7 साल पहले बनी पार्टी ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को ऐसे दी शिकस्त

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करीब सात साल पहले जन्मी आम आदमी पार्टी बहुत सीमित संसाधनों के बावजूद भाजपा जैसी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का मुकाबला कर लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हुई है तो इसके निहितार्थ समझना बेहद जरूरी है।

लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन होती है और लोकतंत्र के महापर्व में इसी जनता जनार्दन की भूमिका सर्वोपरि होती है, जिसका फैसला सर्वमान्य होता है। दिल्ली की जनता ने विधानसभा चुनाव में जो फैसला सुनाया है, उसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। दिल्ली में लोकतंत्र के इस महापर्व में कुल 1.47 करोड़ मतदाताओं में से 62.59 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग करते हुए दिल्ली की किस्मत का फैसला कर दिया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार ऐसा देखा गया, जब किसी राज्य में सत्तारूढ़ दल ने यह कहकर वोट मांगने का प्रयास किया कि अगर उसने पिछले पांच वर्षों के दौरान काम किए हैं, तभी उसे वोट दें अन्यथा न दें।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हर जनसभा में इसी बात पर जोर देते नजर आए कि जनता उनके पांच वर्ष के कामकाज का मूल्यांकन करने के पश्चात् ही फैसला करे और अगर वह उनके कामकाज से संतुष्ट है, तभी उसके पक्ष में मतदान करे। ‘आप’ जहां अपने कामकाज के अलावा मुफ्त योजनाओं के साथ चुनावी मैदान में जमी रही, वहीं भाजपा स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रवाद के मुद्दों को जंग का हथियार बनाते हुए मैदान में नजर आई। कांग्रेस भले ही चुनावी मैदान में तमाम सीटों पर सांकेतिक रूप से मौजूद थी लेकिन वह चुनावी परिदृश्य से पहले ही बाहर दिख रही थी। निश्चित रूप से दिल्ली के ये चुनावी नतीजे देश की राजनीति की नई दिशा तय करेंगे क्योंकि कामकाज की तलाश में दिल्ली में देशभर के विभिन्न हिस्सों से आए लोग रहते हैं और यहां की राजनीतिक हलचल पूरे देश पर अपना व्यापक असर डालती है।

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पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान ‘आप’ का मुख्य फोकस अपने विकास कार्यों पर रहा जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा द्वारा आम जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों को दरकिनार कर पूरे चुनाव को शाहीन बाग, एनआरसी, धारा 370, तीन तलाक, राममंदिर, पाकिस्तान जैसे मुद्दों से जोड़ने का प्रयास किया गया और चुनावी नतीजों से पूरी तरह साफ है कि दिल्ली के मतदाताओं को विकास के मुद्दों से हटकर भाजपा द्वारा उठाए गए ये तमाम मुद्दे रास नहीं आए। अगर महज 70 विधानसभा सीटों वाले दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में चुनावी प्रचार के लिए भाजपा अपने 240 सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, दिग्गज नेताओं और कार्यकर्ताओं की भारी-भरकम फौज मैदान में उतारने और पूर्व भाजपाध्यक्ष व मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह द्वारा पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी आशानुकूल परिणाम हासिल नहीं कर सकी तो उसे इसके लिए गंभीर मंथन करना होगा क्योंकि दिल्ली के इन चुनावी नतीजों का असर कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा। हालांकि दिल्ली में चुनाव की घोषणा से पहले से ही ‘आप’ का पलड़ा काफी भारी दिखाई दे रहा था और यही कारण था कि भाजपा को दिल्ली में अपना 21 साल का वनवास खत्म करने के लिए चुनाव के दौरान आक्रामक शैली अपनानी पड़ी लेकिन इस आक्रामक शैली का वो प्रभाव नहीं देखने को मिला, जितनी भाजपा को उम्मीद थी।

