नेता समझ ही नहीं पाये और जनता ने पाँचों राज्यों में कर दिया 'खेला'

exit poll

पाँच राज्यों के एग्जेक्ट पोल तो 2 मई को आयेंगे लेकिन एग्जिट पोल के परिणाम यह तो दर्शा ही रहे हैं कि सभी जगह नेतागण देखते रह गये और जनता ने सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि पाँचों राज्यों में खेला कर दिया है।

चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में संपन्न विधानसभा चुनावों में जनता ने क्या जनादेश दिया है यह तो दो मई को पता चल ही जायेगा लेकिन यदि एग्जिट पोल के परिणामों पर नजर डालें तो एक चीज साफ है कि कुछ भी अप्रत्याशित नहीं होने जा रहा है। पश्चिम बंगाल के बारे में पहले से ही सभी का अनुमान था कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच काँटे की टक्कर है और ऐसी ही संभावना एग्जिट पोल भी जता रहे हैं। केरल के बारे में साफ था कि एलडीएफ की सत्ता में वापसी होगी और यही बात एग्जिट पोल दर्शा रहे हैं। तमिलनाडु की सत्ता में बदलाव की आहट काफी समय से महसूस की जा रही थी जोकि एग्जिट पोल के अनुमानों में भी झलकती है। असम में भाजपा को अपने काम के बलबूते सत्ता में लौटना ही था और वही होने की संभावना एग्जिट पोलों में जतायी गयी है। यही नहीं पुडुचेरी में ऐन चुनावों से पहले जिस तरह कांग्रेस की सरकार गिरी थी उससे कांग्रेस नेताओं ही नहीं कार्यकर्ताओं का भी मनोबल गिर गया था और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने जिस आक्रामकता के साथ वहां चुनाव लड़ा है उससे चुनावों के दौरान हर जगह एनडीए ही एनडीए नजर आ रहा था।

विधानसभा चुनावों के परिणाम हालांकि 2 मई को आएंगे लेकिन फिर भी एग्जिट पोलों के आंकड़ों के आधार पर ही राज्यवार विश्लेषण करें तो स्थिति कुछ इस प्रकार सामने आती है-

पश्चिम बंगाल- विधानसभा चुनाव 2021 में सभी की निगाहें पश्चिम बंगाल पर सबसे ज्यादा लगी हुई थीं। सर्वाधिक आठ चरणों में मतदान वाले इस राज्य में हर चरण में कांटे की टक्कर रही और मुद्दे भी अलग-अलग उठते रहे। यहां कुछ चीजें साफ नजर आ रही थीं जैसे कि तृणमूल कांग्रेस के दस साल के शासन के खिलाफ जनता में नाराजगी थी। ममता बनर्जी भले मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पहली पसंद रही हों लेकिन भाजपा ने चूंकि चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा था इसलिए ममता का मुकाबला मोदी की लोकप्रियता के साथ हुआ। इस दौरान यह देखने में आया कि बंगाल में दीदी के समान ही मोदी भी लोकप्रिय हैं।

2 मई को चुनाव परिणाम में भाजपा यहां जीते या नहीं जीते लेकिन भाजपा की यहां विचारधारात्मक रूप से जीत इस तरह हुई कि पहली बार ममता बनर्जी अपनी हर रैली में चंडी पाठ करतीं और अपने को हिंदू बताती नजर आईं। पश्चिम बंगाल की राजनीति का जो मिजाज रहा है उसमें किसी मुख्यमंत्री ने पहली बार ऐसा किया है। वर्ना हमेशा अल्पसंख्यकों के हितों की बात ही कही जाती रही है। यही नहीं तीन-चार चरण के बाद अगर ममता बनर्जी एक वर्ग के लोगों को इकट्ठे होकर मतदान करने की अपील करने पर मजबूर हुईं तो इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनको अपनी पार्टी के प्रदर्शन के बारे में क्या फीडबैक मिला होगा। अब व्हील चेयर से सीएम की चेयर पर ममता बनर्जी पहुँच पाती हैं या नहीं इसका पता तो 2 मई चलेगा लेकिन इतना है कि तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा के साथ तगड़ा मुकाबला किया है। तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा को रोकने की हर संभव कोशिश की है लेकिन इन कोशिशों को करने में उन्होंने जरा देरी कर दी। पाँच साल पहले जब आरएसएस ने यहां अपनी शाखाओं के विस्तार का काम शुरू किया तो तृणमूल कांग्रेस ने उसे भविष्य की चुनौती के रूप में नहीं देखा।

