हिड़मा का अंत नक्सल आंदोलन के ताबूत में आखिरी कील, देश को लाल आतंक से मुक्ति दिलाने के करीब हैं अमित शाह

Madvi Hidma
ANI

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमित शाह की सख्त, निरंतर और परिणाम-उन्मुख नीतियों ने सुरक्षा बलों में वह गति भर दी, जिसकी भारत को वर्षों से आवश्यकता थी। माओवादी हिंसा जिस रफ्तार से सिमट रही है, वह उनकी रणनीति का प्रत्यक्ष परिणाम है।

भारत के आंतरिक सुरक्षा तंत्र के लिए 2025 एक निर्णायक मोड़ साबित हो रहा है। CPI (माओइस्ट) के सबसे क्रूर, सबसे चालाक और सबसे कुख्यात सैन्य कमांडर मदवि हिड़मा का खात्मा केवल एक ऑपरेशनल सफलता नहीं, यह एक बहुत बड़ा संदेश भी है। यह संदेश है उस अंतिम लड़ाई का, जिसकी समय सीमा खुद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तय की थी। हिड़मा का अंत 30 नवंबर 2025 की डेडलाइन से ठीक 12 दिन पहले हुआ है। यह डेडलाइन अमित शाह ने सुरक्षा बलों को देते हुए कहा था कि हिड़मा का आतंक उसी दिन तक समाप्त होना चाहिए। हिड़मा की मौत ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि देश अब उस विजय रेखा के बेहद करीब है, जिसे गृह मंत्री ने 31 मार्च 2026 तक माओवाद को पूरी तरह समाप्त करने के रूप में परिभाषित किया था।

हम आपको याद दिला दें कि अमित शाह ने पिछले वर्ष घोषणा की थी कि माओवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने का समय आ चुका है। उन्होंने बड़ी समय-सीमा देने के साथ-साथ सुरक्षा एजेंसियों को छोटे-छोटे लक्ष्य (milestones) भी सौंपे थे। जैसे- कहीं किसी इलाके को माओवादियों से पूरी तरह मुक्त कराना, कहीं किसी शीर्ष माओवादी नेता को समर्पण के लिए मजबूर करना और कहीं ऑपरेशनों के माध्यम से संगठन की कमर तोड़ देना। उसी रणनीति का सबसे अहम माइलस्टोन था हिड़मा का निपटारा, जिस पर अमित शाह ने हाल की समीक्षा बैठकों में निजी तौर पर जोर दिया था। हिड़मा का अंत उसी जंगल में हुआ, जहाँ से उसका आतंक शुरू हुआ था।

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आज यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमित शाह की सख्त, निरंतर और परिणाम-उन्मुख नीतियों ने सुरक्षा बलों में वह गति भर दी, जिसकी भारत को वर्षों से आवश्यकता थी। माओवादी हिंसा जिस रफ्तार से सिमट रही है, वह उनकी रणनीति का प्रत्यक्ष परिणाम है।

कौन था हिड़मा और क्यों था इतना महत्वपूर्ण यदि इस सवाल पर गौर करें तो आपको बता दें कि मदवि हिड़मा माओवादियों की केंद्रीय समिति का सबसे युवा सदस्य था, लेकिन उसकी कुख्याति, क्रूरता और क्षमताएँ उसे संगठन का सबसे खतरनाक सैन्य चेहरा बनाती थीं। वह PLGA की कुख्यात बटालियन नंबर 1 का कमांडर रहा था। वह बस्तर का एकमात्र आदिवासी नेता था जिसे माओवादियों की केंद्रीय समिति में जगह दी गई। छत्तीसगढ़, तेलंगाना और ओडिशा में कई बड़े हमले उसी की योजना का हिस्सा थे। वर्षों से सुरक्षा बल उसकी तलाश में थे, लेकिन वह हमेशा बच निकलता था। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने उसकी माँ से मिलकर समर्पण की अपील भी करवाई, पर वह तैयार नहीं हुआ। उसकी मृत्यु पर बस्तर रेंज के IG सुंदरराज पी का यह बयान बिल्कुल सटीक है कि “यह वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई में ऐतिहासिक माइलस्टोन है।”

हम आपको बता दें कि केंद्रीय समिति की शक्ति अब घटकर केवल 7 सदस्यों पर आ गई है। इनमें भी गणपति अस्सी के करीब है, मिसिर बेसरा झारखंड के कुछ क्षेत्रों तक सीमित है और संगठन का कैडर आधार तेजी से खत्म हो रहा है। सक्रिय नेताओं में देवजी, संग्राम, गणेश उइके, रामदर और दो क्षेत्रीय कमांडर— बरसे देवा व पप्पा राव ही बचे हैं। अनुमान है कि 100-150 से ज्यादा सशस्त्र माओवादी कैडर अब पूरे देश में नहीं बचे हैं। जो बचे हैं वह भी कुछ आरक्षित वनों और सीमावर्ती इलाकों तक सिमटे हुए हैं।

देखा जाये तो 2025 में माओवादियों को जो सबसे बड़ी चोटें लगी हैं, वे अभूतपूर्व हैं। पहले PB नेता नंबाला केसव राव मारा गया फिर सोनू उर्फ वेणुगोपाल राव ने आत्मसमर्पण किया। इसके अलावा, कई केंद्रीय समिति सदस्य मारे गए या समर्पण कर चुके हैं। सत्यानारायण रेड्डी, कट्टा रामचंद्र रेड्डी, चेलपति, रवि, विवेक यादव, थेंतु लक्ष्मी, सुजाता, चंद्रन्ना और रुपेश जैसे वरिष्ठ कैडर ने हथियार डाल दिए हैं। यह परिदृश्य बताता है कि माओवादी संगठन अंतिम साँसें गिन रहे हैं।

देखा जाये तो हिड़मा का खात्मा उन हजारों जवानों के संघर्ष, बलिदान और धैर्य का प्रतिफल है, जो वर्षों से नक्सल प्रभावित इलाकों में लड़ाई लड़ रहे हैं। यह उस केंद्रीय नेतृत्व का भी प्रमाण है, जिसने लक्ष्य स्पष्ट किए, समयसीमाएँ तय कीं और परिणाम की मांग की। आज भारत पहली बार उस बिंदु पर खड़ा है जहाँ माओवादी संरचना बिखरी हुई है, उसकी केंद्रीय समिति कमजोर है, टॉप कमांडर समाप्त हो गये या आत्मसमर्पण कर रहे हैं, कैडर संख्या सबसे निचले स्तर पर है और जनता का सहयोग सुरक्षा बलों की ओर झुक चुका है।

बहरहाल, भारत दशकों से इस लाल आतंक से जूझ रहा था। अब पहली बार, देश उस ऐतिहासिक क्षण के बेहद करीब है जहाँ माओवादी हिंसा केवल स्मृति बन सकती है। यह उपलब्धि किसी एक ऑपरेशन की नहीं, यह राजनीतिक इच्छाशक्ति, स्पष्ट रोडमैप और अमित शाह के नेतृत्व वाली कठोर, लक्ष्य-उन्मुख रणनीति की देन है। यदि वर्तमान गति बनी रहती है तो 31 मार्च 2026 की वह तारीख— जिसे अमित शाह ने नक्सलवाद की अंतिम तिथि कहा है वह सिर्फ काग़ज़ी लक्ष्य नहीं बल्कि भारत की सुरक्षा इतिहास का निर्णायक मोड़ बन सकती है।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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