केजरीवाल के खिलाफ किसी मजबूत चेहरे को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करके चुनाव न लड़ना भाजपा के बैकफुट पर रहने का एक अहम कारण रहा। प्रदेश संगठन में अलग-अलग खेमों की गुटबाजी, भाजपा शासित नगर निगमों की कार्यप्रणाली को लेकर उठते गंभीर सवाल, सीलिंग की कार्यवाही, व्यापारियों की नाराजगी इत्यादि कुछ ऐसे अहम कारण भी रहे, जिनका खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा। भाजपा के लिए दिल्ली के चुनाव परिणाम बहुत बड़ी खतरे की घंटी हैं क्योंकि कुछ समय पहले दिल्ली नगर निगम में भाजपा को प्रचण्ड जीत मिली थी और करीब नौ माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में वह दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर रिकॉर्ड मतों के साथ जीत दर्ज करते हुए 58 फीसदी मत प्राप्त कर 70 में से 65 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी लेकिन अब अगर विधानसभा चुनाव में चंद माह के भीतर उन्हीं में से अनेक विधानसभा क्षेत्रों में वह इस कदर पिछड़ गई है तो भाजपा के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। निश्चित रूप से भाजपा नेतृत्व को अब अपनी सियासी रणनीतियों और नीतियों को लेकर गहन मंथन करना ही होगा। लोकसभा चुनाव में जीत का परचम लहराने के चंद महीनों के भीतर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड के बाद दिल्ली में भी बेहद खराब प्रदर्शन के चलते भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचना तय है।

                

चुनावी नतीजों का अगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो अगर करीब सात साल पहले जन्मी आम आदमी पार्टी बहुत सीमित संसाधनों के बावजूद भाजपा जैसी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का मुकाबला कर लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हुई है तो इसके निहितार्थ समझना बेहद जरूरी है। ‘आप’ का जन्म समाजसेवी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से हुआ था और दिल्ली में पहली बार आप 2013 में 28 सीटें जीतकर कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफल हुई थी लेकिन चंद दिनों टिकी उस सरकार के बाद पार्टी ने लोकसभा और विभिन्न विधानसभा व स्थानीय निकाय चुनावों में भी किस्मत आजमाई। हालांकि लोकसभा चुनाव में पंजाब में चंद सीटें जीतने के अलावा पार्टी का कहीं प्रभाव देखने को नहीं मिला लेकिन जब आप 2015 में दिल्ली में 70 में से रिकॉर्ड 67 विधानसभा सीटें जीतकर दिल्ली में दूसरी बार सरकार बनाने में सफल हुई तो उसकी इस अप्रत्याशित सफलता पर दुनियाभर की नजरें केन्द्रित हुईं। सरकार बनने के शुरूआती तीन वर्षों तक आप की छवि काफी धूमिल भी हुई और इसका एक बड़ा कारण रहा केजरीवाल सहित आप के कई नेताओं का बड़बोलापन और बात-बात पर नरेन्द्र मोदी का नाम बीच में घसीटने की मानसिकता। पार्टी के कुछ दिग्गज नेता भी एक-एक कर जिस प्रकार पार्टी छोड़कर गए, उसका खामियाजा भी उस दौरान पार्टी को भुगतना पड़ा। उससे सबक लेते हुए पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल ने जिस तरीके से आम जनता की नब्ज पकड़ते हुए अपने कामों को जनता तक पहुंचाना शुरू किया, उसी का नतीजा रहा कि उन्हें जनता ने अपना भरपूर समर्थन दिया और वह रिकॉर्ड बहुमत के साथ लगातार तीसरी बार दिल्ली में सरकार बनाने में सफल हुए हैं।