मुझे याद है कि प्रभासाक्षी पर वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय कुलदीप नायर ने लगभग पाँच साल पहले ही अपने एक स्तम्भ में लिखा था कि आरएसएस की शाखाएं आज कोलकाता के हर पार्क में लगना शुरू हो चुकी हैं और वह दिन दूर नहीं जब भाजपा सत्ता के लिए तगड़ी चुनौती पेश करेगी। पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में जो सबसे बड़ी चीज जाती हुई दिख रही है वह है उसका घोषणापत्र। महिलाओं के लिए केजी से पीजी तक मुफ्त शिक्षा और सार्वजनिक परिवहन के साधनों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा का वादा ऐसा था जोकि काम कर गया। महिलाओं ने ही इससे पहले बड़ी संख्या में दीदी को वोट दिया था लेकिन इस बार इनका वोट प्रधानमंत्री मोदी को मिला है। इसके अलावा भाजपा ने हर जाति वर्ग को साधने का जो प्रयास बहुत पहले से शुरू कर दिया था और हर बूथ तक अपने यूथ लगा दिये थे उसने भी पार्टी का पक्ष मजबूत किया। इन चुनावों में वामदलों ने भले कांग्रेस और आईएसएफ के साथ गठबंधन बनाया था लेकिन वामदलों के कार्यकर्ताओं ने भाजपा का पूरी तरह से साथ दिया है। वाम कार्यकर्ताओं ने तो नारा ही दे दिया था- इस बार राम अगली बार वाम। अब भाजपा सत्ता तक पहुँचती है या उससे पहले आकर रुक जाती है इस पर सभी की निगाहें रहेंगी लेकिन इतना तो है ही कि यदि पिछले चुनावों में तीन सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 100 को पार कर जाती है तो यह स्ट्राइक रेट भी किसी पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन ही कहा जायेगा।

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केरल- केरल विधानसभा चुनावों में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा यानि एलडीएफ सत्ता में लौटेगा इसके संकेत पिछले साल नवंबर-दिसंबर में ही तब मिल गये थे जब पंचायत चुनावों में वामदलों ने अप्रत्याशित प्रदर्शन किया था। केरल का राजनीतिक इतिहास रहा है कि वहां हर बार सत्ता पलट होता है, उस लिहाज से इस बार बारी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ की है। यदि यूडीएफ सत्ता में नहीं आता है तो इसका सर्वाधिक जिम्मेदार राहुल गांधी को ठहराया जायेगा जोकि केरल के वायनाड से सांसद हैं। लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान पूरे देश में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक भले रहा था लेकिन केरल में कांग्रेस की सुनामी आई थी और 20 संसदीय सीटों में से उसे 19 पर जीत मिली थी और इसका श्रेय राहुल गांधी को ही दिया गया था। लेकिन राहुल गांधी केरल की जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। इसके साथ ही विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जिस तरह टिकट बंटवारा किया उससे पार्टी के भीतर काफी असंतोष उभरा जिसे पार्टी के नेता अंत तक हल नहीं कर पाये। इसके अलावा पिनारायी विजयन के नेतृत्व में कोरोना काल में जिस तरह राज्य सरकार ने राहत के कार्य किये और आम जनता तक राहत सामग्री पहुँचायी उससे सरकार की छवि निखरी। कोरोना की पहली लहर से केरल सरकार बहुत बेहतर तरीके से निबटी और उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहना हुई। केरल में महिलाओं और किसानों को जिस तरह सरकारी योजनाओं का फायदा पहुँचाया गया वह भी एक बड़ा कारण है कि गोल्ड स्कैम के दाग मुख्यमंत्री कार्यालय तक पर लगने के बावजूद सरकार की लोकप्रियता कायम है। भाजपा ने यहां अंतिम समय में मेट्रोमैन ई. श्रीधरन के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का जो पासा फेंका वह शायद ही काम कर पाये क्योंकि यह फैसला भाजपा को बहुत पहले लेना चाहिए था। भाजपा राज्य में सांगठिनक रूप से भी कमजोर है साथ ही उसको इस आरोप से भी नुकसान पहुँचा कि एलडीएफ के साथ उसकी अंदर खाने कुछ बात तय हो गयी है। गुरुवायुर सीट पर जिस तरह भाजपा प्रत्याशी का पर्चा खारिज हुआ उससे इस आरोप को और बल मिला। यह सही है कि भाजपा नेताओं के रोड शो और रैलियों में जबरदस्त भीड़ उमड़ी लेकिन जनता की नजर में मुख्य मुकाबला सिर्फ दो गठबंधनों- एलडीएफ और यूडीएफ के बीच ही था।

