का जैसा रवैया है, जिस तरह विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने गठबंधन में शामिल दलों को अनदेखा किया है, इसलिए वे कांग्रेस के साथ भी भरे मन से जा सकते हैं। क्योंकि अखिलेश नहीं चाहते कि चुनावों में विगत के दो लोकसभा चुनावों की तरह उनकी हालत हो।

विपक्षी गठबंधन में ममता बनर्जी के बाद शायद अखिलेश ही ऐसे नेता हैं, जो पूरी शिद्दत के साथ अपनी चुनावी तैयारी में व्यस्त हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में पीडीए के फॉर्मूले पर काम शुरू किया है। पी यानी पिछड़ा, डी यानी दलित और ए यानी अल्पसंख्यक। अखिलेश अपने कार्यकर्ताओं से इस ए के साथ आधी दुनिया यानी महिलाओं को भी जोड़ने की बात कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी का वोट बैंक एमवाई यानी मुस्लिम-यादव के गठजोड़ पर केंद्रित रहा है। अतीत में राज्य की गैर यादव पिछड़ी जातियों का भी उसे साथ मिलता रहा है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के उभार के बाद गैर यादव पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा उसके

साथ आ गया है। कोइरी, निषाद, कान्दू, गोड़ं, नाई, खरवार, नोनिया, कुर्मी आदि जातियों का एक बड़ा हिस्सा अब भाजपा के साथ है। बहुजन समाज पार्टी की स्थिति खराब होने की एक बड़ी वजह उसके दलित वोट बैंक में पड़ी दरार है। अब दलितों में ज्यादातर जाटव वर्ग ही बहुजन समाज पार्टी के साथ हैं। डोम, बसफोर, धोबी, दुसाध या पासवान जैसी जातियों का रुझान पिछले कुछ चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ दिखा है। अखिलेश की निगाह गैर जाटव दलित और गैर यादव पिछड़ी जातियों पर भी है। चूंकि राजभर और नोनिया जातियां साथ आती रही हैं और ओमप्रकाश राजभर अब भाजपा के साथ हैं, इसलिए इनमें सेंध लगाना अखिलेश के लिए आसान नहीं होगा। पिछले कुछ चुनावों में महिलाओं ने खुलकर भाजपा का साथ दिया है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा इसके अपवाद हैं। अब महिलाओं की चुनावी सोच अपने पतियों, बेटों, पिताओं या घर के अन्य पुरुष सदस्यों की सोच पर निर्भर नहीं रही। देर से ही सही, अखिलेश इसे समझते नजर आ रहे हैं। इसीलिए वे पीडीए के फॉर्मूले में महिलाओं को भी शामिल कर रहे हैं। अपने कार्यकर्ताओं को वे महिलाओं के बीच जाने को कह रहे हैं। वैसे भी उनके वोट बैंक के प्रमुख जातीय समूह के बारे में आम धारणा है कि वह आक्रामक होती है, इसलिए महिलाओं के बीच अखिलेश कितना लोकप्रिय हो पाएंगे, यह कहना मुश्किल है।

अखिलेश को अब आभास हो गया है कि उनकी चुनौती बड़ी है। 2012 का विधानसभा चुनाव जीतने और कम उम्र में मुख्यमंत्री का पद पा लेने के बाद राजनीति की पथरीली चुनौतियों को वे उतनी गहराई से शायद नहीं समझ पाते थे, जितनी समझ उनके पिता मुलायम सिंह की थी। लेकिन लगातार चार चुनावों में पिछड़ने के बाद लगता है कि वे राजनीति को ठीक से समझने लगे हैं। इसीलिए वे अपनी तरह से राजनीति को धार दे रहे हैं। शायद यही वजह है कि वे अपने तरीके से अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि लगातार चार चुनावों और दो नगर निकाय चुनावों में समाजवादी पार्टी भाजपा के सामने लगातार पिछड़ती रही है। इस आधार पर माना जा सकता है कि अखिलेश के सामने चुनौती कम नहीं हुई है। लेकिन कम से कम वे राहुल गांधी की तुलना में कहीं ज्यादा गहरी कोशिश करते नजर आ रहे हैं। इस तथ्य को कांग्रेस भी समझ ही रही होगी। लेकिन उसके उत्तर प्रदेश अध्यक्ष शायद इसे नहीं समझते या फिर पार्टी को अपने दम पर आगे लाने का उन पर बढ़ा दबाव, वे अखिलेश को नाराज करने से खुद को रोक नहीं पाए। अजय राय का चिढ़ाऊ बयान और मध्य प्रदेश में राहुल की अनदेखी ने शायद अखिलेश के लिए एकला चलो रे की धुन पर उत्तर प्रदेश का चुनावी राग गाना मजबूरी भी है। अगर मजबूरी में ही वे शिद्दत से तैयारी करते नजर आ रहे हैं तो भारतीय जनता पार्टी को उनसे चौकस रहना होगा। उनकी रणनीतियों पर निगाह रखनी होगी।

-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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