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बहरहाल, दिल्ली के चुनावी नतीजों ने पूरी तरह साफ कर दिया है कि जनता को अब भावुक और भड़काऊ मुद्दों की बजाय विकास की राजनीति पसंद है। मई 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में तीसरे स्थान पर रही ‘आप’ अगर प्रचण्ड बहुमत के साथ दिल्ली में फिर से सरकार बनाने में सफल हुई है तो उसके कारणों को समझना जरूरी है। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा जहां शाहीन बाग जैसे मुद्दों को अहम चुनावी मुद्दा बनाते हुए निर्वाचित मुख्यमंत्री को आतंकी व नक्सली करार देती नजर आई, वहीं केजरीवाल ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान जिस शिष्टता और शालीनता के साथ संयमित भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी सरकार के कार्यों को जनता के बीच रखा, उसका सीधा-सीधा फायदा उन्हें मिला। भाजपा सहित तमाम विपक्षी दल सरकार द्वारा विकास कार्यों के नाम पर झूठ बोलने और जनता को गुमराह करने के आरोप मढ़ते रहे लेकिन आप सरकारी स्कूलों के कायाकल्प, मोहल्ला क्लीनिक, मुफ्त बिजली व बिजली दरों में कटौती, पानी की सप्लाई, बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा जैसे अपने कार्यों को गिनाते हुए मजबूती के साथ मैदान में डटी रही, उसका उसे भरपूर फायदा मिला। अगर भाजपा केजरीवाल सरकार के आमजन को स्पष्ट दिखने वाले कार्यों की काट करने के लिए चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम का रंग देने और कुछ राष्ट्रीय मुद्दों को बेवजह ज्यादा तूल देने की बजाय केन्द्र सरकार के कार्यों, भाजपा के वर्चस्व वाले दिल्ली नगर निगम, दिल्ली की कानून व्यवस्था संभाल रही दिल्ली पुलिस के कार्यों और उपलब्धियों को जनता के बीच लेकर जाती और अगले पांच वर्षों में दिल्ली के विकास के लिए नया खाका पेश करती तो संभवतः उसकी स्थिति दिल्ली में कुछ और ही होती। जिस प्रकार भाजपा ने महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों को छोड़कर हिन्दुत्व, एनआरसी, धारा 370, राममंदिर निर्माण और भारत-पाकिस्तान जैसे भावनात्मक मुद्दों के सहारे अपनी चुनावी नैया पार लगाने की कोशिश की, उसे जनता ने पसंद नहीं किया।

बहरहाल, चुनावी नतीजों का स्पष्ट संदेश यही है कि भाजपा नेतृत्व ने महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड के चुनावी नतीजों से सबक न लेते हुए जिस प्रकार दिल्ली के चुनाव में भी भावनात्मक मुद्दे आक्रामक शैली में उठाए, उनका उसे कोई अपेक्षित लाभ नहीं मिला। पिछले तीनों विधानसभा चुनाव के परिणामों में देखा गया था कि जनता जनार्दन ने राष्ट्रवाद के मुद्दों की बजाय स्थानीय मुद्दों को तरजीह दी थी। कुल मिलाकर दिल्ली के ये चुनावी नतीजे भाजपा के लिए गंभीर मंथन और आत्मचिंतन करते हुए चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने का स्पष्ट संदेश दे रहे हैं क्योंकि आने वाले समय में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु विधानसभा चुनाव होने हैं और अगर भाजपा वहां जीत का परचम लहराने का ख्वाब देख रही है तो उसे अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करना ही होगा क्योंकि हर विधानसभा चुनाव में साफतौर पर देखा जा रहा है कि वहां की जनता का सरोकार राष्ट्रवाद के मुद्दों से ज्यादा स्थानीय मुद्दों से रहता है। जिस प्रकार दिल्ली विधानसभा चुनाव के जरिये विकास के नाम पर मतदाताओं से वोट मांगने की नई चुनावी परिपाटी विकसित हुई है, ऐसे में विकास बनाम राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़े गए दिल्ली चुनाव के नतीजे देश के तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा सबक हैं और इन नतीजों को देखते हुए उन्हें अब चुनाव प्रचार पर नए तरीके से सोचने पर विवश होना ही पड़ेगा।

-योगेश कुमार गोयल

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं तथा तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं)

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