असम- असम में भाजपा सत्ता में लौट रही है तो उसके चार प्रमुख कारण हैं-

एक- पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में जिस तरह विकास के काम तेजी से चल रहे हैं उसने यहां की दशा और दिशा बदल दी है। इस बात को भले विपक्ष नहीं माने लेकिन यदि आप असम या पूर्वोत्तर के किसी भी इलाके का दौरा करेंगे तो विकास परियोजनाओं की भरमार आपको साफ दिख जायेगी।

दो- यह सही है कि असम में रोजगार और सीएए के मुद्दे पर युवाओं में आक्रोश था लेकिन वह आक्रोश इस बात से हल्का पड़ गया था कि राज्य में पिछले पाँच साल से पूरी तरह शांति है। इससे पहले असम अशांत माना जाता था क्योंकि जब तब उग्रवादी या तो किसी का अपहरण कर लेते थे या फिर धमाके कर दिया करते थे या फिर बंद का आह्वान करते रहते थे। इन सबसे असम की जनता को छुटकारा मिला है जिसके लिए लोग भाजपा की सरकार का आभार मानते हैं।

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तीन- असम कोरोना से बहुत बेहतर तरीके से निबटा है। खासतौर पर राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में हिमंत बिस्व शर्मा ने काफी कार्य किया और वह हमेशा फील्ड में नजर आते हैं। जनता के साथ उनका सतत संपर्क और संवाद उन्हें इतना लोकप्रिय बना चुका है कि मुख्यमंत्री की रेस में वह सर्बानंद सोनोवाल से भी आगे नजर आते हैं। कोरोना काल में राज्य सरकार की ओर से जो राहत अभियान चलाये गये उससे भाजपा को ऐन चुनावों से पहले लाभ हुआ है। इसके अलावा असम में चाय बागान श्रमिकों की मजदूरी कांग्रेस के शासन काल से इस समय ज्यादा मिल रही है।

चार- भाजपा ने यहां सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया और हिमंत बिस्व शर्मा की महत्वाकांक्षाओं को खूब हवा दी। यही नहीं हिमंत के कई समर्थकों को विधानसभा चुनावों में टिकट भी मिले। सोनोवाल ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने समर्थकों को जिताने और हिमंत ने कुर्सी पाने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने समर्थकों को जिताने के लिए कड़ी मेहनत की है जिसका फायदा अंततः भाजपा को ही होगा।

वहीं कांग्रेस ने इन चुनावों में एआईयूडीएफ के साथ महागठबंधन बनाकर बड़ी गलती कर दी। यह महागठबंधन जनता को इसलिए भी रास नहीं आया क्योंकि दूसरे पक्ष की ओर से यह खबर उड़ा दी गयी कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन को बहुमत मिला तो बदरुद्दीन अजमल मुख्यमंत्री बन सकते हैं। जाहिर है कांग्रेस शासनकाल में बांग्लादेशी घुसपैठियों के यहां पैठ बनाने की बात राज्य के लोग भूले नहीं हैं। इसके अलावा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भले यहां खूब प्रचार किया हो और चाय बागान श्रमिकों के साथ फोटो भी खूब खिंचवाये हों लेकिन वह जनता की नब्ज पकड़ पाने में विफल रहे साथ ही उनके राज्य के दौरे ऐन चुनावों से पहले ही शुरू हुए। कांग्रेस अपना कोई एक सर्वमान्य चेहरा यहां प्रस्तुत नहीं कर पाई जिसका भी खामियाजा उसे उठाना पड़ सकता है।

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तमिलनाडु- तमिलनाडु में यह पहला विधानसभा चुनाव था जोकि एम. करुणानिधि और जे. जयललिता की अनुपस्थिति में हुआ। करुणानिधि अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी अपने बेटे एमके स्टालिन को बनाकर गये थे और जयललिता के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में ओ. पनीरसेल्वम थे लेकिन शशिकला ने उन्हें साजिशन रास्ते से हटाने की कोशिश की और इस तरह ई. पलानीसामी मुख्यमंत्री बने। पलानीसामी और पनीरसेल्वम के बीच राजनीतिक मतभेद सुलझवाने में भाजपा भले सफल हो गयी लेकिन दोनों नेताओं ने जिस तरह पार्टी और सरकार को चलाया है उससे अन्नाद्रमुक की बर्बादी की भविष्यवाणी बहुत पहले की जाने लगी थी। दूसरा अन्नाद्रमुक दस साल से सत्ता में है इसलिए सरकार के खिलाफ नाराजगी भी थी। स्टालिन के नेतृत्व में यूपीए ने लोकसभा चुनावों के दौरान भी तमिलनाडु में अच्छा प्रदर्शन किया था। स्टालिन के हाथ में जब से द्रमुक की कमान आई है वह परिवार और पार्टी को एकजुट रखते हुए आगे बढ़ रहे हैं। स्टालिन ने अपने घोषणापत्र में जो लुभावने वादे किये थे उसका भी अच्छा प्रतिफल उन्हें मिलने जा रहा है। स्टालिन ने जनता का मन शायद पहले ही पढ़ लिया था इसलिए कमल हासन और कांग्रेस को कोई भाव नहीं दिया। वह तो सोनिया गांधी के खुद फोन करने पर उन्होंने कांग्रेस के लिए 25 सीटें छोड़ दीं वर्ना वह बीस सीटें ही देना चाहते थे। स्टालिन यह बात जानते हैं कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने का मतलब सत्ता में आने की अपनी संभावनाओं को कम करना है और वैसे भी उनके सामने तो बिहार का हालिया उदाहरण सामने था जहां आरजेडी यदि कांग्रेस को ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने को नहीं देती तो उसकी सरकार बन सकती थी। चुनाव परिणाम बाद माना जा सकता है कि अन्नाद्रमुक की राजनीति में शशिकला की वापसी होगी और पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन देखने को मिल सकता है।

पुडुचेरी- पुडुचेरी में ऐन चुनावों से पहले जिस तरह कांग्रेस की सरकार गिरी उससे कांग्रेस के नेताओं ही नहीं कार्यकर्ताओं का भी मनोबल गिर गया था और पूरे चुनाव में कांग्रेस शक्तिहीन-सी नजर आ रही थी। यही नहीं पिछले पांच साल में जिस तरह राज्य में कांग्रेस की सरकार चली उसके खिलाफ भी लोगों में नाराजगी थी। मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल किरण बेदी के बीच लड़ाई ही सिर्फ चर्चा में रही। अपने मुख्यमंत्री के कामों की असलियत शायद कांग्रेस समझ गयी थी इसलिए उन्हें लड़ने के लिए विधानसभा चुनावों में टिकट ही नहीं दिया। भाजपा ने यहां दूसरे दलों के लोकप्रिय नेताओं को अपने पाले में लाकर एनडीए की मजबूत नींव रखी और लोक लुभावन घोषणापत्र भी जारी किया। यही नहीं साफ छवि वाले पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करना भी एनडीए के पक्ष में जाता दिख रहा है।

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बहरहाल, पाँच राज्यों के एग्जेक्ट पोल तो 2 मई को आयेंगे लेकिन एग्जिट पोल के परिणाम यह तो दर्शा ही रहे हैं कि जनता ने सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि पाँचों राज्यों में खेला कर दिया है।

- नीरज कुमार दुबे 

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